कवि यहाँ चाहता तो ‘सगुन’ की जगह ‘समय’ का भी प्रयोग कर सकता था। देव, ईश्वर, प्रार्थना, स्वर्ग, पाताल, प्रलय आदि शब्दों का जिन संदर्भों में एकांत प्रयोग करते हैं, वह उनकी राजनीतिक दृष्टि की बाबत साफ-साफ कहता है। ‘सत्य की खोज की कथा’ शीर्षक कविता में वे पाते हैं कि सत्य का राहुल, यशोधरा और बुद्ध से कोई नाता नहीं है। बल्कि वह तो हमारे आसपास ही था जिसे हम पहचान ना पाने के चलते बचते फिर रहे थे। देखा जाए तो राजनीति के क्षेत्र में परंपरा और सत्य के अन्वेषियों ने ‘हस्तिनापुर’ पर कब्जा प्राप्त कर लिया है पर साहित्य में अभी ऐसा हो नहीं पाया है पर एकांत इस मामले में आश्वस्त हैं और अपनी कविताओं को विजयी होने की शुभकामनाएँ देते हैं। वे चाहते हैं कि ये कविताएँ ‘पांडवों की तरह छिने हुए हस्तिनापुर को’ पुनः प्राप्त करें।
प्रकृति के जीवंत दृश्य एकांत की कविताओं में प्रभावी ढंग से आते रहे हैं, यहां वे अपनी ताकत के साथ मौजूद दिखते हैं। ‘जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इस माने में ख़ूबसूरत हैं- बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है चांद उसी का है जो उस तक पहुँचता है..।
एकांत के पास कुछ मार्मिक कविताएं हैं- ख़ून के तालाब में डूब कर तड़पते हुए उसने इच्छा की होगी कि उसका सिर मां की गोद में हो...।
एक लंबी कविता ‘कन्हार’ में कवि अपनी स्मृतियों के सहारे लोक जीवन के संकटों को चिह्नित करता है और उनके छीजते जाने को लेकर दुख व्यक्त करता है। शहरीकरण और बाज़ारवाद के विषमतामूलक प्रभावों के प्रति कवि काफी संवेदनशील है। वह चिन्तित है कि चीज़ों की कीमतें जहाँ आकाश छू रही हैं, वहीं आदमी का बाजार भाव गिरता जा रहा है।
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