युवा
उपन्यासकार उमा के ज्ञानपीठ
से आए उपन्यास जन्नत जाविदां
को गूगल देवता के प्रकोप के
बाद के दौर के प्रतिनिधि लेखन
के तौर पर रेखांकित किया जा
सकता है। अंतरजाल में उलझते
विश्व में हमारे संबंध किस
तरह बदल रहे हैं कि मां बेटे
के संवाद मित्र संवाद की तरह
हो गए हैं,
अत्याधुनिक।
पर श्यामली और आर्य के मध्य
के आधुनिक संवादों के बरकस
हमारी दुनिया तो अभी भी वहीं
है,
सामाजिक
स्तरों और तमाम खांचों में
घूंघट के पीछे वह आज भी अपने
देवता गढ रही है। पर मुक्ति
की तलाश में पीडित स्त्री
से देवता खिलानेवाली देवी के
रूप में बदली तुलसी की मुक्ति
कहां है। ऐसे बहुत से सवाल
छोडता यह उपन्यास नयी पीढी
के अंतरद्वंद्वों और सोच को
उनकी कुंठाओं और नये विचारों
के साथ सामने लाता है। करीब
200
पृष्टिों
के छोटे आकार में यह उपन्यास
समाज के जितने रंगों को उसके
विभिन्न शेड्स के साथ उभारता
है उसे उपन्यासकार की ताकत
के रूप में देखा जा सकता है।
तलाकशुदा
एकल मां श्यामली और उसके बेटे
आर्य के जीवन संघर्ष को सामने
रखती यह पुस्तक इसी संदर्भ
में चर्चित उपन्यास ‘आपका
बंटी’ की अगली कडी की तरह है।
‘आपका बंटी’ की आरंभ में चर्चा
भी है उपन्यास में।पर श्यामली
का आर्य ‘आपका बंटी’ नहीं है।
एक पिता की कामना तो है उसमें
पर वह उसके बंटी की तरह कमजोर
नहीं बनाती,
वह
करूणा का पात्र नहीं है।
क्योंकि श्यामली के धैर्य
और विवेकने उसे आश्रित पुत्र
की तरह नही एक सहयेागी मित्र
की तरह विकसित किया है। पिता
की कामना है आर्य को भी पर पिता
को वह अपनी मां के मित्र के
रूप में पाना चाहता है,
उसके
परमेश्वर के रूप में नहीं।
आर्य
के लिए पिता कोई सत्ता नहीं
है। वह स्कूल के अपने साथियेां
के सवालों के जवाब के लिए पिता
को खोजता है,
कभी
कभार पर वह उसके मानस के केन्द्र
में नहीं है। वह पिता के रूप
में मां के लिए नया साथी चाहता
है और इस रूप में अपने लिए एक
मित्र चाहता है।
नयी
सभ्यता और विकास के नये दौर
में पिता एक अदृश्य होती
सत्ता की तरह है,
इसका
प्रमाण है आर्य का चरित्र।
यह उपन्यास मातृसत्ता की
वापसी का संकेत भी है। नयी
सभ्यता की सहज परिणती भी है
यह। इस सभ्यता में संतानें
अब कामना की तरह नहीं रह गयी
हैं। वे करियर और तमाम अन्य
प्राथमिकताओं के बरक्स एक
बाधा की तरह रह गयी हैं। और
ऐसा घटित होने में पिता की
भूमिका प्रमुखता से उभरती
है। संतानों पर अपनी कामनाओं
को तरजीह देना पिता के रूप्
में उसकी सत्ता से उसे बेदखल
करता है।
चाहे
आज पिता पिता नहीं रहा।पर
संतानें तो हैं और उनके साथ
उनकी माताएं हैं,मित्रवत
माताएं। शासक पिता के मुकाबले
मित्र माता के प्रति संतानों
का खिंचाव सहज है और यह नयी
सभ्यता को माता की नयी सत्ता
सौंपता है।
यह स्त्रियों को गुलाम बनाए
रखने की हजारों सालों की उनकी
कोशिशों का नतीजा है कि पिता
के रूप में आज वे अदृश्य होने
की परिणतियों की ओर बढ चुके
हैं।
श्यामली
सोचती है-
‘जिंदगी
वाकई सडक की तरह ही तो है,
जो
चलती रहती है,
कहीं
पहुंचती नहीं। कोई मंजिल नहीं,
मंजिल
मिली तो सडक खत्म,
जिंदगी
खत्तम।‘ कल तक यह सोच पुरूषों
की थी। विवाह स्त्रियों के
लिए मंजिल की तरह था पर पुरूषों
के लिए नहीं। आज स्त्रियां
भी इसी तरह सोच पा रही हैं और
मुक्त हो पा रही हैं।
यह
मुक्ति उनकी भाषा में नये रंग
भर रही है-‘हल्की
दाढी,
लम्बी–दुबली
काया पर ढीला-ढाला
कुर्ता और जींस ,
यह
पूरी पैकेजिंग बताती है कि
सुभाष का ताल्लुक कला की
दुनिया से है। घर का हुलिया
और खामोशी बयां करती है कि
सुभाष के इस घर में खामोशियां
गुनगुनाया करती हैं। अकेलेपन
के इस मार्केट में मायूसी के
ज्यादा शेयर्स सकून के पास
हैं।‘ उपन्यासकार की यह
शब्दावली अगर जीवन में बाजार
के दखल को सामने लाती है तो
साथ-साथ
खामोशी,
मायूसी
और सकून को नये ढंग से परिभाषित
भी करती है। पितृसत्ता की
सतायी स्त्रियों के पास खोने
को कुछ नहीं है। पित परमेश्वर
से मुक्ति के बाद वे मायूस
नहीं हैं। अकेलापन और खामोशी
भी उसके लिए सुकून का वायस है,
इसमें
वे अपनी और अपने नये समाज की
पुनर्रचना कर पा रही हैं।
उनके
पास अपना अर्जित दर्शन है जो
उनकी अपनी अदा के साथ बारहा
प्रकट होता है। नौ साल का बेटा
जब पूछता है कि – मम्मा जी ये
आसमां नीला क्येां होता है
तो श्यामली का जवाब होता है
– ये पीला भी होता तो क्या
तुम सवाल नहीं करते,
इसे
किसी न किसी रंग का तो होना ही
होगा न। स्पष्ट है कि जो कुछ
झेल कर आज की स्त्री बाहर आ
रही है उसने रंगों के पारंपरिक
मानी और अर्थों के प्रति उसमें
एक विद्रोह भर दिया है जिसे
वे अपनी तरह से हल करती हैं।
जन्नत जाविदां की श्यामली
विश्व की उस स्त्री का
प्रतिनिधित्व करती है जिसने
पुरूषों के बरक्स अपनी नयी
दुनिया रची है। उसमें रंगों
के वही अर्थ नहीं रहने हैं जो
थे।
प्रेम
में अक्सर लोग अपने साथी से
कहते हैं कि मैं और तुम अलग
हैं क्या। पर यह एकसा वाला
दर्शन बस प्रेम में पुरूष ही
बघारते हैं और प्रेम के अलावे
इसका कहीं प्रयोग नहीं हेाता।
जीवन के अन्य तमाम मसलों में
यह छद्म एकसापन दूर तक साथ
नहीं दे पाता। नये दौर की
स्त्री अब इस भुलावे को भोली
बनकर सह नहीं पा रही। उपन्यास
में माही एक जगह कहती है – एक
होते तो एक मुंह से खाते...।
स्त्रियां आज समझ चुकी हैं
कि अब ‘प्रेम फुरसती लोगों
का सब्जेक्ट है। पीत्जा
संस्कृति का हिस्सा है।...प्रेम
पैसे बहुत दिलाता है।‘ हमारे
आपके जीवन में प्रेम नहीं है
तभी लोग ‘दो सौ रूपये खर्च कर
उसे देखने’ मॉल-हॉल
जाते हैं।‘
उपन्यास
में श्यामली का बेटा आर्य
का चरित्र अनोखा लगता है। आज
के बच्चे कितना बदल चुके हैं।
आर्य जब बोलता है तो लगता है
जैसे बाप-बेटा
एक साथ बोल रहे हों। एकल मां
का यह बेटा पति के ना होने पर
मां के दोस्त की भी भूमिका
अदा करता दिख रहा है। श्यामली
आर्य को चालू मोबाइल टोन के
लिए डांट रही होती है,
फोन
आने पर,
तो
आर्य बोलता है – ‘मम्मा पहले
कॉल अटेंड कर लो,
फिर
डांट लेना बच्चे को’।
उमा
यह उपन्यास स्त्री विमर्श
से आगे मनुष्यता के विमर्श
को छूता सा लगता है। पुरूष
लेखक जिस तरह अपनी कुंठाओं
और टैबू को खुलकर अभिव्यक्त
करते हें,
उमा
ने भी इस मामले में कोई हिचक
नहीं दिखाई है। पढते हुए आदमी
चौंकता है पर अगर पुरूष लेखन
में उसे बहादुरी की तरह लिया
जाता है तो यहां उसके कुछ और
मानी क्येां निकाला जाना
चाहिए। ‘हरामी होता है आदमी
...
तब
अपना हरामीपन जाग जाता है’।
परंपरिक
उपन्यासकारों की तरह उमा ने
भी उपन्यास में समाज सुधारके
कुछ प्रसंग साथ-साथ
चलाए हैं। इस दौर में यह लेखिका
की समाज के प्रति प्रतिबद्धता
को दर्शाता है।
उपन्यासों
और कहानियों में कवितांश कोट
करना लेखकों के यहां सहज होता
है,
वह
पाठ को रोचक बनाता है। उमा ने
भी कई अध्यायों की समाप्ति
कवितांश से की है,
पर
वे पंक्तियां लेखिका की खुद
की हैं और कहीं कहीं वो छूती
भी हैं।
बेटे
की यौन जिज्ञासाओं का जवाब
देते जिस तरह श्यामली एड्स
का डर दिखा उसे चुप कराने की
कोशिश करती है उसे पारंपरिक
पितृसत्तात्मक तरीके की
कुंठाएं पैदा करने वाले भय
पैदा करने की कोशिशों की श्रेणी
में ही रखा जा सकता है।
एड्स
के उदाहरण के रूप में मां-बेटे
जिस तरह फिल्मों का उदाहरण
देते हैं एक दूसरे केा वह एक
बडी सामाजिक समस्या की ओर
ईशारा करता है। श्यामली सोचती
है-
-‘हर
बात फिल्मों के जरिए ही क्येां
समझानी पडती है,
क्येां
हमारे पास कोई और उदाहरण नहीं
होते’। यह एक बडा सवाल है जो
हमारे समाज के नकलीपन को दर्शाता
है।
स्त्रियों
के भीतर जो सुंदर दिखने की
कंडिशनिंग होती है,
उस
पर भी विचार किया है लेखिका
ने। सारे पार्लर यूं ही नहीं
चलते,
करोडों
का क्रीम का कारोबार यूं ही
नहीं है’। यह एक गंभीर सवाल
है कि –सारे दुखों के बीच भी
जैसे यह कितना जरूरी होता है
कि आप भीड से अलग नजर आओ। सुंदर
नजर आओ।
बहुत अच्छी समीक्षा.
जवाब देंहटाएं