कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

रविवार, 24 अप्रैल 2016

हृषिकेश सुलभ की कहानियां, विजयकांत और आंचलिकता

कुछ कहानियां सन्‍नाटे को भंग करती हैं पर हृषिकेश सुलभ की कहानियां सन्‍नाटे को चुपचाप ग्रस लेती हैं। इनमें जीवन के मद्धिम राग का जिस तरह प्रसार होता है वह संतोष देता है। सुलभ की कहानियों का बडा गुण यही है कि आलोचना इसकी बा‍बत बहुत कम बता सकती है। पढ कर ही इन्‍हे जाना जा सकता है।
इन कहानियों से गुजरना कुछ कुछ अपने आपको अपने समाज की अंतर्रचना के और दोनों के अंतरविरोध से उपजे परिवर्तनों को जानने और उससे आगे जाकर समझने की दृष्टि देता है। ये पुनर्रचना का उदाहरण हैं। जो एक कहानी पढने की खुशी से आगे जाकर कहानी बनने की प्रेरणा भी देती है।
ये कहानियां महानगरीय बोध से बाहर के जीवन में हो रहे परिवर्तनों की कहानी कहती हैं। स्‍त्री की प्रताडना हमारे समाज की विडंबनाओं में एक है। ‘कथावाचक की बेटी’ कहानी स्‍त्री की प्रताडनासे लेकर उसकी मुक्ति के संघर्ष तक की गाथा को बडे नाटकीय ढंग से प्रस्‍तुत करती है। इस कहानी का मूल उसकी भाषा है। भाषा को हटा देने पर कहानी में कुछ खोजना व्‍यर्थ होगा। यह कहानी ग्रामीण जीवन की कुरूपताओं को भाषा के स्‍तर पर सामने लाती है। वह एक ईमानदार कथावाचक की बेटी है। उसका बाप जिंदगी भर ईमानदारी से कथा बांचता है। बेटी ईमानदारी से कथा सुनती है और मुक्‍त होती है। पर उसका तोतारटंती समाज इससे प्रभावित नहीं होता। उसके लिए कथा उसकी उब मिटाने का एक साधन भर है। कहानी बतलाती है कि हमारे समाज में जो विभिन्‍न रीति-रिवाजों के फूल खिले थे, वे कब के मुरझा चुके हैं,अब कांटे ही शेष हैं। जिन्‍हें हम ढो रहे हैं।
जिंदगी भर फूलों की कथा सुनने वाली कथावाचक की बेटी जब ससुराल जाती है तो वहां भी फूल खोजती है पर उसका दामन कांटों से भर जाता है। वह पाती है कि वे फूल उसके तथाकथित सभ्‍य समाज के बाहर के असभ्‍य समाजों के जंगल में खिले रहे हैं। वह वहीं चली जाती है। पर क्‍या वह कथा के बाहर चली जाती है। नहीं, शायद यही कथा का विस्‍तार है, जीवन का विस्‍तार है।
भोजपुरी अंचल की भाषा सुलभ की कहानियों को अपने समय संदर्भों पर सहज पकड देती है। आज हिंदी में अधिकांशतया महानगरीय बोध की कहानियां लिखी जा रही हैं। ऐसे में सुलभ के यहां जैसे रेणु के बाद आंचलिकता अपनी सहज संप्रेषणीयता के साथ पहली बार सामने आती दिखती है।
यूं विजयकांत भी आंचलिकता से अपनी कहानियों को सशक्‍त बनाते हैं पर उनके यहां मिथिलांचल, जिस क्षेत्र की वे कहानियां हैं, की लोकभाषा पर उर्दू जैसे बेजा सवार मिलती है। इससे उन्‍हें एक शिल्‍पकाप की हैसियत तो मिलती है, एक गढाव और चुस्‍ती भी है इस अदाकारी में , पर वहां शैलियों का सामंजस्‍य गायब हो जाता है। वहां जीवन की द्वंद्वात्‍मक गति पर निर्णयात्‍मकता हावी सी हो जाती है। विजयकांत जहां शिल्‍प के स्‍तर पर दृढता का परिचय देते हैं, वहीं संप्रेषणीयता पैदा होता लगता है। उनके यहां यथार्थ कवच की तरह काम करता है। पर सुलभ सारा फैसला खुद ही नहीं कर लेते, वे पाठकों को भी निर्णय में भागीदार बनने का अवसर देते हैं। सुलभ के यहां एक उभरते चरित्र की जगह चरित्रों का समुच्‍चय है। एक पूरा टूटता व बनता हुआ समाज इन कहानियों के माध्‍यम आकार लेता दिखता है।
विजयकांत के यहां डायलाग्‍स की भरमार है, जिन्‍हे आप आसानी से कोट कर सकते हैं, उसका अभाव है सुलभ के यहां। आपको सुलभ की पूरी कहानी ही कोट करनी होगी। यह सुलभ के रचना और समाज के प्रति लगाव को दर्शाता है। सुलभ की अधिकांश कहानियां औपन्‍यासिक विस्‍तारों को खुद में समेटे चलती हैं।
सुलभ का अंचल रेणु के समय का अंचल नहीं है। उसमें नागरी संस्‍कृतिका हस्‍तक्षेप बढता जा रहा है। इस हस्‍तक्षेप के अंतर्द्वंद्व को ‘पांडे का बयान’ कहानी बयां करती है। इसमें तिरलोचन पंडित आखिर राजधानी में बसने का निर्णय लेते हैं। क्‍योंकि उनकी शर्तों पर गांव उन्‍हें जीने नहीं देता और जात ही गंवानी है तो राजधानी में गंवाएंगे।
पांडे का बयान पढकर अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह की एक कहानी याद आती है जिसमें दिल्‍ली में बसं पंडित जी की पार्टी में कोई नहीं आता तो घी के बने लड्डू वे सुबह को पडोसियों को भिजवाते हैं जिन्‍हें पडोसी बासी कहकर लौटा देते हैं।
वधस्‍थल से छलांग’ सुलभ की एक महत्‍वपूर्ण कहानी है जो मिडियाकरों की दुनिया में झांकने का प्रयास करती संपादक और पत्रकारेां के रिश्‍तों की पडताल करती है। क्‍या पत्रकारिता में संपादक हमेशा एक हस्‍तक्षेपकारी नीति के तहत ही बदला जाता है। ऐसे संपादक के नाटकीय क्रियाकलापों को उसकी पूरी रोचकता और संत्रास के साथ उकेरा है कथाकार ने, जिससे यह एक विडंबना की कथा बन जाती है। जिसमें कला और संस्‍कृति का बीट संभालने वाले को जब अपराध का बीट दे दिया जाता है तो क्‍या दिक्‍कतें आती हैं और ऐसा करना किस हद तक जायज है, जैसे सवाल उठते हैं।
क्‍या पत्रकारिता भी राजनीति की शक्‍ल लेती जा रही है, जिसमें कला के जानकार को वित्‍तमंत्री और वित्‍त को जानकार को खेलमंत्री बना दिया जाना एक सामान्‍य घटना है या इसका समाज की सापेक्षता में अपना कोई चेहरा भी है। इस महानगरीय बोध की कथा में भी सुलभ अपनी आंचलिक भाषा को परे नहीं ढकेलते। देखा जाए तो सुलभ की क‍हानियां अपनी संपूर्णता में समाज और व्‍यक्ति के द्वांद्वात्‍मक विकास को रेखांकित करती हैं।


शनिवार, 23 अप्रैल 2016

पंखुरी सिन्‍हा, चंदन पाण्‍डेय और कविता की कहानियां

जैसे विष्‍णु खरे की ताकत को समझने के लिए पाठक से एक सीमित खास तैयारी की उम्‍मीद की जाती है युवा रचनाकार पंखुरी सिन्‍हा की कहानियों का आस्‍वाद लेने के लिए भी कुछ वैसी ही तैयारी चाहिए। क्‍योंकि विवरण की बारीकियों से जिस तरह इन कहानियों की शुरूआत होती है वह शुरू में पाठकों को बोर करती सी लगती हैं पर अगर किनारे पर हाथ पांव मारने से आगे लहरों में धंसने का साहस पाठक करता है आगे गहराई में जाकर भी वह एक निश्चिंतता से तैरते हुए दूसरे किनारे तक आसानी से जा सकता है।
पंखुरी की कहानियां कला फिल्‍मों की तरह प्रभाव छोड़ती हैं,जिनमें क्रियाओं से ज्‍यादा सोचने को दिखाया जाता है। सोच के कई स्‍तर इनमें एक साथ दिखायी पड़ते हैं। कहीं विचार कहीं भाव कहीं इनका द्वंद्व अभिव्‍यक्‍त होता है जिनमें। और जैसे कला फिल्‍में लोकप्रिय फिल्‍मों के नायक आधारित मिथ को तोड़ने की कोशिश करती हैं ये कहानियां भी कथा के रूप या फार्मेट को तोड़ती हैं। कथा के पारंपरिक रूप को जो कहानी सबसे कम तोड़ती है वह  'समानान्‍तर रेखाओं का आकर्षण' है। यह एक लड़की के अपने से कम उम्र लड़के के प्रति आकर्षण की कहानी है। लड़की उसे एक बार प्राप्‍त कर लेती है पर अगली बार लड़क खुद को नियंत्रित कर लेता है। कहानी कई बातों को अपने ढंग से सामने ला पाती है। कहानी दिखाती है कि बाजार किस तरह प्रेम की कंडिशनिंग करता है कि प्रेम आकर्षण की परिभाषा से आगे नहीं बढ़ पाता। दूसरी बात कि बाजार और भूमंडलीकृत दुनिया में एक लड़की की स्थिति में परिवर्तन आया है और अब वह भी अपने प्रेम और आकर्षण को पुरूषों के मुकाबिल उतनी ही ताकत से सामने रख पाने की सामर्थ्‍य रखने लगी है।
पंखुरी की कई कहानियां भारतीय समाज के वैचारिक संकट को भी दिखलाती हैं। यह लेखिका का भी संकट है - कि वह निरूपाय ,अकेली है,संकट को वह देखती है,पहचानती है पर उससे दो-चार होने की ताकत वह अभी जुटा नहीं पायी है। 'शत्रु का चेहरा' कहानी में इसे देखा जा सकता है। संकट यही है कि शत्रु का कोई मुकम्‍मल चेहरा नहीं बनता और यही लेखिका की परेशानी का सबब है। शत्रु का चेहरा ना तलाश पाने की 'कड़वाहट' में कथा नायिका जलूस का साथ नहीं दे पाती और भाग खड़ी होती है। उसे अपने भागने का अहसास भी है -' ... वह भाग ही रही है। जाने कहां से भागकर कहां को जा रही है। जाने किससे भाग रही है।' दरअसल मंजिल हर बार साफ नहीं दिखती,वह सफर में होती है या उसके बाद ही मिलती है। इसलिए मंजिल ना दिखे तेा भागने की बजाय उस राह पर चलना ही सही होगा।पंखुड़ी की कहानियों में विद्रोह और विचार जहां तहां छोटे-छोटे विस्‍फोट के रूप में आते हैं। पर उनमें एक तारतम्‍य या निरंतरता ना होने से वो बदलाव की ताकत नहीं बना पाते और लेखिका को संघर्ष की राह से भागने को मजबूर होना पड़ता है। शत्रु की पहचान के लिए इन विद्रोही स्‍वरों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। दरअसल चेहरा तो है ही शत्रु का पर आंतरिक ताकत के अभाव में उसे सामने रखने की हिम्‍मत बटोरनी है लेखिका को।यूं देश और दुनिया के अंतरविरोधों को पूरी जटिलता के साथ जिस तरह ये कहानियां अभिव्‍यक्‍त करती हैं वैसा सामान्‍यत: कविता में होता है। इन्‍हें खोलने की कोशिश में जैसे पूरी दुनिया खुलती चली जाती है।
पंखुरी की कहानियों से गुजरने के बाद चन्‍दन पाण्‍डेय की कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास गहराता है कि हिन्‍दी कहानी धीरे-धीरे अपना चोला बदलती एक नये मुकाम की ओर अग्रसर है। पंखुड़ी के यहां अगर आकलन स्‍पष्‍ट है तो चंदन के यहां कल्‍पना भविष्‍य के आभासी यथार्थ को एक नयी जमीन मुहय्या कराती दिखती है। अपने समय और समाज के अंतरविरोधों को उसके क्रूर चेहरे के साथ सामने ला देने में चन्‍दन की कहानियां समर्थ हैं। इस मायने में वे अकेले से हैं अपनी युवा जमात में।
चन्‍दन की कहानी 'सिटी पब्लिक स्‍कूल, वाराणसी' को ही लें। यह किशोर जीवन पर इक्‍कीसवीं सदी की मार को जिस तरह बहुस्‍तरीयता में पकड़ती है वह विस्मित करता है। पूंजी का क्रूरतम चेहरा, बेचारा स्‍कूल टीचर आज माट साहब से भी ज्‍यादा दुर्गती को प्राप्‍त हो रहा है। और जन्‍म लेने से पहले ही प्रेम की सुकोमल भावनाओं पर आधुनिक पूंजी के दंश को कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।
कभी शमशेर ने भविष्‍य के होने वाले कवि के लिए के लिए कहा था कि उसे विज्ञान,कला,‍इतिहास और तमाम आधुनिक प्रविधियों की जानकारी होनी चाहिए। युवा कविता के अन्‍वेषियों में तो ज्ञान की वह ललक और उसका प्रयोग नहीं दिखता है पर चन्‍दन जैसे युवा कथाकरों को पढते हुए संतोष होता है कि अपनी तमाम अत्‍याधुनिक सूचनाओं का प्रयोग वे कुशलता से कर पा रहे हैं । पूंजी प्रसूत समकालीन क्रूरताओं का चेहरा दिखाने में चन्‍दन का सानी नहीं है । लीलाधर जगूड़ी की कविता मंदिर लेन और विष्‍णु खरे की कुछ कविताएं पहले यह काम सफलता से करती दिखती थीं, आज वही काम चन्‍दन की कहानियां करती दिखाई देती हैं। उनकी करीब करीब सारी कहानियां इसका उदाहरण हैं।
चंदन की कहानी 'रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' का आरंभ तो पंखुड़ी की कहानियों की तरह एक बारीक विवरणात्‍मकता से होता है पर आगे यह अपने समय के मारे गंवई प्रेमियेां की कथा में तब्‍दील हो जाती है। क्रूरता का चेहरा सर्वत्र एक सा है, क्‍या सिटी स्‍कूल और क्‍या गांव-पथार। चंदन की कहानी भूलना व्‍यवस्‍था के अत्‍याधुनिक चेहरे की कठोरता को उसकी गलघोंटू छवियों के साथ सामने लाती है। इसी तरह 'परिन्‍दगी है कि नाकामयाब है' ग्रामीण जीवन में जमीन जायदाद के प्रति लोगों के अंधमोह से उपजी दारूण स्थितियों को अपना विषय बनाती है। यह दिखलाती है कि धन कि लालसा कैसे एक स्‍त्री को भी पुरूषों की तरह एक क्रूरतम चेहरा प्रदान करती है। शिवपूजन सहाय ने 'देहाती दुनिया' में लिखा था कि गांव के लोग भोले तो क्‍या भाले जरूर होते हैं। तो ग्रामीणों के इस भालेपन की नोंक इस कहानी के हर पृष्‍ठ पर एक तीखा दबाव बनाती दिखती है।
नये युग में व्‍यक्ति और समाज के अंतरसंघर्षों को उदघाटित करती कविता की कहानियां चन्‍दन के मुकाबले ज्‍यादा सकारात्‍मक हैं। । 'उलटबांसी' कहानी में ही जिस तरह एक मां अंतत: शादी का निर्णय लेती है वह समाज की बदलती अंतरसंरचना की झलक दिखाता है। मां, बाप, पिता, पति आदि तमाम शब्‍द आज नये अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। इस कहानी में अपूर्वा सवाल खड़े करती पूछती है - 'नदियां बदलती हैं आपना रास्‍ता,फिर मां से ही अथाह धीरज की अपेक्षा क्‍यों .... मां पर्वत नहीं थी और पर्वत भी टूटता है छीजता है समय के साथ-साथ'।
यहां यह खयाल कितना वाजिब है कि आखिर क्‍यों प्रकृति के जड़ संबोधनों को जीवित करने में आदमी अपनी भावनाओं-विचारों की हत्‍या कर खुद को पत्‍थर में तब्‍दील कर दे। कथा में एक मां पहली बार निर्णय लेती है अपने जीवन में और चाहती है कि उसके बेटे उसका साथ दें। बेटे साथ नहीं देते पर समय साथ देता है। तभी तो मां के पत्‍थर होते जेहन में इस तरह का विचार पहली बार वजूद में आता है । और चारों ओर के पथरीले आवरण को तोड़ अपनी जगह बनाता है। आखिर ये विचार भी तो मां की संतानें हैं अन्‍य भावनाओं की तरह। हिन्‍दी कविता में युवा कवि पवन करण की पहचान ही इस तरह के आधुनिक सवालों को स्‍त्री के संदर्भ में उठाने के चलते बनी है। कविता की कहानियां उसी बात को शिद्दत से रेखांकित कर पाती है।
कविता की कहानियां प्रेम और उससे पैदा उहापोह की कहानियां हैं। प्रेम को लेकर जो विचार प्रेमीजनों के दिलो-दिमाग को मथते रहते हैं उनका एक दर्शन प्रस्‍तुत करती हैं कहानियां। जैसे कि - प्‍यार सच्‍चा हो तो बड़ी से बड़ी बात छोटी लगती है , या प्रेम वह है जिसकी खातिर आदमी खुद को आमूल-चूल बदल डाले। कहानी लौटते हुए  हेा या आशिया-ना सबका मुख्‍य बिंदु प्रेम की उहापोह ही है। 'आशिया-ना' प्रेम में बिना विवाह किए सहजीवन में रहने से नये जोड़ों के सामने आई समस्‍याओं को लेकर बुनी गयी कहानी है। कि सहजीवन की परेशानियां प्रेमियों को दर-बदर करती हैं पर आशा है कि दूर के तारे की तरह टिमटिमाती रहती है।
 पंखुरी सिन्‍हा के यहां जीवन जगत का आकलन है तो कविता के यहां प्रेमियों के मनोजगत की छानबीन। यथार्थ भी जहां तहां पांव पसारता है पर एक उधेड़बुन चलती रहती है। कविता की कहानियां प्रेम पर एक जिरह छेड़ती हैं , एक अनंत जिरह। 'जिरह:एक प्रेमकथा' का एक पात्र जिरह करता कहता है - दरअसल कहानी और जिन्‍दगी दो अलग-अलग चीजें हैं, दो अलग-अलग धरातल हैं । मैं चाहता हूं कि उनके बीच का यह फेंस टूटे। शायद कविता आगे अपनी कहानियों में यह फेंस तोड़ सकें।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

संदीप मील की कहानियां - कुछ नोट्स

 1.
अच्‍छी कविता वह है जिसे फिर से पढने को कहा जाए और अच्‍छी कहानी वह जिसे पढकर पाठक दूसरे से कहे कि यार आज एक कहानी सुनाता हूं। कहानी किसकी। एक मुल्‍क में जमीं अमर जड परंपराओं की, अंधी आस्‍था की, राजस्‍थानी लोक की, संदीप मील की।

संदीप की कहानियां एक खिलंदडापन लिए होती हैं, किस्‍सागोई की शैली में। उनकी एक छोटी सी कहानी है- 'एक शर्त'। उसे पढते लगा कि लोग करोड़पति बनते नहीं हैं बल्कि खुद कंगाल बनने की शर्त पर दूसरों को करोडपति बनाते हैं। कि करोडपति बनने के सपने से ज्‍यादा मूर्खता भरा सपना कोई और हो ही नहीं सकता। इसीलिए व्‍यवस्‍था करोडों लोगों को करोडपति बनाने के स्‍वप्‍न दिखाती है। कि उनके सपनों की फसल काटकर कुछेक करोडपति बन सकें। ‘ एक का तीन ’ कहानी भी बताती है कि कैसे तमाम लोगों में बैठी पूंजी बढाने की लालसा का फायदा उठाकर देशभर में कुकुरमुत्‍तों की तरह बाबा लोग पैदा हो रहे हैं, कुछ पकडे भी जा रहे। इस कहानी के आरंभ में कहानीकार लिखता भी है – 'आज हर काम में लालच की एक भयानक परत जमी है जिससे हरदम बेइमानी की बू आती है।'

हालांकि यह लिखने की जरूरत नहीं थी क्‍योंकि कहानी इस बात को सफलतापूर्वक सिद्ध करती है। कहानी में एक पंक्ति है – 'तब बाबा जी ने पूंजीको धर्म में ही निवेश करने की बात सोची क्‍योंकि इसका सूचकांक गिरता नहीं।‘ यह भारतीय लोकजीवन का सार्वजनिक तथ्‍या है। धर्मांध लोक ही तमाम बाबाओं की शरणस्‍थली है।

लोक को आधार बनाकर लिखी कहानियों की विशेषता होती है उनका मुहावरा और व तंज का अनोखा स्‍थानीय ढंग। संदीप की छोटी कहानियां भी अपने संवादों के माध्‍यम से जिस तरह वर्तमान समय की विडंबनाओं को परिभाषित करती चलती हैं, वह ध्‍यान खींचता है। ‘ कितने माणसे ‘ कहानी में धनु बोलता है – 'देख बेटा, राजनीति कसाई का बकरा है जिसे एक दिन कटना ही पडता है। मगर जबतक न कटे तब तक राज रस सबसे प्‍यारा रस होता है। जितना निचोडो उतना ही मीट्ठा होता जाता है।‘ यहां राजनीति की क्षणभंगुरता और उसके बावजूद उसके प्रति अंधप्रेम को जिस भाषा में कहानीकार कह रहा है वह उसकी ताकत को दर्शाता है। हालांकि कहानी की थीम वही है जो टैगोर के प्रसिद्ध उपन्‍यास गोरा की है। पर लोक भाषा में उसके जो रंग उभरते हैं वो कहानीकार की अपनी खूबी है।

कहानीकार की मानव मनोविज्ञान की समझ भी अच्‍छी है। 'लुका पहलवान', 'मन्‍नत', 'झूठी कहानी' आदि ऐसी कहानियां हैं जो मानव मन के कई पहलुओं को उजागर करती हैं। सचमुच के संसार के मुकाबिल आज एक साइबर संसार भी कायम होता जा रहा है। मन्‍नत इन दोनों संसारों की टकराहट की भी कहानी है। जो दिखलाती है कि किस तरह सचमुच के संसार से टकरा कर सायबर संसार ढेर हो जाता है।

इन कहानियों में कहानिकार का खिलंदड़ापन जिस तरह सामने आता है वह उसकी ताकत है, अगर वह उसका बेजा इस्‍तेमाल ना करे। कुछ कहानियों में इस खिलंदडेपन का इस्‍तेमाल जिस तरह झटके से करता हुआ कहानीकार कहानी खत्‍म करता है, उसे लेकर थोडी चिंता होती है। खेल तो ठीक है पर खेल के अंत तक खेल भावना का निर्वाह भी जरूरी है। मंजे कहानीकार की तरह पेश आने की कहानीकार की जल्‍दबाजी को थोड़े धैर्य की जरूरत है।



2.

संदीप के दूसरे कहानी संकलन 'कोकिला शास्‍त्र' की शीर्षक कहानी 'कोकिला शास्‍त्र' को पढते हुए लगा कि जैसे संदीप हिंदी में अपने तरह के एक अलग ही जादुई यथार्थवाद की रचना करने वाले कहानीकार हैं। संदीप की कहानियों का तो मैं पहले संग्रह से ही मुरीद हो गया था पर नये संग्रह की इस पहली अपेक्षाकृत लंबी कहानी को पढते हुए मेरे लिए उनका आकर्षण और बढ गया। जादू तो संदीप की कहानियों का स्‍वभाव है। जो पाठकों के सर चढ बोलता है। पर संदीप का जादू ठोस को हवा करने वाला जादू नहीं है बल्कि इसके उलट उनका जादू हवा होते जीवट को लेकर यथार्थ में अनंत आशा की रचना करता है। उनके जादू की परतों पर परतें जैसे जैसे खुलती जाती हैं। उसकी हर परत से जैसे एक नया आशाओं से पूर्ण यथार्थ जाहिर होता जाता है।

'वारेन हेस्टिंग्‍स का सांड' जैसी कहानी में अगर उदय प्रकाश का जादुई यथार्थवाद इतिहास की परतें खोलता है तो संदीप का जादुई यथार्थवाद कहानी 'कोकिलाशास्‍त्र' की परतों में भविष्‍य के दर्शन कराता है। स्‍पष्‍ट है कि यह भविष्‍य स्त्रियों के जीवट, उनकी आजादी की ईच्‍छा और कोशिशों में ही छुपा है जिसे यह कहानी अंत में जाहिर करती है।

कोकिलाशास्‍त्र का समर्पण और प्रस्‍तावना जैसा जो कुछ लिखा है संदीप ने उसमें भी स्‍त्री को लेकर पारंपरिक नजरिये पर चोट की गयी है। समर्पण में मां को याद करता कथाकार कहता है कि ' मां को किताब समर्पण का मर्दों वाला अर्थ समझ में नहीं आता' क्‍योंकि वहां 'समर्पण के नाम पर सदियों की' गुलामी दी जाती है।

अपनी प्रस्‍तावना का शीर्षक भी संदीप ने 'बेडि़यां चबाती औरतें' दिया है। इसमें वे लिखते हैं - ' ...औरतें एक साथ बेडि़यां चबा रही हैं।' ...क्‍या आपको भी ये आवाजें सुनाई दे रही हैं'। हालांकि प्रस्‍तावना में भावुकता हावी होती दिखती है और अंत में कथाकार पुरूषार्थियों सा एकतरफा फैसलाकुन अंदाज अपनाता दिखता है, पर उसकी पीड़ा स्‍पष्‍ट है जिसे कोकिलाशास्‍त्र और अन्‍य कहानियां साफ जाहिर करती हैं।