प्रेमचन्द और भारतीय समाज नामवर सिंह की आठ पुस्तकों की श्रृंखला में एक है। यह योजनाबद्ध रूप से लिखी गयी कोई कृति नहीं है। 2005 से 2010 के बीच के पांच सालों में इस श्रृंखला के संपादक आशीष त्रिपाठी ने प्रो.कमला प्रसाद की प्रेरणा से पिछले साठ सालों में नामवर सिंह के छपे पर असंकलित आलेखों और वक्तव्यों से इसे तैयार किया है।
जैसा कि नामवर सिंह कहते हैं कि – मेरी ज्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं। यह पुस्तक भी कई बहसों पर अपने अंतरविरोधों के साथ पाठकों के सामने आयी है। एक बहस यही है कि प्रेमचन्द गांधीवादी थे या नहीं। इस संदर्भ में पुस्तक में पहली टिप्पणी, बीबीसी को दिए गए बयान में, नामवर सिंह ने यह की है कि –‘यद्यपि लोग उन्हें गांधीवादी कहते हैं, लेकिन वे गांधी से दो कदम आगे
बढकर आन्दोलन और क्रांति की बात करते हैं। प्रेमचन्द अपने जमाने के साहित्यकारों से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं।‘
यहां नामवर जी की बातें स्पष्ट नहीं हैं। यह तो ठीक है कि प्रेमचन्द अपने जमाने के साहित्यकारों से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं पर गांधी से भी दो कदम आगे बढकर आंदोलन की बात ही करते हैं,
जबकि गांधी आंदोलन भी करते हैं। केवल बात नहीं करते। एक लेखक के रूप में प्रेमचन्द से हम उस तरह से आंदोलन की अपेक्षा भी नहीं करते।
इस टिप्पणी के बाद वाले आलेख में नामवर सिंह ने गांधी और प्रेमचन्द को उनके सही संदर्भों में देखा है। गांधी-टैगोर के विवाद के परिपेक्ष्य में वे लिखते हैं – ‘ गांधी जी के इस क्ष्ुाधित पक्ष को साहित्य में यदि किसी ने पूरी ममता के साथ स्थान दिया तो प्रेमचन्द ने, क्योंकि गांधीजी के समान ही प्रेमचन्द की दृष्टि भी यथार्थ पर
थी...। राजनीति को गांधी यदि संघर्ष की नई भाषा , नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे तो साहित्य को भी प्रेमचन्द उसी प्रकार नई भाषा ,नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे।‘
प्रेमचन्द को नामवर सिंह हिन्दी का पहला प्रगतिशील लेखक मानते हुए उनकी भूमिका को कबीर की भूमिका के समतुल्य बताते हैं। यशपाल, नागार्जुन और एक हद तक रेणु को वे प्रेमचन्द की परंपरा को विकसित करने
का श्रेय देते हैं।
पुस्तक चूंकि संकलन है सो इसमें एक तरह का बिखराव है। कुछ लेख इसमें ऐसे भी हैं जिनका प्रेमचन्द से कोई संबंध नहीं है, उन्हें हम उनके समय से जुडे व्योरे के रूप में पढ सकते हैं। पुस्तक मे प्रेमचन्द को लेकर चली और चल रही कई बहसों पर नामवर सिंह के विचार हम पढ सकते हैं। पुस्तक के अंत में प्रेमचन्द और तोल्सतोय शीर्षक से एक टिप्पणी है जिसमें नामवर सिंह ने दोनों रचनाकारों के पारस्परिक संबंधों को समझने के ग्यारह सूत्र दिए हैं। गांधी जी की तरह प्रेमचन्द भी तोल्सतोय के प्रभाव में थे पर नामवर सिंह का निष्कर्ष है कि इसके बावजूद दोनों के विकास की दिशा एक दूसरे के विपरीत है। किसानों के पक्षधर तो दोनों थे पर तोल्सतोय के किसान चरित्रों में अंतर्विरोध ज्यादा हैं, दूसरी ओर तोल्सतोय के औसत किसानों के मुकाबले प्रेमचन्द के किसान अधिक निभ्रांत और लडाकू हैं।
एक आलेख में दलित साहित्य और प्रेमचन्द विषय पर भी विचार किया गया है। नामवर सिंह का स्पष्ट मत है कि प्रेमचन्द कोई दलित साहित्यकार नहीं थे। यह अलग बात है कि संभवत: वे पहले उपन्यासकार हैं हिन्दी के, जिनके उपन्यास का नायक ‘सूरदास’ जाति का चर्मकार है। प्रेमचन्द की रचनाओं से गुजरने के बाद यह पता चलता है कि दलितों के मंदिर प्रवेश को वे दलित समस्या का समाधान नहीं मानते थे। वे उन्हें भी
किसान-मजदूर की तरह देखते थे और उनका आर्थिक और सामाजिक उत्थान चाहते थे। गांधी जी से अलग प्रेमचन्द का मत यह था कि जबतक जाति-पांति की व्यवस्था नहीं तोडी जाएगी तबतक दलितों को मुक्ति नहीं मिलेगी।
सांप्रदायिकता के सवाल पर प्रेमचन्द के मतों पर भी एक आलेख में विचार किया गया है। सांप्रदायिकता पर चोट करते प्रेमचन्द लिखते हैं कि वह हमेशा संस्कृति की दुहाई देती है। प्रेमचन्द कहते है कि आज संसार
में बस एक ही संस्कृति है आर्थिक संस्कृति।
आर्य संस्कृति,ईरानी संस्कृति और अरब संस्कृति नाम की चीज तो है पर ईसाई,मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
इस तरह प्रेमचन्द के तमाम विषय पर विचारों को जानने के लिहाज से पुस्तक अच्छी बन पडी है। इसमें प्रेमचन्द के आलोचकों की भी अच्छी खबर ली गयी है। प्रेमचन्द को सही संदर्भों में समझने में यह पुस्तक एक हद तक मददगार हो सकती है।
शुक्रवार में प्रकाशित