दशरथ की पत्नी को पहाड के बीच का दर्रा पार करते चोट लगी थी उसी से प्ररित हो दशरथ पहाड काटने के काम में लग गए थे। पत्नी इस बीच चल बसीं पर दशरथ का पहाड काट कर रास्ता बनाने का जज्बा खत्म नहीं हुआ। दशरथ की प्रेमकथा बासी इसलिए नहीं पडी क्योंकि वह प्रेम के साथ श्रम और अटूट धैर्य की भी कथा है। हालांकि हिन्दी के चर्चित कवि अरूण कमल दशरथ मांझी को नायक नहीं मानते उनके अनुसार - ‘दशरथ मांझी का श्रम एक व्यक्ति का था,समूह का नहीं ,इसलिये वह नायक नहीं थे’। क्या अरूण कमल बताएंगे कि किसी भी व्यक्ति, चाहे वो कैसा भी नायक हो उसका श्रम एक समूह का श्रम कैसे हो सकता है .. ।
उपेन्द्र की इन कविताओं में दुनिया भर के आदिम समाजों में जारी सकारात्मक और नकारात्मक तौर-तरीकों को जगह दी गयी है। जैसे एक कविता है बिठलाहा जिसमें संथाली समाज में बलात्कारी को दी जाने वाली सजा का विवरण आता है कि किस तरह से बलात्कारी के घर को संथाली समाज के लोग खत्म कर देते हैं और उसके परिजनों को गांव-समाज से बाहर कर देते हैं, बलात्कारी तो जान बचाकर पहले भाग ही चुका होता है, संथाल समाज के बालत्कारियों को दंडित करने के तौर-तरीकों से चाहे तो हमारा तथाकथित आधुनिक समाज सीख सकता है -
क्या तूने कहीं सुना है
देखा है... ऐसा कोई समाज
जो इस तरह हो खड़ा
दुराचार के खि़लाफ़!
चीन , कनाडा, इंडोनेशिया आदि के आदिवासी समाजों में प्रचलित कुप्रथाओं को भी अपनी कई कविताओं में अभिव्यक्त किया है उपेन्द्र ने। भारत में आज भी जहां-तहां से नर बलि की बीभत्स घटनाओं की खबर आती है जबतब। डायन कहकर भोली-भाली औरतों को आज भी झारखंड और बिहार में ओझा-गुणी अपना शिकार बना रहे हैं। अशिक्षा और कुंठाओं से उपजी इस तरह की क्रूरता के कई प्रसंग हैं यहां जो हमें विचलित करते हैं-
क्वाँरी लड़की का माँस उबालकर खाने से
कोई आदमी उड़ नहीं सकता
क्या तुम्हारा अपरिपक्व मस्तिष्क
इतना समझ नहीं सका
या
सैंडी कोई अलग से शैतान का अस्तित्व नहीं होता
आदमी ही किंवा शैतान हो जाता है
या
क्या सचमुच बलि से देवता हो जाते हैं ख़ुश
तब ऐसा क्यों नहीं करते
उस देवता की ही बलि दे देते
ताकि वह देवता हो जाए और ख़ुश!
या
युवतियों को ख़रीदकर फिर उनकी गर्दन दबाने में
तुम्हें कितना वक़्त लगता है जेंग डांगेपन
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पुलिस बाबू,
हम तो केवल माँग की पूर्ति करते हैं-
लोग तो बस ख़ूबसूरत और जवान दुल्हनें चाहते हैं
कोई लड़की कैसे मरी या मारी गई
इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं, बाबू!
आख़िर किसी लड़की को
एक-न-एक दिन मरना तो है ही...!
अमानवीयता के कैस-कैसे तर्क हो सकते हैं आततायी समाज के यह इन कविताओं से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। आततायियों के ऐसे तर्क केवल आदिम समाजों में ही नहीं मिलते आधुनिक समाजों में भी ये उसी तरह फल-फूल रहे हैं, गुजरात में हुए दंगों के पीछे के आततायियों के तर्क को हम इन सबसे अलग कैसे कर सकते हैं पर वहां के रहनुमा हैं कि गुजरात की आधुनिकता और विकास के दावे करते नहीं थकते। देखा जाए तो यह आततायीपन दुनिया भर में नकाब के पीछे आज भी जीवित है, उसका चोला भले अलग हो पर हर जगह उसकी अमानवीयता एक सी है, उसके शिकार एक से हैं। उनका कालाजादू आज भी वैसा ही चल रहा है, आज भी आसराम बापू जैसे के आश्रम में इस कालाजादू के शिकार बच्चों की लाशें मिलती हैं। उपेन्द्र भी इससे अवगत हैं -
इवे कबीले की कुमारी
दात्सोमोर अकू
तुम
केवल घाना के बोल्टा क्षेत्र में ही नहीं हो
मैंने तुम्हें जहाँ भी ढूँढ़ा-वहीं पाया
अफ्रीका में
लैटिन अमरीका में
एशिया और यूरोप में।
इन कविताओं में उपेन्द्र ने पीडा के और भी कई प्रसंग उठाए है, क्लाड इथरली से लेकर रत्नाबाई काणेगांवकर तक, वे पाठकों को व्यथित करते हैं। आहत मनुजता के यह तमाम प्रसंग हमें सोचने को विवश करते हैं कि क्या इक्कीसवीं सदी सचमुच विज्ञान या विकास की सदी है या मध्ययुगीन कालिमा अपनी काली उंगली उठाए हमारे भाल को आज भी कलंकित कर रही है। क्योंकि इस आधुनिक और विकासोन्मुख सदी में भी सडक पर एक प्रसवपीडिता हमारे रहनुमाओं के काफिले के गुजरने के इंतजार में अपने अजन्मे बच्चे के साथ काल-कवलित हो जा रही है। उपेन्द्र की एक लंबी कविता कार्यकर्त्ता है जिसमें कवि ने राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के दुख को जबान दी है। कार्यकर्त्ताओं पर हिन्दी में संभवतया यह पहली कविता है जो उनके पक्ष को सामने रखने की कोशिश करती है। उपेन्द्र कवि के साथ खुद एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी रहे हैं और इस कविता को उनका निज के साथ साक्षात्कार माना जा सकता है-
हर जगह लड़ रहे हैं कार्यकर्त्ता!
मर रहे हैं कार्यकर्त्ता!
उनके ख़ून से अभी तक माटी में है ललाई
नेता बन रहे ख़ून सोख्ता!
इस ढ़लती उम्र में अभी तक
जो रह गये हैं केवल कार्यकर्त्ता
उन्हीं के संघर्ष से कहीं पक रहा है लोहा
और बन रहे हैं औज़ार
और हो रही तैयारी- किसी युद्ध की!
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