पंखुरी की कहानियां कला फिल्मों की तरह प्रभाव छोड़ती हैं,जिनमें क्रियाओं से ज्यादा सोचने को दिखाया जाता है। सोच के कई स्तर इनमें एक साथ दिखायी पड़ते हैं। कहीं विचार कहीं भाव कहीं इनका द्वंद्व अभिव्यक्त होता है जिनमें। और जैसे कला फिल्में लोकप्रिय फिल्मों के नायक आधारित मिथ को तोड़ने की कोशिश करती हैं ये कहानियां भी कथा के रूप या फार्मेट को तोड़ती हैं। कथा के पारंपरिक रूप को जो कहानी सबसे कम तोड़ती है वह 'समानान्तर रेखाओं का आकर्षण' है। यह एक लड़की के अपने से कम उम्र लड़के के प्रति आकर्षण की कहानी है। लड़की उसे एक बार प्राप्त कर लेती है पर अगली बार लड़क खुद को नियंत्रित कर लेता है। कहानी कई बातों को अपने ढंग से सामने ला पाती है। कहानी दिखाती है कि बाजार किस तरह प्रेम की कंडिशनिंग करता है कि प्रेम आकर्षण की परिभाषा से आगे नहीं बढ़ पाता। दूसरी बात कि बाजार और भूमंडलीकृत दुनिया में एक लड़की की स्थिति में परिवर्तन आया है और अब वह भी अपने प्रेम और आकर्षण को पुरूषों के मुकाबिल उतनी ही ताकत से सामने रख पाने की सामर्थ्य रखने लगी है।
पंखुरी की कई कहानियां भारतीय समाज के वैचारिक संकट को भी दिखलाती हैं। यह लेखिका का भी संकट है - कि वह निरूपाय ,अकेली है,संकट को वह देखती है,पहचानती है पर उससे दो-चार होने की ताकत वह अभी जुटा नहीं पायी है। 'शत्रु का चेहरा' कहानी में इसे देखा जा सकता है। संकट यही है कि शत्रु का कोई मुकम्मल चेहरा नहीं बनता और यही लेखिका की परेशानी का सबब है। शत्रु का चेहरा ना तलाश पाने की 'कड़वाहट' में कथा नायिका जलूस का साथ नहीं दे पाती और भाग खड़ी होती है। उसे अपने भागने का अहसास भी है -' ... वह भाग ही रही है। जाने कहां से भागकर कहां को जा रही है। जाने किससे भाग रही है।' दरअसल मंजिल हर बार साफ नहीं दिखती,वह सफर में होती है या उसके बाद ही मिलती है। इसलिए मंजिल ना दिखे तेा भागने की बजाय उस राह पर चलना ही सही होगा।पंखुड़ी की कहानियों में विद्रोह और विचार जहां तहां छोटे-छोटे विस्फोट के रूप में आते हैं। पर उनमें एक तारतम्य या निरंतरता ना होने से वो बदलाव की ताकत नहीं बना पाते और लेखिका को संघर्ष की राह से भागने को मजबूर होना पड़ता है। शत्रु की पहचान के लिए इन विद्रोही स्वरों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। दरअसल चेहरा तो है ही शत्रु का पर आंतरिक ताकत के अभाव में उसे सामने रखने की हिम्मत बटोरनी है लेखिका को।यूं देश और दुनिया के अंतरविरोधों को पूरी जटिलता के साथ जिस तरह ये कहानियां अभिव्यक्त करती हैं वैसा सामान्यत: कविता में होता है। इन्हें खोलने की कोशिश में जैसे पूरी दुनिया खुलती चली जाती है।
पंखुरी की कहानियों से गुजरने के बाद चन्दन पाण्डेय की कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास गहराता है कि हिन्दी कहानी धीरे-धीरे अपना चोला बदलती एक नये मुकाम की ओर अग्रसर है। पंखुड़ी के यहां अगर आकलन स्पष्ट है तो चंदन के यहां कल्पना भविष्य के आभासी यथार्थ को एक नयी जमीन मुहय्या कराती दिखती है। अपने समय और समाज के अंतरविरोधों को उसके क्रूर चेहरे के साथ सामने ला देने में चन्दन की कहानियां समर्थ हैं। इस मायने में वे अकेले से हैं अपनी युवा जमात में।
चन्दन की कहानी 'सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी' को ही लें। यह किशोर जीवन पर इक्कीसवीं सदी की मार को जिस तरह बहुस्तरीयता में पकड़ती है वह विस्मित करता है। पूंजी का क्रूरतम चेहरा, बेचारा स्कूल टीचर आज माट साहब से भी ज्यादा दुर्गती को प्राप्त हो रहा है। और जन्म लेने से पहले ही प्रेम की सुकोमल भावनाओं पर आधुनिक पूंजी के दंश को कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।
कभी शमशेर ने भविष्य के होने वाले कवि के लिए के लिए कहा था कि उसे विज्ञान,कला,इतिहास और तमाम आधुनिक प्रविधियों की जानकारी होनी चाहिए। युवा कविता के अन्वेषियों में तो ज्ञान की वह ललक और उसका प्रयोग नहीं दिखता है पर चन्दन जैसे युवा कथाकरों को पढते हुए संतोष होता है कि अपनी तमाम अत्याधुनिक सूचनाओं का प्रयोग वे कुशलता से कर पा रहे हैं । पूंजी प्रसूत समकालीन क्रूरताओं का चेहरा दिखाने में चन्दन का सानी नहीं है । लीलाधर जगूड़ी की कविता मंदिर लेन और विष्णु खरे की कुछ कविताएं पहले यह काम सफलता से करती दिखती थीं, आज वही काम चन्दन की कहानियां करती दिखाई देती हैं। उनकी करीब करीब सारी कहानियां इसका उदाहरण हैं।
चंदन की कहानी 'रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' का आरंभ तो पंखुड़ी की कहानियों की तरह एक बारीक विवरणात्मकता से होता है पर आगे यह अपने समय के मारे गंवई प्रेमियेां की कथा में तब्दील हो जाती है। क्रूरता का चेहरा सर्वत्र एक सा है, क्या सिटी स्कूल और क्या गांव-पथार। चंदन की कहानी भूलना व्यवस्था के अत्याधुनिक चेहरे की कठोरता को उसकी गलघोंटू छवियों के साथ सामने लाती है। इसी तरह 'परिन्दगी है कि नाकामयाब है' ग्रामीण जीवन में जमीन जायदाद के प्रति लोगों के अंधमोह से उपजी दारूण स्थितियों को अपना विषय बनाती है। यह दिखलाती है कि धन कि लालसा कैसे एक स्त्री को भी पुरूषों की तरह एक क्रूरतम चेहरा प्रदान करती है। शिवपूजन सहाय ने 'देहाती दुनिया' में लिखा था कि गांव के लोग भोले तो क्या भाले जरूर होते हैं। तो ग्रामीणों के इस भालेपन की नोंक इस कहानी के हर पृष्ठ पर एक तीखा दबाव बनाती दिखती है।
नये युग में व्यक्ति और समाज के अंतरसंघर्षों को उदघाटित करती कविता की कहानियां चन्दन के मुकाबले ज्यादा सकारात्मक हैं। । 'उलटबांसी' कहानी में ही जिस तरह एक मां अंतत: शादी का निर्णय लेती है वह समाज की बदलती अंतरसंरचना की झलक दिखाता है। मां, बाप, पिता, पति आदि तमाम शब्द आज नये अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। इस कहानी में अपूर्वा सवाल खड़े करती पूछती है - 'नदियां बदलती हैं आपना रास्ता,फिर मां से ही अथाह धीरज की अपेक्षा क्यों .... मां पर्वत नहीं थी और पर्वत भी टूटता है छीजता है समय के साथ-साथ'।
यहां यह खयाल कितना वाजिब है कि आखिर क्यों प्रकृति के जड़ संबोधनों को जीवित करने में आदमी अपनी भावनाओं-विचारों की हत्या कर खुद को पत्थर में तब्दील कर दे। कथा में एक मां पहली बार निर्णय लेती है अपने जीवन में और चाहती है कि उसके बेटे उसका साथ दें। बेटे साथ नहीं देते पर समय साथ देता है। तभी तो मां के पत्थर होते जेहन में इस तरह का विचार पहली बार वजूद में आता है । और चारों ओर के पथरीले आवरण को तोड़ अपनी जगह बनाता है। आखिर ये विचार भी तो मां की संतानें हैं अन्य भावनाओं की तरह। हिन्दी कविता में युवा कवि पवन करण की पहचान ही इस तरह के आधुनिक सवालों को स्त्री के संदर्भ में उठाने के चलते बनी है। कविता की कहानियां उसी बात को शिद्दत से रेखांकित कर पाती है।
कविता की कहानियां प्रेम और उससे पैदा उहापोह की कहानियां हैं। प्रेम को लेकर जो विचार प्रेमीजनों के दिलो-दिमाग को मथते रहते हैं उनका एक दर्शन प्रस्तुत करती हैं कहानियां। जैसे कि - प्यार सच्चा हो तो बड़ी से बड़ी बात छोटी लगती है , या प्रेम वह है जिसकी खातिर आदमी खुद को आमूल-चूल बदल डाले। कहानी लौटते हुए हेा या आशिया-ना सबका मुख्य बिंदु प्रेम की उहापोह ही है। 'आशिया-ना' प्रेम में बिना विवाह किए सहजीवन में रहने से नये जोड़ों के सामने आई समस्याओं को लेकर बुनी गयी कहानी है। कि सहजीवन की परेशानियां प्रेमियों को दर-बदर करती हैं पर आशा है कि दूर के तारे की तरह टिमटिमाती रहती है।
पंखुरी सिन्हा के यहां जीवन जगत का आकलन है तो कविता के यहां प्रेमियों के मनोजगत की छानबीन। यथार्थ भी जहां तहां पांव पसारता है पर एक उधेड़बुन चलती रहती है। कविता की कहानियां प्रेम पर एक जिरह छेड़ती हैं , एक अनंत जिरह। 'जिरह:एक प्रेमकथा' का एक पात्र जिरह करता कहता है - दरअसल कहानी और जिन्दगी दो अलग-अलग चीजें हैं, दो अलग-अलग धरातल हैं । मैं चाहता हूं कि उनके बीच का यह फेंस टूटे। शायद कविता आगे अपनी कहानियों में यह फेंस तोड़ सकें।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 25 मार्च 2017 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!