आपबीती को पढकर यह जाहिर होता है कि फैज का जीवन सहज नहीं था। उन्होंने जिंदगी में काफी उठा-पटक देखी थी। उनके पिता उन्हें बताया करते थे कि बचपन में वे चरवाहे थे फिर आगे वे जिंदगी की चढान चढते गए और कैंब्रिज में पढाई आदि की और अंग्रेजों के वफादार हो गये थे और शान की जिंदगी बितायी थी। पिता को याद करते फैज एक जगह लिखते हैं कि उनका नाम सुल्तान था और मैं यह कह सकता हूं कि मेरे पिता राजा थे। पर विडंबना यह रही कि मरते समय तक उनके पिता ने अपनी सारी संपत्ति मौज-मस्ती में गंवा दी थी और विरासत में फैज के लिए संघर्ष छोड गये थे। फैज लिखते हैं कि जब पिता गुजरे तो घर में खाने तक को कुछ नहीं था।
1941 द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनका पहला कविता संकलन आया था जो खूब बिका था। पर युद्ध के बढने पर फैज ने फौज ज्वायन कर लिया। उस समय तक उनमें वामपंथी रूझान पैदा हो चुकी थी और उन पर फौज में शक किया जाता था। युद्ध की समाप्ति पर उन्होंने खुद फौज से अलग कर लिया। आगे 1947 में वे पाकिस्तान टाइम्स के संपादक हुए और चार साल संपादकी की। इसी समय अपने एक फौजी मित्र जनरल अकबर खान के साथ मिलकर सरकार पलटने के षडयंत्र में उन्हें जेल हुयी। जेल में पढने-लिखने का काफी वक्त होने के चलते उनकी कलम वहां लगातार चलती रही।
यह सब पढते जाहिर होता है कि फैज में जिंदगी को जीने का दुर्निवार जज्बा था जो जेल के कमरों को भी अध्ययन कक्ष में बदल देता था। ऐसी मिसालें हमारे यहां पं. नेहरू, गांधी आदि ने भी दी हैं जिन्होंने जेल में रह कर काफी कुछ पढा लिखा।
अपनी शरीफाना बनावट का श्रेय फैज महिलाओं को देते हैं जिनकी सोहबत में वे आम उज्जडपन से बचे रहे। फैज के पारिवारिक मित्र आफताब अहमद लिखते हैं – वो किसी से कोई कडवी या सख्त बात नहीं करते थे। शायद इसीलिए जीवन की कठिनइयों को वे अपने ढंग से झेल सके। जब उन्हें सरकार पलटने के इलजाम में जेल हुयी तो कुछ अखबारों ने उन्हें लेकर गद्दार विशेषांक तक निकाला। उस समय फैज ने लिखा –
जो हम पे गुजरी सो गुजरी, मगर शबे हिज्रां
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले।
फैज की नाजुकमिजाजी की बाबत उनके साथ जेल में चार साल गुजार चुके साथी मेजर मुहम्मद इश्हाक लिखते हैं - ...यूं ही किसी ने त्योरी चढा रखी हो, उनकी तबीयत जरूरत खराब हो जाती है, और इसके साथ ही शायरी की कैफियत काफूर हो जाती है।
किताब फैज से जुडे कई निजी प्रसंग को सामने लाती है, जैसे कि वे छिपकलियों से बहुत घिनाते थे और आस पास दिख जाने पर बिछावन पर सो नहीं पाते थे। पाकिस्तान के फौजी शासन के समय जब वहां तमाम हिंदुस्ताने से जुडे रचनाकारों को पढने पर पाबंदी लगा दी गयी थी और रेडियो से बस इकबाल की रचनाओं का प्रसारण होता था तब फैज हिंदुस्तान रेडियों से अमीर खुसरो, फैयाज खां आदि को सुना करते थे।
पुस्तक के दूसरे खंड में फैज की खतो-किताबत और बातचीत को संकलित किया गया है। जिसमें नूर जहीर और जहूर सिद्दीकी ने फैज और एलिस के खतों को सामने रखा है। इसके अलावे इब्बार रब्बी , नईम अहमद आदि से फैज की बातचीत भी इसमें शामिल है। कुल मिलाकर यह पुस्तक फैज को समझने में काफी हद तक मददगार साबित होती है।
पुस्तक – फैज की शख्सियत: अंधेरे में सुर्ख लौ
संपादन – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज
प्रकाशक – राजकमल
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