विजयकांत की कहानियों से गुजरते स्मृति में पिछले वर्षों सहरसा कमिश्नरी में दुर्गा पूजा के अवसर पर घोड़े
दौडाते मररों की याद कौंध जाती है
। दौ
ड़ आज भी जारी है
, हर हर महादेव के नारे लगाते वह घुड़सवार सहरसा की गलियां रौंद डालते थे
, फिर तेल पिलाई देह वाले यह बैठक बाज कुश्ती लड़ते थे
। फिर आपस में ही
इनामों का बंटवारा कर
कोशी के कछारों में भाल
- संभाल को वापिस हो जाते थे
। सब जानते होते कि यह बांध के भीतर के खगड़िया
- पूर्णिया
- सहरसा जिलों के डकैत हैं
। प्रशासन हर बार दंगे आदि की आशंका से इस दौ
ड़ पर पाबंदी की तैयारी करता पर सब व्यर्थ जाता
। यह शक्ति प्रदर्शन इसलिए होता कि वहां के दबंग मर
र नेता की जमीन सहित मंदिर और आसपास की मेले की जमीन एक दलित हिंदू की जमीन दखल कर प्राप्त की गई थी
।
विजयकांत की कहानियां कोसी के कछारों के इन्हीं खूंरेजी से भरे क्षेत्रों की पीड़ा और तडप से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। अविश्वसनीयता की हद तक पहुंची ये
क्रूरताएं आज भी वहां की पिछड़ी जनता की दैनिकी है
प्रेमचंद ने किसानों के आम जीवन के संघर्ष को अपनी कहानियों में उतारा था पर आम और खास के अलावे किसी भी गिनती में ना आने वाली अंधेरी परती जमीन की कथा को पहली बार रेणु ने उद्घाटित किया था और सभी चौके थे कि यह परती थी कहां। विजयकांत समर्थ ढंग से परती की परतें हैं दरकाते हैं और परीकथा के तिलिस्म को बेध यथार्थ की छिपी तहों को उपर लाते हैं, उसे एक गढाव, धार और दिशा देते हैं। वे माखुन भगत को कोसी पार पहुंचा कर दम लेते हैं।
'
ब्रह्मफांस की कहानियों के पात्र एक समग्र चरित्र हैं, वर्गों के द्वंद्व
को उसकी सांद्रता में उद्घाटित करते हुए। कथा में पात्र की छोटी-छोटी
हरकतों को भी कथाकार भाषा के बारीक धागों में कातता जाता है पर ऐसा करते
कभी वह अराजक ढंग से समाज और व्यवस्था से पात्र के बहुआयामी संबंधों को
किनारा करने की कोशिश नहीं करता। यहां संतुलन ऐसा है जैसे हम किसी कठिन कथा
को फिल्माते देख रहे हों।
बान्ह, माखुन भगत,
ब्रह्मफांस और जाग संग्रह की प्रमुख कथाएं हैं। बान्ह मतलब बंधक या गिरवी
से है। सवर्ण व्यवस्था में किस तरह एक दलित अपनी आत्मा को बंधक रख देता है
और कैसे आत्महत्या और संघर्ष में संघर्ष को चुनता है। यही इस कथा का केंद्र
है। किस तरह सवर्णों की अपसंस्कृति सवर्णों से इतर जातियों का सपना बन गई
है। इसे भी कथा सूक्षमतापूर्वक उजागर करती है। यह प्रवृत्ति आज की राजनीति
में भी घटित होते दिखती है। पिछले वर्षों में तमाम राज्यों में सवर्णों से
इतर जातियों का कब्जा सत्ता पर हुआ और सवर्णों का रंग ढंग अपनाकर वे अपनी
पकड़ खोते चले गए। आखिर जिस राह चलकर सवर्णों ने 45 वर्षों बाद सत्ता खो
दी, उन्हें मूल्य बनाकर पिछड़े कितनी दूर जा सकते थे।
बान्ह के
सनीफ मियां जमीन का आखिरी टुकड़ा उदरस्थ करने की कोशिश जब धनेसर मिसिर
करता है तो सनीफ की मूल चिंता जमीन का टुकड़ा बचाना नहीं अपने बिरादरी के
मुखिया भोजू मियां की इज्जत बचाने होती है। धनेसर भी इसी इज्जत की आन जगा
उसे लूटता है। वह बोलता है - " बनो मत मौलाना " पंजे की तरह लहराई मिसिर
की आंखें " हजार रुपए तो यों झाड़ दो तुम फेंटे से।" और आन में अंधा सनीफ
मिसिर की आंखें नहीं देख पाता और जमीन का आखरी टुकड़ा भी बंधक चढ़ा देता
है। आन का यह अंधापन उसे अपने हमवर्ग की शक्ल भी पहचानने से रोकता है। जब
याकूब कहता है - " मजाक आप खुद कर रहे अपने साथ ? जानते न थे धनेसर मिसिर
को ? जान - बूझकर फांसी डाल ली तो अब चीखते क्यों हैं ?" तब तिलमिला कर
चीखते हैं सनीफ मियां - " मुझसे जुबान लडाता है ? खानदान के लिए फांसी मैं न
चढ़ूंगा तो क्या तू अपनी गर्दन बढ़ाएगा कमीने ! मेरे साथ ही मिट जाएगी
भेाजू मियां की आबरू ! पता है मुझे ! तू तो धब्बा है, धब्बा। बेहूदा और
बदशकुन धब्बा। नीचों ने तेरी मती मार दी।" और लूट की जमीन छुड़ाने में वहीं
याकूब जब मददगार साबित होता है तब भी सनी़फ की भाषा उन्हीं पुरखों का शरण
लेती है - " कैसा बताह छौंडा है ! अभी मार रहा था और अब कुर्बान होने आ गया
है ... आखिर है तो भॊजू मियां की नस्ल।
सनीफ
की आंख तब खुलती है जब धनेसर मिसिर उसके कटोरे में डाला गया निवाला उसकी
नरेटी में हाथ डाल निकालने लगता है और जब उसकी इज्जत लुट जाती है। खोने को
प्राणों के सिवा शेष नहीं होता कुछ तब पुट्ठों तक मार खायी गाय की घृणा
लौटती है और लठैतों से पिटता सनीफ उछलकर धनेसर की गर्दन पकड़ लेता है और
ऐंठता चला जाता है।
बाकी तीनों कथाओं में भी जमीन की
आखिरी लड़ाई केंद्र में है। हालांकि चारों कथाओं के पात्रों में पेशागत
भिन्नता है। " बान्ह " में कुछ बीघे का जोरदार सनीफ मियां है तो " बलैत
माखुन भगत " में मंदिर में पशुओं की बलि देने वाला भगत है, " ब्रह्मफांस "
में संपेरा रगन उस्ताद है तो " जाग " में नौटंकी पार्टी का सुरखी मास्टर।
सब की लड़ाई अस्तित्व की आखिरी लड़ाई है जिसमें अपना सब कुछ खोने की कीमत
पर व्यक्ति के भीतर से संघर्ष का चेहरा उभरता है जो विकसित होकर सामाजिक
संघर्ष का पर्याय हो जाता है।
संग्रह की शीर्षक कहानी
" ब्रह्मफांस " में सामंती चरित्रों की निर्धनों, बंजारों के जीवन से
खेलने की अमानवीय वृत्ति को दर्शाया गया है। इनमें वे निर्धनों को निर्धनों
के ही विरुद्ध चारा की तरह इस्तेमाल करते हैं। रगन सपेरे को जब अपने
करतबों के लिए कृपण दादा ठाकुर से भारी इनाम का लोभ मिलता है तो उसकी पत्नी
सज्जो उसे समझाती है - " डर, बड़हन के बेमालूम राग से डर।" पर रगन चाल
में आ ही जाता है। और उसका उपयोग पड़ोस की जमीन में बने बिसो शाह के मिट्टी
के घरों को सांप निकलवाने के बहाने ढहाने में किया जाता है। आजीवन विषैले
सर्पों को साधने वाले रगन उस्ताद के पास दादा ठाकुर के जहर की कोई काट
नहीं, तभी तो वह बोलता है - " बिखबल का मद है वरना इस बेसउरे, निकम्मे को
तो ठौर नहीं मिलता।" अंत में पसीने से गुंथे अपने मिट्टी के घरों को ढहते
देख बिसो साह रगन उस्ताद पर ही पिल पड़ता है और बेचारे रगन को अपना इनाम तो
क्या मिलता अपना डेरा डंडा सब छोड़ भागना पड़ता है। यही है नाग फंसेत रगन
को ब्रह्मफांस में फंसाने की कहानी।
"
ब्रह्मफांस " में विजयकांत की भाषा और शिल्प अपने चरम पर है। संवादों का
आरोह - अवरोह और गढ़ाव ऐसा है मानो भंवर की उठती - गिरती लहरों को जमा दिया
गया हो। क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा को बचाकर उसका स्वभाषा में उपयोग और
स्थानीय मुहावरों का चित्रात्मक ढंग से उपयोग विजयकांत को एक विशिष्ट और
जुदा पहचान देता है।
विजयकांत की प्रचलित कहानी "
बलैत माखुन भगत " में पात्र के पूरे जीवन को ही सलीके से समेटा गया है।
जिसमें अंधविश्वास का कुहासा और उसे फाड़ती अस्तित्व की लड़ाई और जीवन का
राग विराग सब अपने अपने चरम स्वरूप में हैं। कंगन भरी कलाइयों, नथनी जड़े
नाक, झूमर भरे कानों का मंदिर में पंडित भैरव ठाकुर, सामंत बब्बन मरर और
देवी मैया के बीच बंटवारा हमारे जनतंत्र में जैसे दूसरी दुनिया की कहानियां
लगती हैं पर आज भी कोसी के भीतर के इलाकों में जहां सड़कें कोसी की मार सह
नहीं पातीं, घोड़े दौड़ा मररों के चरित्र निर्मूल नहीं हुए हैं। चार-पच
वर्ष पूर्व की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, जिसमें ट्रेन के कई डिब्बे कोसी के
गर्भ में समा गए थे, से बचे हुए मरे - अधमरे लोगों का आसपास के इलाके के
लोगों द्वारा अमानवीय ढंग से लूट लिए जाने की घटना दूर की बात नहीं है।
घुड़सवारों द्वारा इन इलाकों में आए दिन होती ट्रेन डकैतियां भी विजयकांत
की कहानियों के नजर आते थे तिलस्म का हिस्सा हैं।
सुपौलीचक
जगतारणी जगदंबा के नाम सारी भूमि लिखकर बबन मरर कोशी पार के भूमि संघर्ष
की हवा को लौटा देता है। पर उसी जगदंबा के समक्ष पशुओं की बलि देने वाले
माखुन भगत के पुत्र और पत्नी लखिया की जब देवी के पुजारी बलि चढ़ा देते हैं
तब बचपन से बलि का बकरा बने माखुन के दैवी विश्वास की पगही टूट जाती है और
जड़ देवी के प्रति उसकी भाषा विवर्ण हो जाती है - " लखी को याद करता वह
कहता है - " देख, मैं कैसा बदला लेता हूं तेरी दुर्गति का, कैसा अंत करता
हूं जगदंबा और उसके भडुए भैरों ठाकुर का! जंगल में अधमरा कर फेंक दिये गए
पुत्र को जब बाघ खा जाता है तो पगली होकर देवी की सवारी प्रचारित बाघ के
सामने मरने जा पहुंची लखिया की भक्ति भी काफूर हो जाती है और वह बोलती है -
" अरे भवानी, तू मैया नहीं पतुरिया है बांझ पटुरिया ! ... आखिर पानी सर से
ऊपर आता है और पशुओं की बलि देता माखुन भगत पंडित और मरर की बलि चढ़ा
जगदंबा की मूर्ति ढाह भागकर कोसी पार के संघर्ष में शामिल हो जाता है।
संग्रह
की अंतिम कहानी है " जाग "। इसकी तुलना रेणु की कहानी " मारे गए गुलफाम "
से की जा सकती है। रेणु की कहानी में जहां एक रूमानी पृष्ठभूमि में
गांधीवादी आदर्श है वहां जाग में एकता और जागरण है। रेनू के हिरामन और
हीराबाई एक बेबस चरित्र हैं। वे अपने संघर्ष और अकांक्षा की दिशा मोड़ कर
अंतर्मुखी रोमानीपन में डुबो देते हैं पर जाग का सुरखी मास्टर और राधा अपनी
अकांक्षा को अपने अस्तित्व की लड़ाई से जोड़ते हैं, उसके लिए लड़ते हैं,
अंतिम सांस तक। अंत में जनता भी उनके साथ हो जाती है। " मारे गए गुलफाम "
में दुख में डूबा हिरामन कहता है -" हर रात किसी न किसी के मुंह से सुनता
है वह, हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह।" विदा होते वक्त हीराबाई
कहती है -" तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है, क्यों मीता ? महुआ घटवारिन
को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी!" यहां हिरामन का दुख है कि किस से
लड़े वह और हीराबाई बिक जाती है। वही जाग में राधा चीखती है -" मैं
अर्टिस्ट बनना चाहती हूं मास्टर दुनिया मुझे रंड बनाने पर तुली है।" और
मास्टर सुरखी चीखता है -" ना आ... कोई ताकत नहीं जो तुझे रंडी बना सकती।"
"चींथ डालूंगा मदन तुझे चबा जाऊंगा, जो हाथ लगाया उसे ...।" यहां संबोधनों
में भी अंतर है। रेणु के यहां हीराबाई है जबकि जाग में राधा सिर्फ राधा है।
उसे भी बाई बनाया जा सकता था पर यहां कथाकार अपने संघर्ष के प्रति सजग है,
भाषा के स्तर पर भी। अंत में जाग के दर्शक भी पात्रों के संघर्ष में शामिल
हो जाते हैं। " हजारों के लब खुल गए और लफ़्ज़ मुट्ठी की तरह बस्ती के
आसमान पर टंग गया है -" आजादी! मदना! तेरे काबिज़ से आजादी! और वे चल
पड़े!"
इनके अलावा संग्रह में " राह " और " कोई
महफूज नहीं " दो कहानियां हैं जिनमें हिंदू मुस्लिम, सिख दंगों की दरिंदगी
और उससे निपटते जुम्मन मियां और तिलेसर की कहानियां हैं। क्रूर दंगाइयों से
वृद्ध जुम्मन मियां अकेले लड़ते हैं और उनकी शहादत से दंगाइयों में कई का
हृदय परिवर्तन होता है। दंगे जैसी विडंबना से निपटने की शायद यही एक राह बच
जाती है। इसी राह का अनुसरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे।
विजयकांत
की कहानियों की बड़ी ताकत संकरी राहों में चुस्त हरकत करती उनकी भाषा है।
एक पकठाई भाषा जो अपने गट्ठिल हाथों हमारे घुटनों में जा छिपे विवेक को
बाहर खींच लाना चाहती है - खींच लाती है।
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