कविता, कहानी, आलोचना

कुमार मुकुल के नोट्स

कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

पुट्ठों तक मार खाई गाय की घृणा - कुमार मुकुल

विजयकांत की कहानियों से गुजरते स्मृति में पिछले वर्षों सहरसा कमिश्नरी में दुर्गा पूजा के अवसर पर घोड़े दौडाते मररों की याद कौंध जाती है। दौड़ आज भी जारी है, हर हर महादेव के नारे लगाते वह घुड़सवार सहरसा की गलियां रौंद डालते थे, फिर तेल पिलाई देह वाले यह बैठक बाज कुश्ती लड़ते थे। फिर आपस में ही इनामों का बंटवारा कर कोशी के कछारों में भाल- संभाल को वापिस हो जाते थे। सब जानते होते कि यह बांध के भीतर के खगड़िया- पूर्णिया- सहरसा जिलों के डकैत हैं। प्रशासन हर बार दंगे आदि की आशंका से इस दौड़ पर पाबंदी की तैयारी करता पर सब व्यर्थ जाता। यह शक्ति प्रदर्शन इसलिए होता कि वहां के दबंग मरर नेता की जमीन सहित मंदिर और आसपास की मेले की जमीन एक दलित हिंदू की जमीन दखल कर प्राप्त की गई थी।
विजयकांत की कहानियां कोसी के कछारों के इन्हीं खूंरेजी से भरे क्षेत्रों की पीड़ा और तडप से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। अविश्वसनीयता की हद तक पहुंची ये क्रूरताएं आज भी वहां की पिछड़ी जनता की दैनिकी है
प्रेमचंद ने किसानों के आम जीवन के संघर्ष को अपनी कहानियों में उतारा था पर आम और खास के अलावे किसी भी गिनती में ना आने वाली अंधेरी परती जमीन की कथा को पहली बार रेणु ने उद्घाटित किया था और सभी चौके थे कि यह परती थी कहां। विजयकांत समर्थ ढंग से परती की परतें हैं दरकाते हैं और परीकथा के तिलिस्म को बेध यथार्थ की छिपी तहों को उपर लाते हैं, उसे एक गढाव, धार और दिशा देते हैं। वे माखुन भगत को कोसी पार पहुंचा कर दम लेते हैं।
' ब्रह्मफांस की कहानियों के पात्र एक समग्र चरित्र हैं, वर्गों के द्वंद्व  को उसकी सांद्रता में उद्घाटित करते हुए। कथा में पात्र की छोटी-छोटी हरकतों को भी कथाकार भाषा के बारीक धागों में कातता जाता है पर ऐसा करते कभी वह अराजक ढंग से समाज और व्यवस्था से पात्र के बहुआयामी संबंधों को किनारा करने की कोशिश नहीं करता। यहां संतुलन ऐसा है जैसे हम किसी कठिन कथा को फिल्माते देख रहे हों।
बान्ह, माखुन भगत, ब्रह्मफांस और जाग संग्रह की प्रमुख कथाएं हैं। बान्ह मतलब बंधक या गिरवी से है। सवर्ण व्यवस्था में किस तरह एक दलित अपनी आत्मा को बंधक रख देता है और कैसे आत्महत्या और संघर्ष में संघर्ष को चुनता है। यही इस कथा का केंद्र है। किस तरह सवर्णों की अपसंस्कृति सवर्णों से इतर जातियों का सपना बन गई है। इसे भी कथा सूक्षमतापूर्वक उजागर करती है। यह प्रवृत्ति आज की राजनीति में भी घटित होते दिखती है। पिछले वर्षों में तमाम राज्यों में सवर्णों से इतर जातियों का कब्जा सत्ता पर हुआ और सवर्णों का रंग ढंग अपनाकर वे अपनी पकड़ खोते चले गए। आखिर जिस राह चलकर सवर्णों ने 45 वर्षों बाद सत्ता खो दी, उन्हें मूल्य बनाकर पिछड़े कितनी दूर जा सकते थे। 
बान्ह के  सनीफ मियां जमीन का आखिरी टुकड़ा उदरस्थ करने की कोशिश जब धनेसर मिसिर करता है तो सनीफ की मूल चिंता जमीन का टुकड़ा बचाना नहीं अपने बिरादरी के मुखिया भोजू मियां की इज्जत बचाने होती है। धनेसर भी इसी इज्जत की आन जगा उसे लूटता है। वह बोलता है - " बनो मत मौलाना "  पंजे की तरह लहराई मिसिर की आंखें " हजार रुपए तो यों झाड़ दो तुम फेंटे से।" और आन में अंधा सनीफ मिसिर की आंखें नहीं देख पाता और जमीन का आखरी टुकड़ा भी बंधक चढ़ा देता है। आन का यह अंधापन उसे अपने हमवर्ग की शक्ल भी पहचानने से रोकता है। जब याकूब कहता है - " मजाक आप खुद कर रहे अपने साथ ? जानते न थे धनेसर मिसिर को ? जान - बूझकर फांसी डाल ली तो अब चीखते क्यों हैं ?" तब तिलमिला कर चीखते हैं सनीफ मियां - " मुझसे जुबान लडाता है ? खानदान के लिए फांसी मैं न चढ़ूंगा तो क्या तू अपनी गर्दन बढ़ाएगा कमीने !  मेरे साथ ही मिट जाएगी भेाजू मियां की आबरू !  पता है मुझे ! तू तो धब्बा है, धब्बा। बेहूदा और बदशकुन धब्बा। नीचों ने तेरी मती मार दी।" और लूट की जमीन छुड़ाने में वहीं याकूब जब मददगार साबित होता है तब भी सनी़फ की भाषा उन्हीं पुरखों का शरण लेती है - " कैसा बताह छौंडा है ! अभी मार रहा था और अब कुर्बान होने आ गया है ... आखिर है तो भॊजू मियां की नस्ल।
सनीफ की आंख तब खुलती है जब धनेसर मिसिर उसके कटोरे में डाला गया निवाला उसकी नरेटी में हाथ डाल निकालने लगता है और जब उसकी इज्जत लुट जाती है। खोने को प्राणों के सिवा शेष नहीं होता कुछ तब पुट्ठों तक मार खायी गाय की घृणा लौटती है और लठैतों से पिटता सनीफ उछलकर धनेसर की गर्दन पकड़ लेता है और ऐंठता चला जाता है। 
बाकी तीनों कथाओं में भी जमीन की आखिरी लड़ाई केंद्र में है। हालांकि चारों कथाओं के पात्रों में पेशागत भिन्नता है। " बान्ह "  में कुछ बीघे का जोरदार सनीफ मियां है तो " बलैत माखुन भगत " में मंदिर में पशुओं की बलि देने वाला भगत है, " ब्रह्मफांस " में संपेरा रगन उस्ताद है तो " जाग " में नौटंकी पार्टी का सुरखी मास्टर। सब की लड़ाई अस्तित्व की आखिरी लड़ाई है जिसमें अपना सब कुछ खोने की कीमत पर व्यक्ति के भीतर से संघर्ष का चेहरा उभरता है जो विकसित होकर सामाजिक संघर्ष का पर्याय हो जाता है।
संग्रह की शीर्षक कहानी " ब्रह्मफांस " में सामंती चरित्रों की निर्धनों, बंजारों के जीवन से खेलने की अमानवीय वृत्ति को दर्शाया गया है। इनमें वे निर्धनों को निर्धनों के ही विरुद्ध चारा की तरह इस्तेमाल करते हैं। रगन सपेरे को जब अपने करतबों के लिए कृपण दादा ठाकुर से भारी इनाम का लोभ मिलता है तो उसकी पत्नी सज्जो उसे समझाती है - " डर, बड़हन के बेमालूम राग से डर।"  पर रगन चाल में आ ही जाता है। और उसका उपयोग पड़ोस की जमीन में बने बिसो शाह के मिट्टी के घरों को सांप निकलवाने के बहाने ढहाने में किया जाता है। आजीवन विषैले सर्पों को साधने वाले रगन उस्ताद के पास दादा ठाकुर के जहर की कोई काट नहीं, तभी तो वह बोलता है - " बिखबल का मद है वरना इस बेसउरे, निकम्मे को तो ठौर नहीं मिलता।" अंत में पसीने से गुंथे अपने मिट्टी के घरों को ढहते देख बिसो साह रगन उस्ताद पर ही पिल पड़ता है और बेचारे रगन को अपना इनाम तो क्या मिलता अपना डेरा डंडा सब छोड़ भागना पड़ता है। यही है नाग फंसेत रगन को ब्रह्मफांस में फंसाने की कहानी।
" ब्रह्मफांस " में विजयकांत की भाषा और शिल्प अपने चरम पर है। संवादों का आरोह - अवरोह और गढ़ाव ऐसा है मानो भंवर की उठती - गिरती लहरों को जमा दिया गया हो। क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा को बचाकर उसका स्वभाषा में उपयोग और स्थानीय मुहावरों का चित्रात्मक ढंग से उपयोग विजयकांत को एक विशिष्ट और जुदा पहचान देता है।
विजयकांत की प्रचलित कहानी " बलैत माखुन भगत " में पात्र के पूरे जीवन को ही सलीके से समेटा गया है। जिसमें अंधविश्वास का कुहासा और उसे फाड़ती अस्तित्व की लड़ाई और जीवन का राग विराग सब अपने अपने चरम स्वरूप में हैं। कंगन भरी कलाइयों, नथनी जड़े नाक, झूमर भरे कानों का मंदिर में पंडित भैरव ठाकुर, सामंत बब्बन मरर और देवी मैया के बीच बंटवारा हमारे जनतंत्र में जैसे दूसरी दुनिया की कहानियां लगती हैं पर आज भी कोसी के भीतर के इलाकों में जहां सड़कें कोसी की मार सह नहीं पातीं, घोड़े दौड़ा मररों के चरित्र निर्मूल नहीं हुए हैं। चार-पच वर्ष पूर्व की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, जिसमें ट्रेन के कई डिब्बे कोसी के गर्भ में समा गए थे, से बचे हुए मरे - अधमरे लोगों का आसपास के इलाके के लोगों द्वारा अमानवीय ढंग से लूट लिए जाने की घटना दूर की बात नहीं है। घुड़सवारों द्वारा इन इलाकों में आए दिन होती ट्रेन डकैतियां भी विजयकांत की कहानियों के नजर आते थे तिलस्म का हिस्सा हैं। 
सुपौलीचक जगतारणी जगदंबा के नाम सारी भूमि लिखकर बबन मरर कोशी पार के भूमि संघर्ष की हवा को लौटा देता है। पर उसी जगदंबा के समक्ष पशुओं की बलि देने वाले माखुन भगत के पुत्र और पत्नी लखिया की जब देवी के पुजारी बलि चढ़ा देते हैं तब बचपन से बलि का बकरा बने माखुन के दैवी विश्वास की पगही टूट जाती है और जड़ देवी के प्रति उसकी भाषा विवर्ण हो जाती है - " लखी को याद करता वह कहता है - " देख, मैं कैसा बदला लेता हूं तेरी दुर्गति का, कैसा अंत करता हूं जगदंबा और उसके भडुए भैरों ठाकुर का! जंगल में अधमरा कर फेंक दिये गए पुत्र को जब बाघ खा जाता है तो पगली होकर देवी की सवारी प्रचारित बाघ के सामने मरने जा पहुंची लखिया की भक्ति भी काफूर हो जाती है और वह बोलती है - " अरे भवानी, तू मैया नहीं पतुरिया है बांझ पटुरिया ! ... आखिर पानी सर से ऊपर आता है और पशुओं की बलि देता माखुन भगत पंडित और मरर की बलि चढ़ा जगदंबा की मूर्ति ढाह भागकर कोसी पार के संघर्ष में शामिल हो जाता है। 
संग्रह की अंतिम कहानी है " जाग "। इसकी तुलना रेणु की कहानी " मारे गए गुलफाम " से की जा सकती है। रेणु की कहानी में जहां एक रूमानी पृष्ठभूमि में गांधीवादी आदर्श है वहां जाग में एकता और जागरण है। रेनू के हिरामन और हीराबाई एक बेबस चरित्र हैं। वे अपने संघर्ष और अकांक्षा की दिशा मोड़ कर अंतर्मुखी रोमानीपन में डुबो देते हैं पर जाग का सुरखी मास्टर और राधा अपनी अकांक्षा को अपने अस्तित्व की लड़ाई से जोड़ते हैं, उसके लिए लड़ते हैं, अंतिम सांस तक।  अंत में जनता भी उनके साथ हो जाती है। " मारे गए गुलफाम " में दुख में डूबा हिरामन कहता है -" हर रात किसी न किसी के मुंह से सुनता है वह, हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह।" विदा होते वक्त हीराबाई कहती है -" तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है, क्यों मीता ? महुआ  घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी!" यहां हिरामन का दुख है कि किस से लड़े वह और हीराबाई बिक जाती है। वही जाग में राधा चीखती है -" मैं अर्टिस्ट बनना चाहती हूं मास्टर दुनिया मुझे रंड बनाने पर तुली है।" और मास्टर सुरखी चीखता है -" ना आ... कोई ताकत नहीं जो तुझे रंडी बना सकती।" "चींथ डालूंगा मदन तुझे चबा जाऊंगा, जो हाथ लगाया उसे ...।" यहां संबोधनों में भी अंतर है। रेणु के यहां हीराबाई है जबकि जाग में राधा सिर्फ राधा है। उसे भी बाई बनाया जा सकता था पर यहां कथाकार अपने संघर्ष के प्रति सजग है, भाषा के स्तर पर भी। अंत में जाग के दर्शक भी पात्रों के संघर्ष में शामिल हो जाते हैं। " हजारों के लब खुल गए और लफ़्ज़ मुट्ठी की तरह बस्ती के आसमान पर टंग गया है -" आजादी! मदना! तेरे काबिज़ से आजादी! और वे चल पड़े!" 
इनके अलावा संग्रह में " राह " और " कोई महफूज नहीं " दो कहानियां हैं जिनमें हिंदू मुस्लिम, सिख दंगों की दरिंदगी और उससे निपटते जुम्मन मियां और तिलेसर की कहानियां हैं। क्रूर दंगाइयों से वृद्ध जुम्मन मियां अकेले लड़ते हैं और उनकी शहादत से दंगाइयों में कई का हृदय परिवर्तन होता है। दंगे जैसी विडंबना से निपटने की शायद यही एक राह बच जाती है। इसी राह का अनुसरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे।
विजयकांत की कहानियों की बड़ी ताकत संकरी राहों में चुस्त हरकत करती उनकी भाषा है। एक पकठाई भाषा जो अपने गट्ठिल हाथों हमारे घुटनों में जा छिपे विवेक को बाहर खींच लाना चाहती है - खींच लाती है।






प्रस्तुतकर्ता कुमार मुकुल पर 10:29 am
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लेबल: कुमार मुकुल, ब्रह्मफांस, विजयकांत

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देश और उनके झंडे


आत्मवक्तव्य - कुमार मुकुल

हम हैं , इसी से कविता है / यह हमारे होने का प्रमाण है / कविता मैं से / तुम या वह होने की छटपटाहट है /... यह सिखलाती है / कि नियॉन लाइट्स की रौशनी / हमारे अंतर का अंधकार / दूर नहीं कर सकती /कि ध्वनि या प्रकाश के वेग से /दौड़ें हम /धरती लंबी नहीं होने को /... यह बंदूक की नली से /भेड़िए और मेमने का फर्क करना / सिखलाती है /कविता /तय करती है कि कब / चूल्हे में जलती लकड़ी को /मशाल की शक्ल में थाम लिया जाए / या अन्य ढेर सारी गांठें / जिन्हें कोई नहीं खोलता / कविता खोलती है /जहां कहीं गति है / वहीं जीवन है / और कविता भी।.....सभ्यता और जीवन -1987....

करीब चौबीस-पच्चीस साल पहले कविता को इसी तरह परिभाषित किया था मैंने, और आज भी कविता के मायने बदले नहीं हैं मेरे लिए। किशोर से युवा होने के क्रम में हर व्यक्ति के जीवन में वह समय आता है जब वह चाहता है कि वह नहीं उसकी बात बोले, उसका एक जुदा अंदाजे बंया हो। यहीं से कविता की शुरूआत होती है। अपनी एक निजी पहचान और उसे जन-जन से जोड़कर व्यापक विस्तार देने की ईच्छा से ही कविता का जन्म होता है। पर यह ईच्छा कितनी मजबूत है और क्या आखीर तक इसे कायम रखा जा सकता है, इसी पर एक कवि होने की बुनियाद होती है। कोई बात जब मन को छू जाती है तो लोग कहते हैं - वाह, क्या बात कहीं है...। तो यह अच्छी लगने वाली बतकही ही कविता है। कविता एक फार्म है, बातों के लिए। मूल है बात, जो आपने कही है। उसके संदर्भ जीवन-जगत से कितने जुड़े हैं वही आपकी बात को एक अर्थ और गरिमा प्रदान करते हैं।

विचार, आत्मीयता, कह पाने का साहस, युगबोध, वैज्ञानिकता और इन्हें उनकी द्वंद्वात्मकता और विडंबना के साथ चित्रित कर पाने का विवेक ही एक कवि को उसके समय के पार जानेवाली प्रासंगिकता प्रदान करते हैं। जहां तक राजनीतिक होने की बात है, मेरी हर सांस मेरे जीवित रहने की राजनीति करती है। मेरी अधिकांश कविताएं राजनीतिक हैं। यहां तक कि प्रेम और प्रकृति से संबंधित कविताएं भी। मेरी कविता धूमिल के तीसरे आदमी के खिलाफ और गांधी के अंतिम आदमी की पक्षधर है। वह नेरूदा की तरह तथाकथित भले लोगों को चेतावनी और विचार का एक मौका हमेशा देना चाहती है। वह ब्रेष्ट की तरह जनरलों को उनके मजबूत टैंकों के नुक्स बता देना चाहती है। वह पाश की तरह प्यार करने और जीने पर ईमान ले आने को एक ही मानती है। उसने सुकान्त भट्टाचार्य की तरह हवा का हाथ देखा है। इनके अलावा मेरे प्रिय कवियों में रिल्के, पास्तरनाक, मरीना स्वेतायेवा, टैगोर, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि हैं और वॉन गॉग, रूसो, सार्त्र-सीमोन और प्रेमचंद का जीवन मुझे आकर्षित करता है।

Mukuls poetic expressions

Mukuls poetic expressions

समकालीन कविता

कुमार मुकुल ने विष्णु खरे पर विचार करते हुए मुक्त‍िबोध, रघुवीर सहाय, आदि के जिस फर्क को रेखांकित किया है, वह विचारणीय है। ... निर्णय सुनाने के बजाय अगर वे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो उनका गद्य और महत्वपूर्ण बनेगा - राजेश जोशी, समकालीन कविता, 2005

कुमार मुकुल की समीक्षा पठनीय लगी। इधर समीक्षा पढना अरुचि ही उपजाता रहा है - पढना ही बंद कर दिया है। वही घि‍सी पिटी बातें और दावे जो किसी पर भी चस्पां किए जा सकते हैं, जिस पर लिखा जा रहा है, उसे यथातथ्य पढने की अक्षमता। इस समीक्षा को पढना सुखद आश्चर्य था कि कविता को कैसे पढना, क्यों पढना यह उसे आता है और अपने पढे हुए से पढने के दूसरे अनुभवों से, इस पढने को जोडना भी सार्थक ढंग से। अलग बात है कि 'क्या' ? उससे हम सहमत हों, न हों- दोनों ही हालात में समीक्षक की तैयारी पर, खरेपन पर शक नहीं होता - रमेशचन्द्र शाह, समकालीन कविता, 2005


अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं - सुधीर सुमन

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एक पत्र

प्रिय कुमार मुकुल जी,
आपकी आलोचना पुस्तक की पांडुलिपि लौटा रहा हूं। आपने इसे पढने का अवसर मुझे दिया यह मेरी खुशकिस्मती है। मुझे लगता है कि जब यह पुस्तक रूप में आयेगी तो हिंदी संसार में व्यापक स्तर पर इसका स्वागत होगा। दलबद्धता या शिविरबद्धता से दूर, मुक्त हृदय और पैनी दृष्टि से कवि के संसार में उतरने का यह सामर्थ्य किसी को भी प्रभावित करेगा। एक गहरी अन्तदृष्टि की बिना पर आप बिना लाग-लपेट बडी तीक्ष्णता और स्पष्टता के साथ अपनी बात कहते हैं और यह आलोचना का साहस है। इस साहस में एक गहरी सहृदयता भी मुझे दिखाई दे रही है। हमलोग एक ऐसे दौर में हैं जब वरिष्ठों के भी कथन की विश्वसनीयता आज संदिग्ध हुई है लेकिन इस बुरे समय में अच्छी आलोचना के गुण ही हमारे सारे लिखने-पढने के कार्य को एक सार्थकता दे सकते हैं। मुझे आपकी इस आलोचना पुस्तक को पढते हुए सचमुच आनंद आया है। आप मित्र हैं इसलिए यह नहीं कह रहा हूं। ( साहित्य में यूं भी मित्रताओं का यह बहुत विश्वसनीय समय नहीं रह गया है। गणित ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं।) आपको पुनः एक बार बधाई। इसे जल्दी से जल्दी किसी अच्छे प्रकाशक से छपवा लें ताकि यह आम पाठकों तक भी सही तरीके से पहुंच जाये। आशा है आप सानंद होंगे।
आपका
विजय कुमार 26: 6: 2007

अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता की समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है - प्रकाश

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