कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

सोमवार, 26 दिसंबर 2016

एक बादशाह की प्रेम कहानी - कुमार मुकुल

'बाजबहादुर-रूपमती' दिशा प्रकाशन दिल्‍ली से प्रकाशित लक्ष्‍मीदत्‍त शर्मा 'अन्‍जान' की रोचक ऐतिहासिक कृति है। अन्‍जान की यह इकलौती कृति उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी। इस विषय पर हरेकृष्‍ण देवसरे का भी 'मालवा सुलतान' नाम से उपन्‍यास है। यह उपन्‍यास शेरशाह से लेकर हुमायूं और अकबर तक के शासन काल की झलकियां दिखाता चलता है। एक अफगान शासक बाजबहादुर और एक सामान्‍य हिंदू संगीतज्ञ की बेटी रूपमती की यह प्रेमकहानी राजवंशों की प्रेम कहानियों के मुकाबले ज्‍यादा मानवीयता लिए हुए है।
कभी माण्‍डव का शासक रहा बाजबहादुर जंगलों में छुपकर मुगलों से जान बचाता फिरता है। आखिर वह जंगली जातियों और भील सरदारों की सहायता लेकर मुगलों से फिर मुकाबला करता है और अपना राज्‍य वापिस लेता है। पर जब उसे मालूम होता है कि अकबर के एक सरदार की प्रताड़ना का शिकार होकर रूपमती ने जहर खाकर अपनी जान दे दी है तो फिर राज-काज चलाने की उसकी इच्‍छा नहीं रहती।
फिर उसे पता चलता है कि रूपमती को मौत की आगोश में जाने को मजबूर करने वाले मुगल सरदार अदहम खां , जो अकबर का कोका भाई भी था, को इस क्रूरता के एवज में अकबर के हाथों मरना पड़ा तो उसका अकबर के प्रति नजरिया बदलता है। अकबर हिंदू प्रजा का भी उसी तरह ख्‍याल रखता था जैसा मुस्लिम प्रजा का रखता था। उसने रूपमती के ताबूत को उसके मादरेवतन सारंगपुर में वापिस भिजवा कर सम्‍मान के साथ दफनवाया था और उसकी कब्र पर एक खूबसूरत मजार भी बनवाई थी। यह सब जानकर बाजबहादुर का मन अकबर के प्रति बदलता चला गया। उसे बस एक दुख था कि अनजाने में अकबर से एक गलती हो गयी थी। उसने रूपमती को वादा किया था कि वह उसके धर्म का भी अपने धर्म की तरह सम्‍मान करेगा। और अगर जीते जी उसका इंतकाल हुआ तो उसे दफनाने की बजाय चिता को अर्पित करेगा। पर राज-काज के लफड़े में वह अपनी रूपमती को मरते समय देख भी न सका।
दरअसल बाजबहादुर अफगान शासक के साथ एक पहुंचा हुआ गायक भी था। रूपमती पहली मुलाकात में उसके गायक रूप पर ही रीझ गयी थी। फिर उनका प्रेम परवान चढा पर शासक पिता के दबाव में विवश बाजबहादुर को एक सरदार की लड़की से विवाह करना पड़ा पर इससे उसका प्रेम मरा नहीं। उधर रूपमती भी मन से बाजबहादुर को निकाल ना सकी। आखिर पिता की मृत्‍यु के बाद बाजबाहदुर ने रूपमती को अपनाया। इससे नाराज होकर सरदार की पुत्री ने राजमहल छोड मायके का रूख किया और फिर रूपमती के जीते जी वापिस नहीं आयी। हालांकि रूपमती ने कभी रानी बनने की इच्‍छा नहीं जतायी और बाजबहादुर के साथ संगीत की महफिलों में ही रमी रहीं।
यह उपन्‍यास दर्शाता है कि अगर बाजबहादुर इस संगीत प्रेम में ना पड़ता तो संभव था कि भारत का इतिहास कुछ और होता। क्‍येांकि बाजबहादुर लड़ाका भी जबरदस्‍त था। अपनी जिंदगी में उसने कभी किसी से हार नहीं मानी। संगीत के साज के साथ उसने सत्‍ता भी साध ली थी। पर संगीत की म‍हफिलें और बर्बरता आधारित राजसत्‍ताएं साथ-साथ कैसे चलतीं। तो मुगल धीरे-धीरे काबिज होते गए।
हालांकि बाजबहादुर ने भीलों की सहायता से मुगलों से माण्‍डव की सत्‍ता फिर छीन ली थी पर रूपमती की मौत की खबर ने उसके मानस को बदल दिया। उसने सोचा कि शासक तो अकबर भी अच्‍छा ही है। सो अंत में जीती बाजी हारते हुए उसने अकबर के दरबार में एक गायक के रूप में रहने को एक शासक के रूप में रहने पर तरजीह दी।
कहा जा सकता है कि प्रेम और संगीत के सामने बाजबहादुर ने तख्‍तो-ताज को किनारे कर दिया। उसके काल के तमाम शासकों को लोग बिसार चुके हैं तभी तो रूपमती और बाजबहादुर की कथा को लोग अपने-अपनी तरह से लिख रहे हैं।
पुस्‍तक – बाजबहादुर-रूपमती
लेखक - लक्ष्‍मीदत्‍त शर्मा 'अन्‍जान'
प्रकाशक - दिशा प्रकाशन, दिल्‍ली।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

फैज - अंधेरे में सुर्ख लौ

‘फैज की शख्सियत:अंधेरे में सुर्ख लौ’ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज आदि के संपादन में राजकमल प्रकाशन से आयी एक अच्‍छी किताब है, जिससे गुजर कर फैज्‍ के बहुआयामी व्‍यक्त्त्वि को जानने समझ में काफी मदद मिलती है। पुस्‍तक में खुद फैज अहमद फैज की आपबीती की दो‍ किस्‍तों के अलावे उनकी पत्‍नी एलिस फैज और जेल में साथ समय बिताने वाले व अन्‍य मित्रों के संस्‍मरण हैं।
आपबीती को पढकर यह जाहिर होता है कि फैज का जीवन सहज नहीं था। उन्‍होंने जिंदगी में काफी उठा-पटक देखी थी। उनके पिता उन्‍हें बताया करते थे कि बचपन में वे चरवाहे थे फिर आगे वे जिंदगी की चढान चढते गए और कैंब्रिज में पढाई आदि की और अंग्रेजों के वफादार हो गये थे और शान की जिंदगी बितायी थी। पिता को याद करते फैज एक जगह लिखते हैं कि उनका नाम सुल्‍तान था और मैं यह कह सकता हूं कि मेरे पिता राजा थे। पर विडंबना यह रही कि मरते समय तक उनके पिता ने अपनी सारी संपत्ति मौज-मस्‍ती में गंवा दी थी और विरासत में फैज के लिए संघर्ष छोड गये थे। फैज लिखते हैं कि जब पिता गुजरे तो घर में खाने तक को कुछ नहीं था।
1941 द्वितीय विश्‍वयुद्ध के समय उनका पहला कविता संकलन आया था जो खूब बिका था। पर युद्ध के बढने पर फैज ने फौज ज्‍वायन कर लिया। उस समय तक उनमें वामपंथी रूझान पैदा हो चुकी थी और उन पर फौज में शक किया जाता था। युद्ध की समाप्ति पर उन्‍होंने खुद फौज से अलग कर लिया। आगे 1947 में वे पाकिस्‍तान टाइम्‍स के संपादक हुए और चार साल संपादकी की। इसी समय अपने एक फौजी मित्र जनरल अकबर खान के साथ मिलकर सरकार पलटने के षडयंत्र में उन्‍हें जेल हुयी। जेल में पढने-लिखने का काफी वक्‍त होने के चलते उनकी कलम वहां लगातार चलती रही।
यह सब पढते जाहिर होता है कि फैज में जिंदगी को जीने का दुर्निवार जज्‍बा था जो जेल के कमरों को भी अध्‍ययन कक्ष में बदल देता था। ऐसी मिसालें हमारे यहां पं. नेहरू, गांधी आदि ने भी दी हैं जिन्‍होंने जेल में रह कर काफी कुछ पढा लिखा।
अपनी शरीफाना बनावट का श्रेय फैज महिलाओं को देते हैं जिनकी सोहबत में वे आम उज्‍जडपन से बचे रहे। फैज के पारिवारिक मित्र आफताब अहमद लिखते हैं – वो किसी से कोई कडवी या सख्‍त बात नहीं करते थे। शायद इसीलिए जीवन की कठिनइयों को वे अपने ढंग से झेल सके। जब उन्‍हें सरकार पलटने के इलजाम में जेल हुयी तो कुछ अखबारों ने उन्‍हें लेकर गद्दार विशेषांक तक निकाला। उस समय फैज ने लिखा –
जो हम पे गुजरी सो गुजरी, मगर शबे हिज्रां
हमारे अश्‍क तेरी आकबत संवार चले।
फैज की नाजुकमिजाजी की बाबत उनके साथ जेल में चार साल गुजार चुके साथी मेजर मुहम्‍मद इश्‍हाक लिखते हैं - ...यूं ही किसी ने त्‍योरी चढा रखी हो, उनकी तबीयत जरूरत खराब हो जाती है, और इसके साथ ही शायरी की कैफियत काफूर हो जाती है।
किताब फैज से जुडे कई निजी प्रसंग को सामने लाती है, जैसे कि वे छिपकलियों से बहुत घिनाते थे और आस पास दिख जाने पर बिछावन पर सो नहीं पाते थे। पाकिस्‍तान के फौजी शासन के समय जब वहां तमाम हिंदुस्‍ताने से जुडे रचनाकारों को पढने पर पाबंदी लगा दी गयी थी और रेडियो से बस इकबाल की रचनाओं का प्रसारण होता था तब फैज हिंदुस्‍तान रेडियों से अमीर खुसरो, फैयाज खां आदि को सुना करते थे।
पुस्‍तक के दूसरे खंड में फैज की खतो-किताबत और बातचीत को सं‍कलित किया गया है। जिसमें नूर जहीर और जहूर सिद्दीकी ने फैज और एलिस के खतों को सामने रखा है। इसके अलावे इब्‍बार रब्‍बी , नईम अहमद आदि से फैज की बातचीत भी इसमें शामिल है। कुल मिलाकर यह पुस्‍तक फैज को समझने में काफी हद तक मददगार साबित होती है।
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पुस्‍तक – फैज की शख्सियत: अंधेरे में सुर्ख लौ
संपादन – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज
प्रकाशक – राजकमल

बुधवार, 7 दिसंबर 2016

अरूण कमल का भोगवादी गद्य – पारचूनी परचम

'मैं तो चारण हूं ...अरूण कमल' 

 “कविता और समय´´ पुस्तक में संकलित `कविता का आत्म संघर्ष´ शीर्षक टिप्पणी में मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को याद करते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “कौन-सा शब्द हम चुनें और कौन-सा छोड़ दें। यह बहुत महत्‍वपूर्ण होता है।…बहुत बार तो हम सिर्फ शब्दों के प्रचलन को जांच करके पता लगा सकते हैं कि कवि का समाज से संपर्क कैसा है, कौन से विषयों को वह चुनता है और फिर उसकी पूरी दृष्टि कैसी है। यानी विषय से शुरू करके एक शब्द का, बल्कि हम तो कहेंगे एक मात्राा तक का जो चुनाव होता है वहां तक यह बहुत ही महत्‍वपूर्ण प्रक्रिया चलती रहती है।´´
उपरोक्त गंभीर वक्तव्य पुस्तक की `टिप्पणियां´ के अंतर्गत संकलित अपेक्षाकृत हल्के माने गए निबंधों में से एक से है। पुस्तक के आरंभिक `आलोचना´ खंड का अंतिम आलेख `हिंदी के हित का अभिमान वह´ नामवर सिंह पर है। आलोचना खंड में ही रघुवीर सहाय पर `न्याय की लड़ाई के पक्ष में´ शीर्षक से लिखते हुए अरुण कमल कहते हैं- “किसी भी कवि की निपुणता और उसके संपूर्ण काव्य-आचार तथा जीवन-दृष्टि की जांच एक उपयुक्त कविता के जरिए हो सकती है।´´ इसी को ध्‍यान में रख मैंने अरुण कमल के गद्य विवेक को समझने के लिए नामवर सिंह पर लिखा उनका यह आलेख चुना है। ध्‍यान से पढ़ने पर यह आलेख व्यंग्याभिनंदन लगता है। यानी व्यंग्य और अभिनंदन का मिश्रण। नामवर सिंह पर लिखित यह आलेख ग्यारह पृष्ठों में है जिसमें तीन पृष्ठ सीधे उनकी पुस्तक `कहना न होगा´ से उद्ध्‍ृत हैं।
अपने अभिनंदनालेख के अंतिम पैरों में गंभीर होते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “आलोचक पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्री (बोल्ड लेटर में) है जिसके बिना कोई भी साहित्य-भोज न तो आरंभ हो सकता है, न पूर्ण, न पवित्र।´´
लेखन में मात्रा और ध्‍यान की महत्ता बताने वाले अरुण कमल की ध्‍वनियों का संसार बाजारपरक और खाऊ किस्म का लगता है। वे आलोचना शोभा बढ़ाने (अभिनंदन) के लिए लिखते हैं। फिर आलोचना उनके लिए पवित्री (चरणामृत-परसादी) भी है और साहित्य भोज। अगर अरुण कमल मलयज से उनके समय के विवेक की सफाई मांग सकते हैं तो क्या हमें भी यह अधिकार मिलता है कि हम उनसे इन महाप्राण ध्‍वनियों का निहितार्थ पूछें? इसी पुस्तक में अरुण कमल रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति पर आपत्ति करते लिखते हैं कि “यह कहने का भद्दा ढंग है´´ आलोचना पर बात करने का अरुण कमल का उपरोक्त ढंग कैसा है? क्या वह भोगवादी है? और पूंजीवादी भी, जिसका अच्छा खाका मुक्तिबोध अपनी `पूंजीवादी समाज के प्रति´ कविता में खींचते हैं।
“इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द-जितना ढोंग, जितना भोग है निबंध।´´
आगे अरुण कमल नामवर सिंह द्वारा अपने प्रिय आलोचक एफआर लिविस पर की गई टिप्पणी को ही नामवर जी के लिए उद्धृत कर देते हैं। इस तरह घर से एक पाई (शब्द) लगाए बिना ही रंग चोखा कर लेते हैं। फिर वे लिखते हैं, “हो सकता है डॉ नामवर सिंह में कई भटकाव हों…भटकना पसंद करूंगा। नामवर सिंह के साथ…।´´ `हो सकता है´, `शायद´, `संभावित´, `लेकिन´ के बहुप्रयोग वाली अरुण कमल की यह भाषा ही भटकाने वाली है। भटकना अरुण कमल को पसंद भी है! पर क्या यह अभिनंदन नामवर सिंह को भटका सकेगा! या वह पहले ही भटक चुके हैं? कहीं पर एक बार नामवर सिंह ने अपनी खूबी बताते हुए लिखा था- “मेरी हिम्मत देखिए मेरी तबीयत देखिए, सुलझे हुए मसले को फिर से उलझाता हूं मैं।´´
काव्य भाषा की समझ अरुण कमल को चाहे जितनी हो पर अपने समय की समझ खूब है। तभी तो बाजार की भाषा पर हमले की तेजी को देखते उन्हें प्रतिकार में कविता पर `अंधाधुंध टिप्पणी करने की जरूरत पड़ती है। इस टिप्पणी का शीर्षक `पारचून´ देते हैं वे। `पारचून´ में वे लिखते हैं “यदि ईश्वर है तो यह पूरी पृथ्वी उसके लिए पारचून की एक दुकान ही तो है, कविता भी ऐसी ही अच्छी लगती है, ढेर-ढेर चीज़ें, बेइंतहा, सृष्टि की एक अद्भुत नुमाइश-पारचून की दुकान।´´
कुल लब्बो-लुआब यह कि आलोचना अगर पवित्री (परसादी) है तो कविता पारचून की दुकान। चलिए कविता की कुछ तो इज्जत रखी। परसादी की तरह `मोफत´ की तो नहीं कहा। यूं आज मोफतखोरों का ही बोल-बाला है।
अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में अरुण कमल खुद को माक्र्सवादी बताते हैं। चलिए माक्र्सवाद का नया अर्थशास्त्र `पारचून´ में दृष्टिगोचर हुआ। पर सवाल उठता है कि फिर वे कवि श्रीकांत वर्मा को बाजार और उदारीकरण की पक्षधर कांग्रेस के प्रवक्ता होने के चलते क्यों कोसते हैं!
`मगध´ पर लिखते अरुण कमल लिखते हैं“मैं लगातार किंचित विस्मय के साथ सोचता रहा कि एक समर्थ कवि जो शासक दल का उच्चािधकारी और प्रवक्ता है, वह आज कैसी कविताएं लिख सकता है…एक कवि जो तत्कालीन जीवन के कष्टों और विडंबनाओं का साक्षी नहीं हो सकता, अन्याय और संहार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। वह काल और शाश्वत जीवन के बारे में लिखने का अधिकारी है? पता नहीं ये विचार कवि द्वारा श्रीकांत वर्मा पुरस्कार लेने के पहले के हैं या बाद के। पुरस्कार के निर्णय में क्या आज भी श्रीकांत वर्मा की कांग्रेेसी सांसद पत्नी की भागीदारी नहीं है! क्या श्रीकांत वर्मा के बेटे की जालसाजी उजागर होने के बाद कवि के विचार उस पुरस्कार के प्रति बदले हैं? नहीं, तो श्रीकांत वर्मा से ऐसे सवालों के मानी क्या हैं? श्रीकांत वर्मा की पुस्तक `मगध´ उनके विवादास्पद व्यक्तित्व के बाद भी जिस निर्विवादिता को प्राप्त कर चुकी है, क्या उससे अरुण कमल को जलन होती है?
फिर अकादमी पुरस्कार भी क्या उसी कांग्रेसी या भाजपाई संस्कृति का एक हिस्सा नहीं है जिसके लिए अरुण कमल श्रीकांत वर्मा के कविता के अिèाकार को ही सवालों के घेरे में ला देते हैं। अकादमियों के स्वरूप पर प्रकाश डालते नामवर सिंह लिख चुके हैं- “नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक `एलीटिस्ट´ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।´´
अरुण कमल की भाषा में `भोग´ और `चारण´ वृत्ति को बढ़ावा देने वाली ध्‍वनियां सर्वाधिक हैं। उनके लेखन का अधिकांश आपको एक किंकर्तव्यविमूढ़ता में ला खड़ा करता है। वे नामवर सिंह पर लिखते हैं कि `आलोचक का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखाना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।´ क्या साहित्य में जगाने से मतलब नींद खराब करना होता है! फिर `पहला´ के पूर्व `सबसे´ का अनोखा प्रयोग! दरअसल कहने को बातों का टोटा होने पर ही ऐसी जड़ाऊ भाषा गढ़नी पड़ती है।
अरुण कमल के अनुसार नामवर सिंह हिंदी के हित का अभिमान हैंµ“पूंजीभूत मेधा, नाभि, बंजारा, अकेले ही संपूर्ण प्रतिपक्ष हैं।´´ “और अविस्मरणीय अनुभव है उन्हें सुनना-निष्कम्प स्वर और `सस्वर गद्य´। `विचार दुर्भ्रिक्ष´ में विचारों का छप्पन भोग। इस छप्पन भोग के बिना शोभा ही नहीं बनती अरुण कमल के पैरे की। आखिर दुर्भिक्ष में भी `छप्पन भोग´ की पुरोहित कामना किस मानस को दर्शाती है?
मतलब साफ है कि कहीं आलोचना पवित्राी है, कहीं छप्पन भोग, कहीं दुधारू। या यूं कहें कि जो दुधारू है, वही आलोचना है। कहावत भी है कि दुधारू गाय की दो लात सही। सो अरुण कमल की नजर गाय के दूध पर रहती है। जब तक प्रशस्ति है तब-तक दुधारू है। फिर उन्होंने कविता को खूंटा बना डाला है। भला खूंटे से बंधे बिना, दुधारू हुए बिना आलोचना कैसे हो सकती है! जाने खुद पर ऐसी दुधारू शैली में आलेख देख नामवर सिंह क्या सोचते होंगे? क्योंकि “वागाडंबर भाषा का सबसे बड़ा दोष है´´ यह नामवर सिंह का ही कथन है।
कभी आलोचना को वे सिल (सिलबट्टा) बताते हैं जिस पर विवेक की छूरी सान चढ़ती है, कभी उसे ऐसा शिकारी कुत्ता बताते हैं जो सूंघ नहीं सकता। कुल मिला कर अरुण कमल के नामवर सिंह पर लिखे इस लेख के आधार पर आलोचना पर एक पॉप गीत तैयार किया जा सकता। वो जो गाना है ना गोविंदा वाला, “…मेरी मरजी। आलोचना तेरा ये करूं वो करूं मेरी मरजी।´´
फिर वे लिखते हैं कि नामवर सिंह के निष्कर्ष रचना के निष्कर्ष हैं। पर वे कौन से निष्कर्ष हैं, इस पर वे एक पंक्ति नहीं लिखते। भई जैसे `कहना न होगा´ से लेकर तीन पृष्ठ भरे वैसे ही नामवर सिंह पर `पहल´ के अंक से कुछ पृष्ठ निष्कर्ष पाठकों को उपलब्ध करा देते उद्धरण के रूप में। जैसे- एफआर लिविस पर टिप्पणी उपलब्ध कराई है।
आगे वे आलोचक के कर्तव्य की गंभीरता बतलाते हुए लिखते हैं“ढेर सारी कविताओं के, बीच ऐसी कविताओं को पहचानना भी दुष्कर है, जो कि एक श्रेष्ठ आलोचक को करना होता है- गाड़ी दौड़ में सबसे तेज दौड़ने वाली गाड़ी के साथ-साथ नजर टिकाए हुए – दौड़ना।´´ यहां कविता लेखन को घुड़दौड़ बना दिया गया। और आलोचक सट्टेबाज। नामवर सिंह का जो वक्तव्य अरुण कमल को मार्मिक लगा वह यह है कि “मैं तो चारण हूं, प्रत्येक राज-कवि का गुण गाने को तत्पर।´´ अकादमी पुरस्कार के बाद राज-कवि होने में काहे का संदेह।
आगे अरुण कमल लिखते हैं, “सृजन का अर्थ है शिष्ठ-भाषा को लोकभाषा के पास गर्भाधान हेतु ले जाना।´´ मतलब एक सांड भाषा दूसरी गाय भाषा। आगे वे दो तरह की आलोचना भी बताते हैं। एक पत्रकारी आलोचना जो दाएं-बाएं मुंह मारती चलती है, दूसरी अफसरी आलोचना जो गठिया पीिड़त बिना देह हुक्म चलाती है। क्या उनका आशय अज्ञेय, रघुवीर सहाय और अशोक वाजपेयी से है! और नामवर सिंह को वे दोनों के विरुद्ध पाते हैं। `कहना न होगा´ पर वे लिखते हैं, इसमें है, “विचार की एक मुख्यधारा और फिर सहायक नदियां। एक मुख्य घर और दालान बैठका।´´ गतिशील नदी और घर-बैठका का तुलनात्मक भानुमतीय विवेचन अरुण कमल के वश की ही बात है। वे कहते हैं कि नामवर सिंह की इस किताब के आधार पर `गाइड´ या `मैनुअल´ तैयार किया जा सकता है। कुल मिलाकर अरुण कमल कविता की अकादमिक पढ़ाई से बाहर आलोचना का काम समझ ही नहीं पाते। अंत में वे नामवर सिंह को तालस्तोय बताते हुए उनमें `लोमड़ी´ और `साही´ की क्षमताएं एक साथ देख पाते हैं। अच्छा है `साही´ पर एक केले का थंब गिरा देने की जरूरत है और लोमड़ी की बाजारू मुफ्तखोरी से तो लड़ने की जरूरत पड़ेगी ही।

पटना से प्रकाशित पाक्षिक न्‍यूज ब्रेक में यह टिप्‍पणी अरसा  पहले प्रकाशित हो चुकी है।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

नामवर सिंह - प्रेमचन्‍द और भारतीय समाज

प्रेमचन्‍द और भारतीय समाज नामवर सिंह की आठ पुस्‍तकों की श्रृंखला में एक है। यह योजनाबद्ध रूप से लिखी गयी कोई कृति नहीं है।  2005 से 2010 के बीच के पांच सालों में इस श्रृंखला के संपादक आशीष त्रिपाठी ने प्रो.कमला प्रसाद की प्रेरणा से पिछले साठ सालों में नामवर सिंह के छपे पर असंकलित आलेखों और वक्‍तव्‍यों से इसे तैयार किया है।
जैसा कि नामवर सिंह कहते हैं कि – मेरी ज्‍यादातर पुस्‍तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। यह पुस्‍तक भी कई बहसों पर अपने अंतरविरोधों के साथ पाठकों के सामने आयी है। एक बहस यही है कि प्रेमचन्‍द गांधीवादी थे या नहीं। इस संदर्भ में पुस्‍तक में पहली टिप्‍पणी, बीबीसी को दिए गए बयान में, नामवर सिंह ने यह की है कि –‘यद्यपि लोग उन्‍हें गांधीवादी कहते हैं, लेकिन वे गांधी से दो कदम आगे
बढकर आन्‍दोलन और क्रांति की बात करते हैं। प्रेमचन्‍द अपने जमाने के साहित्‍यकारों से ज्‍यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं।‘
यहां नामवर जी की बातें स्‍पष्‍ट नहीं हैं। यह तो ठीक है कि प्रेमचन्‍द अपने जमाने के साहित्‍यकारों से ज्‍यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं पर गांधी से भी दो कदम आगे बढकर आंदोलन की बात ही करते हैं,
जबकि गांधी आंदोलन भी करते हैं। केवल बात नहीं करते। एक लेखक के रूप में प्रेमचन्‍द से हम उस तरह से आंदोलन की अपेक्षा भी नहीं करते।
इस टिप्‍पणी के बाद वाले आलेख में नामवर सिंह ने गांधी और प्रेमचन्‍द को उनके सही संदर्भों में देखा है। गांधी-टैगोर के विवाद के परिपेक्ष्‍य में वे लिखते हैं – ‘ गांधी जी के इस क्ष्‍ुाधित पक्ष को साहित्‍य में यदि किसी ने पूरी ममता के साथ स्‍थान दिया तो प्रेमचन्‍द ने, क्‍योंकि गांधीजी के समान ही प्रेमचन्‍द की दृष्टि भी यथार्थ पर
थी...। राजनीति को गांधी यदि संघर्ष की नई भाषा , नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे तो साहित्‍य को भी प्रेमचन्‍द  उसी प्रकार नई भाषा ,नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे।‘
प्रेमचन्‍द को नामवर सिंह हिन्‍दी का पहला प्रगतिशील लेखक मानते हुए उनकी भूमिका को कबीर की भूमिका के समतुल्‍य बताते हैं। यशपाल, नागार्जुन और एक हद तक रेणु को वे प्रेमचन्‍द की परंपरा को विकसित करने
का श्रेय देते हैं।
पुस्‍तक चूंकि संकलन है सो इसमें एक तरह का बिखराव है। कुछ लेख इसमें ऐसे भी हैं जिनका प्रेमचन्‍द से कोई संबंध नहीं है, उन्‍हें हम उनके समय से जुडे व्‍योरे के रूप में पढ सकते हैं। पुस्‍तक मे प्रेमचन्‍द को लेकर चली और चल रही कई बहसों पर नामवर सिंह के विचार हम पढ सकते हैं। पुस्‍तक के अंत में प्रेमचन्‍द और तोल्‍सतोय शीर्षक से एक टिप्‍पणी है जिसमें नामवर सिंह ने दोनों रचनाकारों के पारस्‍परिक संबंधों को समझने के ग्‍यारह सूत्र दिए हैं। गांधी जी की तरह प्रेमचन्‍द भी तोल्‍सतोय के प्रभाव में थे पर नामवर सिंह का निष्‍कर्ष है कि इसके बावजूद दोनों के विकास की दिशा एक दूसरे के विपरीत है। किसानों के पक्षधर तो दोनों थे पर तोल्‍सतोय के किसान चरित्रों में अंतर्विरोध ज्‍यादा हैं, दूसरी ओर तोल्‍सतोय के औसत किसानों के मुकाबले प्रेमचन्‍द के किसान अधिक निभ्रांत और लडाकू हैं।
एक आलेख में दलित साहित्‍य और प्रेमचन्‍द विषय पर भी विचार किया गया है। नामवर सिंह का स्‍पष्‍ट मत है कि प्रेमचन्‍द कोई दलित साहित्‍यकार नहीं थे। यह अलग बात है कि संभवत: वे पहले उपन्‍यासकार हैं हिन्‍दी के, जिनके उपन्‍यास का  नायक ‘सूरदास’ जाति का चर्मकार है। प्रेमचन्‍द की रचनाओं से गुजरने के बाद यह पता चलता है कि दलितों के मंदिर प्रवेश को वे दलित समस्‍या का समाधान नहीं मानते थे। वे उन्‍हें भी
किसान-मजदूर की तरह देखते थे और उनका आर्थिक और सामाजिक उत्‍थान चाहते थे। गांधी जी से अलग प्रेमचन्‍द का मत यह था कि जबतक जाति-पांति की व्‍यवस्‍था नहीं तोडी जाएगी तबतक दलितों को मुक्ति नहीं मिलेगी।
सांप्रदायिकता के सवाल पर प्रेमचन्‍द के मतों पर भी एक आलेख में विचार किया गया है। सांप्रदायिकता पर चोट करते प्रेमचन्‍द लिखते हैं कि वह हमेशा संस्‍कृति की दुहाई देती है। प्रेमचन्‍द कहते है कि आज संसार
में बस एक ही संस्‍कृति है आर्थिक संस्‍कृति। आर्य संस्‍कृति,ईरानी संस्‍कृति और अरब संस्‍कृति नाम की चीज तो है पर ईसाई,मुस्लिम या हिन्‍दू संस्‍कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
इस तरह प्रेमचन्‍द के तमाम विषय पर विचारों को जानने के लिहाज से पुस्‍तक अच्‍छी बन पडी है। इसमें प्रेमचन्‍द के आलोचकों की भी अच्‍छी खबर ली गयी है। प्रेमचन्‍द को सही संदर्भों में समझने में यह पुस्‍तक एक हद तक मददगार हो सकती है।
शुक्रवार में प्र‍काशित
 

बुधवार, 29 जून 2016

उमा – पिता की अदृश्‍य होती सत्‍ता

युवा उपन्‍यासकार उमा के ज्ञानपीठ से आए उपन्‍यास जन्‍नत जाविदां को गूगल देवता के प्रकोप के बाद के दौर के प्रतिनिधि लेखन के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। अंतरजाल में उलझते विश्‍व में हमारे संबंध किस तरह बदल रहे हैं कि मां बेटे के संवाद मित्र संवाद की तरह हो गए हैं, अत्‍याधुनिक। पर श्‍यामली और आर्य के मध्‍य के आधुनिक संवादों के बरकस हमारी दुनिया तो अभी भी वहीं है, सामाजिक स्‍तरों और तमाम खांचों में घूंघट के पीछे वह आज भी अपने देवता गढ रही है। पर मुक्ति की तलाश में पीडित स्‍त्री से देवता खिलानेवाली देवी के रूप में बदली तुलसी की मुक्ति कहां है। ऐसे बहुत से सवाल छोडता यह उपन्‍यास नयी पीढी के अंतरद्वंद्वों और सोच को उनकी कुंठाओं और नये विचारों के साथ सामने लाता है। करीब 200 पृष्टिों के छोटे आकार में यह उपन्‍यास समाज के जितने रंगों को उसके विभिन्‍न शेड्स के साथ उभारता है उसे उपन्‍यासकार की ताकत के रूप में देखा जा सकता है।
तलाकशुदा एकल मां श्‍यामली और उसके बेटे आर्य के जीवन संघर्ष को सामने रखती यह पुस्‍तक इसी संदर्भ में चर्चित उपन्‍यास ‘आपका बंटी’ की अगली कडी की तरह है। ‘आपका बंटी’ की आरंभ में चर्चा भी है उपन्‍यास में।पर श्‍यामली का आर्य ‘आपका बंटी’ नहीं है। एक पिता की कामना तो है उसमें पर वह उसके बंटी की तरह कमजोर नहीं बनाती, वह करूणा का पात्र नहीं है। क्‍योंकि श्‍यामली के धैर्य और विवेकने उसे आश्रित पुत्र की तरह नही एक सहयेागी मित्र की तरह विकसित किया है। पिता की कामना है आर्य को भी पर पिता को वह अपनी मां के मित्र के रूप में पाना चाहता है, उसके परमेश्‍वर के रूप में नहीं।
आर्य के लिए पिता कोई सत्‍ता नहीं है। वह स्‍कूल के अपने साथियेां के सवालों के जवाब के लिए पिता को खोजता है, कभी कभार पर वह उसके मानस के केन्‍द्र में नहीं है। वह पिता के रूप में मां के लिए नया साथी चाहता है और इस रूप में अपने लिए एक मित्र चाहता है।
नयी सभ्‍यता और विकास के नये दौर में पिता एक अदृश्‍य होती सत्‍ता की तरह है, इसका प्रमाण है आर्य का चरित्र। यह उपन्‍यास मातृसत्‍ता की वापसी का संकेत भी है। नयी सभ्‍यता की सहज परिणती भी है यह। इस सभ्‍यता में संतानें अब कामना की तरह नहीं रह गयी हैं। वे करियर और तमाम अन्‍य प्राथमिकताओं के बरक्‍स एक बाधा की तरह रह गयी हैं। और ऐसा घटित होने में पिता की भूमिका प्रमुखता से उभरती है। संतानों पर अपनी कामनाओं को तरजीह देना पिता के रूप्‍ में उसकी सत्‍ता से उसे बेदखल करता है।
चाहे आज पिता पिता नहीं रहा।पर संतानें तो हैं और उनके साथ उनकी माताएं हैं,मित्रवत माताएं। शासक पिता के मुकाबले मित्र माता के प्रति संतानों का खिंचाव सहज है और यह नयी सभ्‍यता को माता की नयी सत्‍ता सौंपता है। यह स्त्रियों को गुलाम बनाए रखने की हजारों सालों की उनकी कोशिशों का नतीजा है कि पिता के रूप में आज वे अदृश्‍य होने की परिणतियों की ओर बढ चुके हैं।
श्‍यामली सोचती है- ‘जिंदगी वाकई सडक की तरह ही तो है, जो चलती रहती है, कहीं पहुंचती नहीं। कोई मंजिल नहीं, मंजिल मिली तो सडक खत्‍म, जिंदगी खत्‍तम।‘ कल तक यह सोच पुरूषों की थी। विवाह स्त्रियों के लिए मंजिल की तरह था पर पुरूषों के लिए नहीं। आज स्त्रियां भी इसी तरह सोच पा रही हैं और मुक्‍त हो पा रही हैं।
यह मुक्ति उनकी भाषा में नये रंग भर रही है-हल्‍की दाढी, लम्‍बी–दुबली काया पर ढीला-ढाला कुर्ता और जींस , यह पूरी पैकेजिंग बताती है कि सुभाष का ताल्‍लुक कला की दुनिया से है। घर का हुलिया और खामोशी बयां करती है कि सुभाष के इस घर में खामोशियां गुनगुनाया करती हैं। अकेलेपन के इस मार्केट में मायूसी के ज्‍यादा शेयर्स सकून के पास हैं।‘ उपन्‍यासकार की यह शब्‍दावली अगर जीवन में बाजार के दखल को सामने लाती है तो साथ-साथ खामोशी, मायूसी और सकून को नये ढंग से परिभाषित भी करती है। पितृसत्‍ता की सतायी स्त्रियों के पास खोने को कुछ नहीं है। पित परमेश्‍वर से मुक्ति के बाद वे मायूस नहीं हैं। अकेलापन और खामोशी भी उसके लिए सुकून का वायस है, इसमें वे अपनी और अपने नये समाज की पुनर्रचना कर पा रही हैं।
उनके पास अपना अर्जित दर्शन है जो उनकी अपनी अदा के साथ बारहा प्रकट होता है। नौ साल का बेटा जब पूछता है कि – मम्‍मा जी ये आसमां नीला क्‍येां होता है तो श्‍यामली का जवाब होता है – ये पीला भी होता तो क्‍या तुम सवाल नहीं करते, इसे किसी न किसी रंग का तो होना ही होगा न। स्‍पष्‍ट है कि जो कुछ झेल कर आज की स्‍त्री बाहर आ रही है उसने रंगों के पारंपरिक मानी और अर्थों के प्रति उसमें एक विद्रोह भर दिया है जिसे वे अपनी तरह से हल करती हैं। जन्‍नत जाविदां की श्‍यामली विश्‍व की उस स्‍त्री का प्रतिनिधित्‍व करती है जिसने पुरूषों के बरक्‍स अपनी नयी दुनिया रची है। उसमें रंगों के वही अर्थ नहीं रहने हैं जो थे।
प्रेम में अक्‍सर लोग अपने साथी से कहते हैं कि मैं और तुम अलग हैं क्‍या। पर यह एकसा वाला दर्शन बस प्रेम में पुरूष ही बघारते हैं और प्रेम के अलावे इसका कहीं प्रयोग नहीं हेाता। जीवन के अन्‍य तमाम मसलों में यह छद्म एकसापन दूर तक साथ नहीं दे पाता। नये दौर की स्‍त्री अब इस भुलावे को भोली बनकर सह नहीं पा रही। उपन्‍यास में माही एक जगह कहती है – एक होते तो एक मुंह से खाते...। स्त्रियां आज समझ चुकी हैं कि अब ‘प्रेम फुरसती लोगों का सब्‍जेक्‍ट है। पीत्‍जा संस्‍कृति का हिस्‍सा है।...प्रेम पैसे बहुत दिलाता है।‘ हमारे आपके जीवन में प्रेम नहीं है तभी लोग ‘दो सौ रूपये खर्च कर उसे देखने’ मॉल-हॉल जाते हैं।‘
उपन्‍यास में श्‍यामली का बेटा आर्य का चरित्र अनोखा लगता है। आज के बच्‍चे कितना बदल चुके हैं। आर्य जब बोलता है तो लगता है जैसे बाप-बेटा एक साथ बोल रहे हों। एकल मां का यह बेटा पति के ना होने पर मां के दोस्‍त की भी भूमिका अदा करता दिख रहा है। श्‍यामली आर्य को चालू मोबाइल टोन के लिए डांट रही होती है, फोन आने पर, तो आर्य बोलता है – ‘मम्‍मा पहले कॉल अटेंड कर लो, फिर डांट लेना बच्‍चे को’।
उमा यह उपन्‍यास स्‍त्री विमर्श से आगे मनुष्‍यता के विमर्श को छूता सा लगता है। पुरूष लेखक जिस तरह अपनी कुंठाओं और टैबू को खुलकर अभिव्‍यक्‍त करते हें, उमा ने भी इस मामले में कोई हिचक नहीं दिखाई है। पढते हुए आदमी चौंकता है पर अगर पुरूष लेखन में उसे बहादुरी की तरह लिया जाता है तो यहां उसके कुछ और मानी क्‍येां निकाला जाना चाहिए। ‘हरामी होता है आदमी ... तब अपना हरामीपन जाग जाता है’।
परंपरिक उपन्‍यासकारों की तरह उमा ने भी उपन्‍यास में समाज सुधारके कुछ प्रसंग साथ-साथ चलाए हैं। इस दौर में यह लेखिका की समाज के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
उपन्‍यासों और कहानियों में कवितांश कोट करना लेखकों के यहां सहज होता है, वह पाठ को रोचक बनाता है। उमा ने भी कई अध्‍यायों की समाप्ति कवितांश से की है, पर वे पंक्तियां लेखिका की खुद की हैं और कहीं कहीं वो छूती भी हैं।
बेटे की यौन जिज्ञासाओं का जवाब देते जिस तरह श्‍यामली एड्स का डर दिखा उसे चुप कराने की कोशिश करती है उसे पारंपरिक पितृसत्‍तात्‍मक तरीके की कुंठाएं पैदा करने वाले भय पैदा करने की कोशिशों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
एड्स के उदाहरण के रूप में मां-बेटे जिस तरह फिल्‍मों का उदाहरण देते हैं एक दूसरे केा वह एक बडी सामाजिक समस्‍या की ओर ईशारा करता है। श्‍यामली सोचती है- -‘हर बात फिल्‍मों के जरिए ही क्‍येां समझानी पडती है, क्‍येां हमारे पास कोई और उदाहरण नहीं होते’। यह एक बडा सवाल है जो हमारे समाज के नकलीपन को दर्शाता है।
स्त्रियों के भीतर जो सुंदर दिखने की कंडिशनिंग होती है, उस पर भी विचार किया है लेखिका ने। सारे पार्लर यूं ही नहीं चलते, करोडों का क्रीम का कारोबार यूं ही नहीं है’। यह एक गंभीर सवाल है कि –सारे दुखों के बीच भी जैसे यह कितना जरूरी होता है कि आप भीड से अलग नजर आओ। सुंदर नजर आओ।

रविवार, 24 अप्रैल 2016

हृषिकेश सुलभ की कहानियां, विजयकांत और आंचलिकता

कुछ कहानियां सन्‍नाटे को भंग करती हैं पर हृषिकेश सुलभ की कहानियां सन्‍नाटे को चुपचाप ग्रस लेती हैं। इनमें जीवन के मद्धिम राग का जिस तरह प्रसार होता है वह संतोष देता है। सुलभ की कहानियों का बडा गुण यही है कि आलोचना इसकी बा‍बत बहुत कम बता सकती है। पढ कर ही इन्‍हे जाना जा सकता है।
इन कहानियों से गुजरना कुछ कुछ अपने आपको अपने समाज की अंतर्रचना के और दोनों के अंतरविरोध से उपजे परिवर्तनों को जानने और उससे आगे जाकर समझने की दृष्टि देता है। ये पुनर्रचना का उदाहरण हैं। जो एक कहानी पढने की खुशी से आगे जाकर कहानी बनने की प्रेरणा भी देती है।
ये कहानियां महानगरीय बोध से बाहर के जीवन में हो रहे परिवर्तनों की कहानी कहती हैं। स्‍त्री की प्रताडना हमारे समाज की विडंबनाओं में एक है। ‘कथावाचक की बेटी’ कहानी स्‍त्री की प्रताडनासे लेकर उसकी मुक्ति के संघर्ष तक की गाथा को बडे नाटकीय ढंग से प्रस्‍तुत करती है। इस कहानी का मूल उसकी भाषा है। भाषा को हटा देने पर कहानी में कुछ खोजना व्‍यर्थ होगा। यह कहानी ग्रामीण जीवन की कुरूपताओं को भाषा के स्‍तर पर सामने लाती है। वह एक ईमानदार कथावाचक की बेटी है। उसका बाप जिंदगी भर ईमानदारी से कथा बांचता है। बेटी ईमानदारी से कथा सुनती है और मुक्‍त होती है। पर उसका तोतारटंती समाज इससे प्रभावित नहीं होता। उसके लिए कथा उसकी उब मिटाने का एक साधन भर है। कहानी बतलाती है कि हमारे समाज में जो विभिन्‍न रीति-रिवाजों के फूल खिले थे, वे कब के मुरझा चुके हैं,अब कांटे ही शेष हैं। जिन्‍हें हम ढो रहे हैं।
जिंदगी भर फूलों की कथा सुनने वाली कथावाचक की बेटी जब ससुराल जाती है तो वहां भी फूल खोजती है पर उसका दामन कांटों से भर जाता है। वह पाती है कि वे फूल उसके तथाकथित सभ्‍य समाज के बाहर के असभ्‍य समाजों के जंगल में खिले रहे हैं। वह वहीं चली जाती है। पर क्‍या वह कथा के बाहर चली जाती है। नहीं, शायद यही कथा का विस्‍तार है, जीवन का विस्‍तार है।
भोजपुरी अंचल की भाषा सुलभ की कहानियों को अपने समय संदर्भों पर सहज पकड देती है। आज हिंदी में अधिकांशतया महानगरीय बोध की कहानियां लिखी जा रही हैं। ऐसे में सुलभ के यहां जैसे रेणु के बाद आंचलिकता अपनी सहज संप्रेषणीयता के साथ पहली बार सामने आती दिखती है।
यूं विजयकांत भी आंचलिकता से अपनी कहानियों को सशक्‍त बनाते हैं पर उनके यहां मिथिलांचल, जिस क्षेत्र की वे कहानियां हैं, की लोकभाषा पर उर्दू जैसे बेजा सवार मिलती है। इससे उन्‍हें एक शिल्‍पकाप की हैसियत तो मिलती है, एक गढाव और चुस्‍ती भी है इस अदाकारी में , पर वहां शैलियों का सामंजस्‍य गायब हो जाता है। वहां जीवन की द्वंद्वात्‍मक गति पर निर्णयात्‍मकता हावी सी हो जाती है। विजयकांत जहां शिल्‍प के स्‍तर पर दृढता का परिचय देते हैं, वहीं संप्रेषणीयता पैदा होता लगता है। उनके यहां यथार्थ कवच की तरह काम करता है। पर सुलभ सारा फैसला खुद ही नहीं कर लेते, वे पाठकों को भी निर्णय में भागीदार बनने का अवसर देते हैं। सुलभ के यहां एक उभरते चरित्र की जगह चरित्रों का समुच्‍चय है। एक पूरा टूटता व बनता हुआ समाज इन कहानियों के माध्‍यम आकार लेता दिखता है।
विजयकांत के यहां डायलाग्‍स की भरमार है, जिन्‍हे आप आसानी से कोट कर सकते हैं, उसका अभाव है सुलभ के यहां। आपको सुलभ की पूरी कहानी ही कोट करनी होगी। यह सुलभ के रचना और समाज के प्रति लगाव को दर्शाता है। सुलभ की अधिकांश कहानियां औपन्‍यासिक विस्‍तारों को खुद में समेटे चलती हैं।
सुलभ का अंचल रेणु के समय का अंचल नहीं है। उसमें नागरी संस्‍कृतिका हस्‍तक्षेप बढता जा रहा है। इस हस्‍तक्षेप के अंतर्द्वंद्व को ‘पांडे का बयान’ कहानी बयां करती है। इसमें तिरलोचन पंडित आखिर राजधानी में बसने का निर्णय लेते हैं। क्‍योंकि उनकी शर्तों पर गांव उन्‍हें जीने नहीं देता और जात ही गंवानी है तो राजधानी में गंवाएंगे।
पांडे का बयान पढकर अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह की एक कहानी याद आती है जिसमें दिल्‍ली में बसं पंडित जी की पार्टी में कोई नहीं आता तो घी के बने लड्डू वे सुबह को पडोसियों को भिजवाते हैं जिन्‍हें पडोसी बासी कहकर लौटा देते हैं।
वधस्‍थल से छलांग’ सुलभ की एक महत्‍वपूर्ण कहानी है जो मिडियाकरों की दुनिया में झांकने का प्रयास करती संपादक और पत्रकारेां के रिश्‍तों की पडताल करती है। क्‍या पत्रकारिता में संपादक हमेशा एक हस्‍तक्षेपकारी नीति के तहत ही बदला जाता है। ऐसे संपादक के नाटकीय क्रियाकलापों को उसकी पूरी रोचकता और संत्रास के साथ उकेरा है कथाकार ने, जिससे यह एक विडंबना की कथा बन जाती है। जिसमें कला और संस्‍कृति का बीट संभालने वाले को जब अपराध का बीट दे दिया जाता है तो क्‍या दिक्‍कतें आती हैं और ऐसा करना किस हद तक जायज है, जैसे सवाल उठते हैं।
क्‍या पत्रकारिता भी राजनीति की शक्‍ल लेती जा रही है, जिसमें कला के जानकार को वित्‍तमंत्री और वित्‍त को जानकार को खेलमंत्री बना दिया जाना एक सामान्‍य घटना है या इसका समाज की सापेक्षता में अपना कोई चेहरा भी है। इस महानगरीय बोध की कथा में भी सुलभ अपनी आंचलिक भाषा को परे नहीं ढकेलते। देखा जाए तो सुलभ की क‍हानियां अपनी संपूर्णता में समाज और व्‍यक्ति के द्वांद्वात्‍मक विकास को रेखांकित करती हैं।


शनिवार, 23 अप्रैल 2016

पंखुरी सिन्‍हा, चंदन पाण्‍डेय और कविता की कहानियां

जैसे विष्‍णु खरे की ताकत को समझने के लिए पाठक से एक सीमित खास तैयारी की उम्‍मीद की जाती है युवा रचनाकार पंखुरी सिन्‍हा की कहानियों का आस्‍वाद लेने के लिए भी कुछ वैसी ही तैयारी चाहिए। क्‍योंकि विवरण की बारीकियों से जिस तरह इन कहानियों की शुरूआत होती है वह शुरू में पाठकों को बोर करती सी लगती हैं पर अगर किनारे पर हाथ पांव मारने से आगे लहरों में धंसने का साहस पाठक करता है आगे गहराई में जाकर भी वह एक निश्चिंतता से तैरते हुए दूसरे किनारे तक आसानी से जा सकता है।
पंखुरी की कहानियां कला फिल्‍मों की तरह प्रभाव छोड़ती हैं,जिनमें क्रियाओं से ज्‍यादा सोचने को दिखाया जाता है। सोच के कई स्‍तर इनमें एक साथ दिखायी पड़ते हैं। कहीं विचार कहीं भाव कहीं इनका द्वंद्व अभिव्‍यक्‍त होता है जिनमें। और जैसे कला फिल्‍में लोकप्रिय फिल्‍मों के नायक आधारित मिथ को तोड़ने की कोशिश करती हैं ये कहानियां भी कथा के रूप या फार्मेट को तोड़ती हैं। कथा के पारंपरिक रूप को जो कहानी सबसे कम तोड़ती है वह  'समानान्‍तर रेखाओं का आकर्षण' है। यह एक लड़की के अपने से कम उम्र लड़के के प्रति आकर्षण की कहानी है। लड़की उसे एक बार प्राप्‍त कर लेती है पर अगली बार लड़क खुद को नियंत्रित कर लेता है। कहानी कई बातों को अपने ढंग से सामने ला पाती है। कहानी दिखाती है कि बाजार किस तरह प्रेम की कंडिशनिंग करता है कि प्रेम आकर्षण की परिभाषा से आगे नहीं बढ़ पाता। दूसरी बात कि बाजार और भूमंडलीकृत दुनिया में एक लड़की की स्थिति में परिवर्तन आया है और अब वह भी अपने प्रेम और आकर्षण को पुरूषों के मुकाबिल उतनी ही ताकत से सामने रख पाने की सामर्थ्‍य रखने लगी है।
पंखुरी की कई कहानियां भारतीय समाज के वैचारिक संकट को भी दिखलाती हैं। यह लेखिका का भी संकट है - कि वह निरूपाय ,अकेली है,संकट को वह देखती है,पहचानती है पर उससे दो-चार होने की ताकत वह अभी जुटा नहीं पायी है। 'शत्रु का चेहरा' कहानी में इसे देखा जा सकता है। संकट यही है कि शत्रु का कोई मुकम्‍मल चेहरा नहीं बनता और यही लेखिका की परेशानी का सबब है। शत्रु का चेहरा ना तलाश पाने की 'कड़वाहट' में कथा नायिका जलूस का साथ नहीं दे पाती और भाग खड़ी होती है। उसे अपने भागने का अहसास भी है -' ... वह भाग ही रही है। जाने कहां से भागकर कहां को जा रही है। जाने किससे भाग रही है।' दरअसल मंजिल हर बार साफ नहीं दिखती,वह सफर में होती है या उसके बाद ही मिलती है। इसलिए मंजिल ना दिखे तेा भागने की बजाय उस राह पर चलना ही सही होगा।पंखुड़ी की कहानियों में विद्रोह और विचार जहां तहां छोटे-छोटे विस्‍फोट के रूप में आते हैं। पर उनमें एक तारतम्‍य या निरंतरता ना होने से वो बदलाव की ताकत नहीं बना पाते और लेखिका को संघर्ष की राह से भागने को मजबूर होना पड़ता है। शत्रु की पहचान के लिए इन विद्रोही स्‍वरों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। दरअसल चेहरा तो है ही शत्रु का पर आंतरिक ताकत के अभाव में उसे सामने रखने की हिम्‍मत बटोरनी है लेखिका को।यूं देश और दुनिया के अंतरविरोधों को पूरी जटिलता के साथ जिस तरह ये कहानियां अभिव्‍यक्‍त करती हैं वैसा सामान्‍यत: कविता में होता है। इन्‍हें खोलने की कोशिश में जैसे पूरी दुनिया खुलती चली जाती है।
पंखुरी की कहानियों से गुजरने के बाद चन्‍दन पाण्‍डेय की कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास गहराता है कि हिन्‍दी कहानी धीरे-धीरे अपना चोला बदलती एक नये मुकाम की ओर अग्रसर है। पंखुड़ी के यहां अगर आकलन स्‍पष्‍ट है तो चंदन के यहां कल्‍पना भविष्‍य के आभासी यथार्थ को एक नयी जमीन मुहय्या कराती दिखती है। अपने समय और समाज के अंतरविरोधों को उसके क्रूर चेहरे के साथ सामने ला देने में चन्‍दन की कहानियां समर्थ हैं। इस मायने में वे अकेले से हैं अपनी युवा जमात में।
चन्‍दन की कहानी 'सिटी पब्लिक स्‍कूल, वाराणसी' को ही लें। यह किशोर जीवन पर इक्‍कीसवीं सदी की मार को जिस तरह बहुस्‍तरीयता में पकड़ती है वह विस्मित करता है। पूंजी का क्रूरतम चेहरा, बेचारा स्‍कूल टीचर आज माट साहब से भी ज्‍यादा दुर्गती को प्राप्‍त हो रहा है। और जन्‍म लेने से पहले ही प्रेम की सुकोमल भावनाओं पर आधुनिक पूंजी के दंश को कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।
कभी शमशेर ने भविष्‍य के होने वाले कवि के लिए के लिए कहा था कि उसे विज्ञान,कला,‍इतिहास और तमाम आधुनिक प्रविधियों की जानकारी होनी चाहिए। युवा कविता के अन्‍वेषियों में तो ज्ञान की वह ललक और उसका प्रयोग नहीं दिखता है पर चन्‍दन जैसे युवा कथाकरों को पढते हुए संतोष होता है कि अपनी तमाम अत्‍याधुनिक सूचनाओं का प्रयोग वे कुशलता से कर पा रहे हैं । पूंजी प्रसूत समकालीन क्रूरताओं का चेहरा दिखाने में चन्‍दन का सानी नहीं है । लीलाधर जगूड़ी की कविता मंदिर लेन और विष्‍णु खरे की कुछ कविताएं पहले यह काम सफलता से करती दिखती थीं, आज वही काम चन्‍दन की कहानियां करती दिखाई देती हैं। उनकी करीब करीब सारी कहानियां इसका उदाहरण हैं।
चंदन की कहानी 'रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' का आरंभ तो पंखुड़ी की कहानियों की तरह एक बारीक विवरणात्‍मकता से होता है पर आगे यह अपने समय के मारे गंवई प्रेमियेां की कथा में तब्‍दील हो जाती है। क्रूरता का चेहरा सर्वत्र एक सा है, क्‍या सिटी स्‍कूल और क्‍या गांव-पथार। चंदन की कहानी भूलना व्‍यवस्‍था के अत्‍याधुनिक चेहरे की कठोरता को उसकी गलघोंटू छवियों के साथ सामने लाती है। इसी तरह 'परिन्‍दगी है कि नाकामयाब है' ग्रामीण जीवन में जमीन जायदाद के प्रति लोगों के अंधमोह से उपजी दारूण स्थितियों को अपना विषय बनाती है। यह दिखलाती है कि धन कि लालसा कैसे एक स्‍त्री को भी पुरूषों की तरह एक क्रूरतम चेहरा प्रदान करती है। शिवपूजन सहाय ने 'देहाती दुनिया' में लिखा था कि गांव के लोग भोले तो क्‍या भाले जरूर होते हैं। तो ग्रामीणों के इस भालेपन की नोंक इस कहानी के हर पृष्‍ठ पर एक तीखा दबाव बनाती दिखती है।
नये युग में व्‍यक्ति और समाज के अंतरसंघर्षों को उदघाटित करती कविता की कहानियां चन्‍दन के मुकाबले ज्‍यादा सकारात्‍मक हैं। । 'उलटबांसी' कहानी में ही जिस तरह एक मां अंतत: शादी का निर्णय लेती है वह समाज की बदलती अंतरसंरचना की झलक दिखाता है। मां, बाप, पिता, पति आदि तमाम शब्‍द आज नये अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। इस कहानी में अपूर्वा सवाल खड़े करती पूछती है - 'नदियां बदलती हैं आपना रास्‍ता,फिर मां से ही अथाह धीरज की अपेक्षा क्‍यों .... मां पर्वत नहीं थी और पर्वत भी टूटता है छीजता है समय के साथ-साथ'।
यहां यह खयाल कितना वाजिब है कि आखिर क्‍यों प्रकृति के जड़ संबोधनों को जीवित करने में आदमी अपनी भावनाओं-विचारों की हत्‍या कर खुद को पत्‍थर में तब्‍दील कर दे। कथा में एक मां पहली बार निर्णय लेती है अपने जीवन में और चाहती है कि उसके बेटे उसका साथ दें। बेटे साथ नहीं देते पर समय साथ देता है। तभी तो मां के पत्‍थर होते जेहन में इस तरह का विचार पहली बार वजूद में आता है । और चारों ओर के पथरीले आवरण को तोड़ अपनी जगह बनाता है। आखिर ये विचार भी तो मां की संतानें हैं अन्‍य भावनाओं की तरह। हिन्‍दी कविता में युवा कवि पवन करण की पहचान ही इस तरह के आधुनिक सवालों को स्‍त्री के संदर्भ में उठाने के चलते बनी है। कविता की कहानियां उसी बात को शिद्दत से रेखांकित कर पाती है।
कविता की कहानियां प्रेम और उससे पैदा उहापोह की कहानियां हैं। प्रेम को लेकर जो विचार प्रेमीजनों के दिलो-दिमाग को मथते रहते हैं उनका एक दर्शन प्रस्‍तुत करती हैं कहानियां। जैसे कि - प्‍यार सच्‍चा हो तो बड़ी से बड़ी बात छोटी लगती है , या प्रेम वह है जिसकी खातिर आदमी खुद को आमूल-चूल बदल डाले। कहानी लौटते हुए  हेा या आशिया-ना सबका मुख्‍य बिंदु प्रेम की उहापोह ही है। 'आशिया-ना' प्रेम में बिना विवाह किए सहजीवन में रहने से नये जोड़ों के सामने आई समस्‍याओं को लेकर बुनी गयी कहानी है। कि सहजीवन की परेशानियां प्रेमियों को दर-बदर करती हैं पर आशा है कि दूर के तारे की तरह टिमटिमाती रहती है।
 पंखुरी सिन्‍हा के यहां जीवन जगत का आकलन है तो कविता के यहां प्रेमियों के मनोजगत की छानबीन। यथार्थ भी जहां तहां पांव पसारता है पर एक उधेड़बुन चलती रहती है। कविता की कहानियां प्रेम पर एक जिरह छेड़ती हैं , एक अनंत जिरह। 'जिरह:एक प्रेमकथा' का एक पात्र जिरह करता कहता है - दरअसल कहानी और जिन्‍दगी दो अलग-अलग चीजें हैं, दो अलग-अलग धरातल हैं । मैं चाहता हूं कि उनके बीच का यह फेंस टूटे। शायद कविता आगे अपनी कहानियों में यह फेंस तोड़ सकें।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

संदीप मील की कहानियां - कुछ नोट्स

 1.
अच्‍छी कविता वह है जिसे फिर से पढने को कहा जाए और अच्‍छी कहानी वह जिसे पढकर पाठक दूसरे से कहे कि यार आज एक कहानी सुनाता हूं। कहानी किसकी। एक मुल्‍क में जमीं अमर जड परंपराओं की, अंधी आस्‍था की, राजस्‍थानी लोक की, संदीप मील की।

संदीप की कहानियां एक खिलंदडापन लिए होती हैं, किस्‍सागोई की शैली में। उनकी एक छोटी सी कहानी है- 'एक शर्त'। उसे पढते लगा कि लोग करोड़पति बनते नहीं हैं बल्कि खुद कंगाल बनने की शर्त पर दूसरों को करोडपति बनाते हैं। कि करोडपति बनने के सपने से ज्‍यादा मूर्खता भरा सपना कोई और हो ही नहीं सकता। इसीलिए व्‍यवस्‍था करोडों लोगों को करोडपति बनाने के स्‍वप्‍न दिखाती है। कि उनके सपनों की फसल काटकर कुछेक करोडपति बन सकें। ‘ एक का तीन ’ कहानी भी बताती है कि कैसे तमाम लोगों में बैठी पूंजी बढाने की लालसा का फायदा उठाकर देशभर में कुकुरमुत्‍तों की तरह बाबा लोग पैदा हो रहे हैं, कुछ पकडे भी जा रहे। इस कहानी के आरंभ में कहानीकार लिखता भी है – 'आज हर काम में लालच की एक भयानक परत जमी है जिससे हरदम बेइमानी की बू आती है।'

हालांकि यह लिखने की जरूरत नहीं थी क्‍योंकि कहानी इस बात को सफलतापूर्वक सिद्ध करती है। कहानी में एक पंक्ति है – 'तब बाबा जी ने पूंजीको धर्म में ही निवेश करने की बात सोची क्‍योंकि इसका सूचकांक गिरता नहीं।‘ यह भारतीय लोकजीवन का सार्वजनिक तथ्‍या है। धर्मांध लोक ही तमाम बाबाओं की शरणस्‍थली है।

लोक को आधार बनाकर लिखी कहानियों की विशेषता होती है उनका मुहावरा और व तंज का अनोखा स्‍थानीय ढंग। संदीप की छोटी कहानियां भी अपने संवादों के माध्‍यम से जिस तरह वर्तमान समय की विडंबनाओं को परिभाषित करती चलती हैं, वह ध्‍यान खींचता है। ‘ कितने माणसे ‘ कहानी में धनु बोलता है – 'देख बेटा, राजनीति कसाई का बकरा है जिसे एक दिन कटना ही पडता है। मगर जबतक न कटे तब तक राज रस सबसे प्‍यारा रस होता है। जितना निचोडो उतना ही मीट्ठा होता जाता है।‘ यहां राजनीति की क्षणभंगुरता और उसके बावजूद उसके प्रति अंधप्रेम को जिस भाषा में कहानीकार कह रहा है वह उसकी ताकत को दर्शाता है। हालांकि कहानी की थीम वही है जो टैगोर के प्रसिद्ध उपन्‍यास गोरा की है। पर लोक भाषा में उसके जो रंग उभरते हैं वो कहानीकार की अपनी खूबी है।

कहानीकार की मानव मनोविज्ञान की समझ भी अच्‍छी है। 'लुका पहलवान', 'मन्‍नत', 'झूठी कहानी' आदि ऐसी कहानियां हैं जो मानव मन के कई पहलुओं को उजागर करती हैं। सचमुच के संसार के मुकाबिल आज एक साइबर संसार भी कायम होता जा रहा है। मन्‍नत इन दोनों संसारों की टकराहट की भी कहानी है। जो दिखलाती है कि किस तरह सचमुच के संसार से टकरा कर सायबर संसार ढेर हो जाता है।

इन कहानियों में कहानिकार का खिलंदड़ापन जिस तरह सामने आता है वह उसकी ताकत है, अगर वह उसका बेजा इस्‍तेमाल ना करे। कुछ कहानियों में इस खिलंदडेपन का इस्‍तेमाल जिस तरह झटके से करता हुआ कहानीकार कहानी खत्‍म करता है, उसे लेकर थोडी चिंता होती है। खेल तो ठीक है पर खेल के अंत तक खेल भावना का निर्वाह भी जरूरी है। मंजे कहानीकार की तरह पेश आने की कहानीकार की जल्‍दबाजी को थोड़े धैर्य की जरूरत है।



2.

संदीप के दूसरे कहानी संकलन 'कोकिला शास्‍त्र' की शीर्षक कहानी 'कोकिला शास्‍त्र' को पढते हुए लगा कि जैसे संदीप हिंदी में अपने तरह के एक अलग ही जादुई यथार्थवाद की रचना करने वाले कहानीकार हैं। संदीप की कहानियों का तो मैं पहले संग्रह से ही मुरीद हो गया था पर नये संग्रह की इस पहली अपेक्षाकृत लंबी कहानी को पढते हुए मेरे लिए उनका आकर्षण और बढ गया। जादू तो संदीप की कहानियों का स्‍वभाव है। जो पाठकों के सर चढ बोलता है। पर संदीप का जादू ठोस को हवा करने वाला जादू नहीं है बल्कि इसके उलट उनका जादू हवा होते जीवट को लेकर यथार्थ में अनंत आशा की रचना करता है। उनके जादू की परतों पर परतें जैसे जैसे खुलती जाती हैं। उसकी हर परत से जैसे एक नया आशाओं से पूर्ण यथार्थ जाहिर होता जाता है।

'वारेन हेस्टिंग्‍स का सांड' जैसी कहानी में अगर उदय प्रकाश का जादुई यथार्थवाद इतिहास की परतें खोलता है तो संदीप का जादुई यथार्थवाद कहानी 'कोकिलाशास्‍त्र' की परतों में भविष्‍य के दर्शन कराता है। स्‍पष्‍ट है कि यह भविष्‍य स्त्रियों के जीवट, उनकी आजादी की ईच्‍छा और कोशिशों में ही छुपा है जिसे यह कहानी अंत में जाहिर करती है।

कोकिलाशास्‍त्र का समर्पण और प्रस्‍तावना जैसा जो कुछ लिखा है संदीप ने उसमें भी स्‍त्री को लेकर पारंपरिक नजरिये पर चोट की गयी है। समर्पण में मां को याद करता कथाकार कहता है कि ' मां को किताब समर्पण का मर्दों वाला अर्थ समझ में नहीं आता' क्‍योंकि वहां 'समर्पण के नाम पर सदियों की' गुलामी दी जाती है।

अपनी प्रस्‍तावना का शीर्षक भी संदीप ने 'बेडि़यां चबाती औरतें' दिया है। इसमें वे लिखते हैं - ' ...औरतें एक साथ बेडि़यां चबा रही हैं।' ...क्‍या आपको भी ये आवाजें सुनाई दे रही हैं'। हालांकि प्रस्‍तावना में भावुकता हावी होती दिखती है और अंत में कथाकार पुरूषार्थियों सा एकतरफा फैसलाकुन अंदाज अपनाता दिखता है, पर उसकी पीड़ा स्‍पष्‍ट है जिसे कोकिलाशास्‍त्र और अन्‍य कहानियां साफ जाहिर करती हैं।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

एकांत श्रीवास्तव -अध्यात्म का पुट

बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों का असर अब हिंदी कविता पर पड़ता दिखाई देने लगा है। तभी तो एकांत श्रीवास्तव जैसे युवा कवि यात्रा का महूरत देखने लगे हैं। अपने तीसरे संग्रह ‘बीज से फूल तक’ की कविता ‘सगुन’ में वे लिखते है-
मल्लाहों ने पतवार उठा लिए हैं खोल दी हैं घाट पर बंधी नावें किस समुद्र में डूबी पड़ी हैं हमारी नावें कि यात्रा का यह बिल्कुल ठीक सगुन है। 
कवि यहाँ चाहता तो ‘सगुन’ की जगह ‘समय’ का भी प्रयोग कर सकता था। देव, ईश्वर, प्रार्थना, स्वर्ग, पाताल, प्रलय आदि शब्दों का जिन संदर्भों में एकांत प्रयोग करते हैं, वह उनकी राजनीतिक दृष्टि की बाबत साफ-साफ कहता है। ‘सत्य की खोज की कथा’ शीर्षक कविता में वे पाते हैं कि सत्य का राहुल, यशोधरा और बुद्ध से कोई नाता नहीं है। बल्कि वह तो हमारे आसपास ही था जिसे हम पहचान ना पाने के चलते बचते फिर रहे थे। देखा जाए तो राजनीति के क्षेत्र में परंपरा और सत्य के अन्वेषियों ने ‘हस्तिनापुर’ पर कब्जा प्राप्त कर लिया है पर साहित्य में अभी ऐसा हो नहीं पाया है पर एकांत इस मामले में आश्वस्त हैं और अपनी कविताओं को विजयी होने की शुभकामनाएँ देते हैं। वे चाहते हैं कि ये कविताएँ ‘पांडवों की तरह छिने हुए हस्तिनापुर को’ पुनः प्राप्त करें। 
प्रकृति के जीवंत दृश्य एकांत की कविताओं में प्रभावी ढंग से आते रहे हैं, यहां वे अपनी ताकत के साथ मौजूद दिखते हैं। ‘जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इस माने में ख़ूबसूरत हैं- बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है चांद उसी का है जो उस तक पहुँचता है..।
एकांत के पास कुछ मार्मिक कविताएं हैं- ख़ून के तालाब में डूब कर तड़पते हुए उसने इच्छा की होगी कि उसका सिर मां की गोद में हो...।
एक लंबी कविता ‘कन्हार’ में कवि अपनी स्मृतियों के सहारे लोक जीवन के संकटों को चिह्नित करता है और उनके छीजते जाने को लेकर दुख व्यक्त करता है। शहरीकरण और बाज़ारवाद के विषमतामूलक प्रभावों के प्रति कवि काफी संवेदनशील है। वह चिन्तित है कि चीज़ों की कीमतें जहाँ आकाश छू रही हैं, वहीं आदमी का बाजार भाव गिरता जा रहा है। 

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

उपेेन्द्र चौहान - आततायियों के तर्क

हाल की कविताओं में उपेन्द्र चौहान ने देश-दुनिया के अंतिम आदमी को अपनी कविता के केन्द्र में रखा है, आदिवासी, मजदूर उनके नायक हैं। पर ये वे मजदूर नहीं हैं जो प्रतिरोध की किसी राजनीतिक परंपरा से जुडे हों, ये वे हैं जो सबसे निचले पायदान पर पिस रहे हैं जिनकी जरूरतों को कोई उनकी जमीन पर जाकर समझने को तैयार नहीं है, हिन्दी के कवि भी आदमी की इस जमात से अनभिज्ञ हैं। उपेन्द्र की इन कविताओं में सामन्यतया नायक नहीं हैं, और उन्हें राह दिखानेवाला भी कोई नहीं है। दश्‍ारथ माझी इसके अपवाद हैं जो उपेन्द्र के इकलौते नायक हैं। पहाड काटकर रास्ता निकालने वाले बिहार गया के दशरथ मांझी दुनिया में मानव श्रम और जीने की इच्छा की अकेली मिसाल हैं। ‘दशरथ मांझी’ कविता में उपेन्द्र लिखते हैं - दुनिया की सारी प्रेम-कथाएँ बासी पड़ चुकी हैं।
दशरथ की पत्नी को पहाड के बीच का दर्रा पार करते चोट लगी थी उसी से प्ररित हो दशरथ पहाड काटने के काम में लग गए थे। पत्नी इस बीच चल बसीं पर दशरथ का पहाड काट कर रास्ता बनाने का जज्बा खत्म नहीं हुआ। दशरथ की प्रेमकथा बासी इसलिए नहीं पडी क्योंकि वह प्रेम के साथ श्रम और अटूट धैर्य की भी कथा है। हालांकि हिन्दी के चर्चित कवि अरूण कमल दशरथ मांझी को नायक नहीं मानते उनके अनुसार - ‘दशरथ मांझी का श्रम एक व्यक्ति का था,समूह का नहीं ,इसलिये वह नायक नहीं थे’। क्या अरूण कमल बताएंगे कि किसी भी व्यक्ति, चाहे वो कैसा भी नायक हो उसका श्रम एक समूह का श्रम कैसे हो सकता है .. ।
उपेन्द्र की इन कविताओं में दुनिया भर के आदिम समाजों में जारी सकारात्मक और नकारात्मक तौर-तरीकों को जगह दी गयी है। जैसे एक कविता है बिठलाहा जिसमें संथाली समाज में बलात्कारी को दी जाने वाली सजा का विवरण आता है कि किस तरह से बलात्कारी के घर को संथाली समाज के लोग खत्म कर देते हैं और उसके परिजनों को गांव-समाज से बाहर कर देते हैं, बलात्कारी तो जान बचाकर पहले भाग ही चुका होता है, संथाल समाज के बालत्कारियों को दंडित करने के तौर-तरीकों से चाहे तो हमारा तथाकथित आधुनिक समाज सीख सकता है -
क्या तूने कहीं सुना है
देखा है... ऐसा कोई समाज
जो इस तरह हो खड़ा
दुराचार के खि़लाफ़!
चीन , कनाडा, इंडोनेशिया आदि के आदिवासी समाजों में प्रचलित कुप्रथाओं को भी अपनी कई कविताओं में अभिव्यक्त किया है उपेन्द्र ने। भारत में आज भी जहां-तहां से नर बलि की बीभत्स घटनाओं की खबर आती है जबतब। डायन कहकर भोली-भाली औरतों को आज भी झारखंड और बिहार में ओझा-गुणी अपना शिकार बना रहे हैं। अशिक्षा और कुंठाओं से उपजी इस तरह की क्रूरता के कई प्रसंग हैं यहां जो हमें विचलित करते हैं-
क्वाँरी लड़की का माँस उबालकर खाने से
कोई आदमी उड़ नहीं सकता
क्या तुम्हारा अपरिपक्व मस्तिष्क
इतना समझ नहीं सका
या

सैंडी कोई अलग से शैतान का अस्तित्व नहीं होता
आदमी ही किंवा शैतान हो जाता है

या

क्या सचमुच बलि से देवता हो जाते हैं ख़ुश
तब ऐसा क्यों नहीं करते
उस देवता की ही बलि दे देते
ताकि वह देवता हो जाए और ख़ुश!
या
युवतियों को ख़रीदकर फिर उनकी गर्दन दबाने में
तुम्हें कितना वक़्त लगता है जेंग डांगेपन
0 0 0
पुलिस बाबू,
हम तो केवल माँग की पूर्ति करते हैं-
लोग तो बस ख़ूबसूरत और जवान दुल्हनें चाहते हैं
कोई लड़की कैसे मरी या मारी गई
इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं, बाबू!
आख़िर किसी लड़की को
एक-न-एक दिन मरना तो है ही...!

अमानवीयता के कैस-कैसे तर्क हो सकते हैं आततायी समाज के यह इन कविताओं से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। आततायियों के ऐसे तर्क केवल आदिम समाजों में ही नहीं मिलते आधुनिक समाजों में भी ये उसी तरह फल-फूल रहे हैं, गुजरात में हुए दंगों के पीछे के आततायियों के तर्क को हम इन सबसे अलग कैसे कर सकते हैं पर वहां के रहनुमा हैं कि  गुजरात की आधुनिकता और विकास के दावे करते नहीं थकते। देखा जाए तो यह आततायीपन दुनिया भर में नकाब के पीछे आज भी जीवित है, उसका चोला भले अलग हो पर हर जगह उसकी अमानवीयता एक सी है, उसके शिकार एक से हैं। उनका कालाजादू आज भी वैसा ही चल रहा है, आज भी आसराम बापू जैसे के आश्रम में इस कालाजादू के शिकार बच्चों की लाशें मिलती हैं। उपेन्द्र भी इससे अवगत हैं -
इवे कबीले की कुमारी
दात्सोमोर अकू
तुम
केवल घाना के बोल्टा क्षेत्र में ही नहीं हो

मैंने तुम्हें जहाँ भी ढूँढ़ा-वहीं पाया
अफ्रीका में
लैटिन अमरीका में
एशिया और यूरोप में।
इन कविताओं में उपेन्द्र ने पीडा के और भी कई प्रसंग उठाए है, क्लाड इथरली से लेकर रत्नाबाई काणेगांवकर तक, वे पाठकों को व्यथित करते हैं। आहत मनुजता के यह तमाम प्रसंग हमें सोचने को विवश करते हैं कि क्या इक्कीसवीं सदी सचमुच विज्ञान या विकास की सदी है या मध्ययुगीन कालिमा  अपनी काली उंगली उठाए हमारे भाल को आज भी कलंकित कर रही है। क्योंकि इस आधुनिक और विकासोन्मुख सदी में भी सडक पर एक प्रसवपीडिता हमारे रहनुमाओं के काफिले के गुजरने के इंतजार में अपने अजन्मे बच्चे के साथ काल-कवलित हो जा रही है। उपेन्‍द्र की एक लंबी कविता कार्यकर्त्ता  है जिसमें कवि ने राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के दुख को जबान दी है। कार्यकर्त्ताओं पर हिन्दी में संभवतया यह पहली कविता है जो उनके पक्ष को सामने रखने की कोशिश करती है। उपेन्द्र कवि के साथ खुद एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी रहे हैं और इस कविता को उनका निज के साथ साक्षात्कार माना जा सकता है-
हर जगह लड़ रहे हैं कार्यकर्त्ता!
मर रहे हैं कार्यकर्त्ता!
उनके ख़ून से अभी तक माटी में है ललाई
नेता बन रहे ख़ून सोख्ता!
इस ढ़लती उम्र में अभी तक
जो रह गये हैं केवल कार्यकर्त्ता
उन्हीं के संघर्ष से कहीं पक रहा है लोहा
और बन रहे हैं औज़ार
और हो रही तैयारी- किसी युद्ध की!

रविवार, 31 जनवरी 2016

राजीव पांडे - यथार्थ तक जाने की पहलकदमी

पहाड़ों पर घूमते हुए/मैं अक्सर सोचता हूं/जीवन की खुशीका इजहार करते हुए/घाटी के इन सुंदर फूलों को तोड़ लूं/बिखेर दूं बीज उनके/शहर के हर घर की/छोटी सी फुलवारी में/जहां/इन्सानियत की पौध/उगने का नाम ही नहीं लेती।
राजीव पांडे की उपरोक्त पंक्तियां बतलाती हैं कि कवि किस कदर बेचैन है। इन्सानियत की पौध को विकसित करने के लिए। राजीव हृदय रोग चिकित्सक हैं और उनकी कविताएं प्रमाणित करती हैं कि वे साहित्यिक अर्थों में भी विशाल हृदय रखते हैं। वे सीधे जीवन के यथार्थ तक जाने की पहलकदमी करते हैं और उनके निष्कर्ष पाठकों को विचलित करने वाले हैं। 
कुछ अपवादों को छोड़कर/ऐसा लगता रहा है/भूख ने भूख को ही डसा है। पारिवारिक आत्मीयजनों को लेकर भी कुछ कविताएं हैं, संग्रह में। भाई को लेकर इधर एकांत श्रीवास्तव बोधिसत्व ने मार्मिक कविताएं लिखी हैं। राजीव की एक कविता जब बड़े भैया को नौकरी मिलेगीभी भारतीय निम्न मध्यम वर्ग की त्रासदियों को सामने लाती हैं-छनकर आती लालटेन की रोशनी/जिस दिन तेज हो जाए/समझ भैया को नौकरी मिल गई । यहां यथार्थ तक जाने की और उसे रेखांकित करने की जद्दोजहद तो दिखती है, पर अक्सर वह सपाट या कठोर यथार्थ के रूप में सामने आती है। अगर कवि यथार्थ को उसकी द्वंद्वात्मकता में पकड़ने की कोशिश करे तो आगे और आशा की जा सकती है। धूमिल भी उतरप्रदेश से थे। धूमिल का प्रभाव कहीं-कहीं कौंध की तरह दिखता है कवि में। एक जगह
इसे कवि ने स्वीकारा भी है।आम आदमीको लेकर इधर कई तरह की टिप्पणियां सामने आ रही हैं, कवि की टिप्पणी भी ध्यान खींचती है। 
 आम आदमी की कविता/किसी भड़वे के नपे-तुले कदमों के पीछे/रंडी के कोठे तक पहुंचे हुए/एक भद्र पुरुष का ठिठका हुआ कदम भर है-आम आदमी को लेकर ऐसी टिप्पणियां अंततः फिकरेबाजी में बदलकर रह जाती हैं। धूमिल के यहां भी यह गड़बड़ी है। जीभ और जांघ के भूगोल से कविता में बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता, सिवा क्षणिक उत्तेजना पैदा करने के। यूं सच के साक्षात्कार से कवि भाग नहीं रहा है, यह महत्वपूर्ण है सच है/सुलगती हुई लकड़ियों के बीच/चांदी के बिछुओं और सोने की बाली की तलाश।

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

विनय विश्वास - बढ़ते अंधेरे की पहचान

मध्यवर्गीय जीवन में बढ़ते अंधेरे की सही पहचान है विनय को। एक जिल्लत में बदलती जाती रोजमर्रा की जिंदगी की घुटन व त्रास को वो शिद्दत से अभिव्यक्त कर पाते हैं-
अंधेरे इतने फैल गए घरों में कि जगह नहीं बची रोशनदानों को/चोरियों ने बंद कर दिए/रोशनी और हवा के रास्ते/हम भूल गए कि दम घुटना कहते किसे हैं...
दरअसल विनय में एक वाजिब जिंदगी जीने की तड़प है और जीने के अवसरों की लगातार कटौती से वह बुरी तरह परेशान हैं। वह देख रहे हैं कि किस तरह हवा-पानी-धूप का मिलना मुहाल होता जा रहा है और अंधी करने वाली एक चौंध चहुंओर फैलती जा रही है, जो उन्हें लाजवाब करती जा रही है। हालांकि खुद मिटकर भी रोशनी पैदा करने का कवि का जज्बा मरा नहीं है: 
हमें मारकर भी/डर भर गया/अंधेरों की हाड़-हाड़ में/मिटे भी ऐसे कि दूर तक उगते चले गए/उजाड़ में।
नया कवि अपने लिए नई जमीन तोड़ता है तब ही उसे जुदा पहचान मिलती है। ऐसी नई अनुगूंजें विनय की कविताओं में भी हैं। आविष्कार, मेहनत, कुसूर, देहाती आदि ऐसी ही कविताएं हैं।
विनय की बहुत-सी कविताएं सपाटबयानी-सी हैं, वे कहीं-कहीं स्थितियों की व्याख्या करती लगती हैं और कहीं एक्सपर्ट कमेंट कर रह जाती हैं। भूतपूर्व’, ‘अन्नदाता’, ‘धन्य’, ‘कार्रवाईआदि कविताओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
दुख-दर्द-पीड़ा को हथियार बना लेना भी कवि को आता है , विनय ऐसा सफलतापूर्वक कर पाते हैं, दर्द को दवा बन जाने की हद तक जज्ब करना यह सीख रहे हैं। विनय में जीवन के कई रंग हैं, प्रकृति को व जीवन की जमीनी सच्चाईयों को बचाने व उनके लिए जूझने का साहस व विवेक भी उनके पास है, हिंदी कविता उनसे आशा कर सकती है।