रमेश
पांडेय की कविताओं में कविता का टटकापन दिखता है। ‘दुआख्वानी’ कविता की पंक्तियां इसकी गवाही भी देती हैं:
बेपर्दा आंखों ने देखा आसमान
और आसमान ने हमेशा की तरह चुप्पी साध
ली
....
कोई तो सुन ले
ये आवाज़ मेरे मौला।
यह ठीक है कि कवि मजलूमों की पीड़ा की
तस्दीक करता है, पर यह दुआ किससे
करता है। आसमान में चुप्पी साधे मौला से। इधर की कविता में
अनीता वर्मा से प्रेमरंजन अनिमेष तक ईश्वर-मौला को वजह-बेवजह कष्ट देने की जरूरत क्यों आन पड़ती है, पता नहीं। शायद जन-जीवन में घटते सरोकारों के चलते ऐसा
हो रहा है। अगर तलवार के आगे सिर धारे मजलूमों की आवाज़ मौला
नहीं सुनता तो कवि को क्यों ऐसा लगता है कि उसकी दुआ वह सुन लेगा। क्या कवि ईश्वर का प्रतिनिधि है, धरती पर?
कवि की अभिव्यक्तियों में कच्चापन है, पर जीवन के ढेरों नए रंग भी हैं उसके यहां। कुछ चित्र
तो जबरदस्त बन पड़े हैं, जैसे :
कंगूरों के पीछे झांकते मातहतों के
बच्चे
तबले की थाप सुनने और पंगत को देखने में
खुद को छिपाना भूल गए हैं।
या
रात बस
अभी बगलगंगा में
नहाते नंगे बच्चों के साथ झम से कूदी है।
ये चित्रा खुद बोलते हैं, इन्हें वकालत की जरूरत नहीं।
कवि है तो कविता की बाबत कुछ कहेगा
ही और कहेगा तो ग़ालिब से पीछे क्यों रहेगा -
यह विचार है
जो बाजार में अकेला तन
कर खड़ा है
सीने में उतरे छुरे की मूठ की तरह
यह सिर्फ़ कविता है। जो
धमनियों में रक्त की तरह दौड़ती है
आंखों से तेजाब की तरह झरती है।
यहां साफ नहीं होता कि जो तना है, वह उतरा हुआ कैसे है?
रमेश के पास प्रेम कविताएं भ्ाी हैं
पर वे पाठकों की बनिस्पत प्रेमिका की समझ में आने की कुव्वत ज्यादा रखती हैं। हालांकि त्रिलोचन ने अपनी टिप्पणी
में उन्हें दक्ष अभिव्यक्ति का प्रमाण माना है। पता नहीं ऐसा क्यों है?
रमेश के यहां कुछ विचित्राताएं भी हैं, जैसे ‘इस सोच में हूं’ कविता में कवि उदास हो जाने की बाबत सोचता है। उदास भी सोचकर हुआ जाता है, इस ट्रेंड के बारे में कुछ साफ कहा नहीं जा सकता
क्योंकि सालों पहले ज्ञानोदय के अंक में निर्मल वर्मा की वेदना को शब्दों में
सोचता हुआ बताया गया था।
रमेश की कई कविताएं
भावोद्वेलन से आगे नहीं बढ़ पातीं। ‘जिनके हाथों में अस्लहे हैं’ कविता की पंक्ति देखें:
बहुत हो चुका
अब बदल दो तुम
अपनी
नियति
वृक्षों-सी खड़े रहने की
बढ़ो और लपेट लो गरदनें उनकी
उछाल दो आकाश में
बहुत ऊंचा
पलायित
करने को उन्हें
जिनके हाथों में अस्लहें हैं।
वृक्षों को लेकर यहां वरिष्ठ कवि
वीरेन डंगवाल की ‘लकड़हारे की अधूरी
कविता’ का अंश तुलना करने लायक है-
जरा रगड़ो तो अपनी लोहे की कुल्हाड़ी की धार, पत्थर पर
और
देखो कैसी दहशत भरी ऐंठन में सिकोड़ लेते
हैं
अपनी
जड़ों को ये शराबी की तरह झूमते पेड़।
वृक्षों को लेकर दोनों ही जगह अतिरेकी भाव है। प्रतीकों में कविता के खतरे हैं ये।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें