कविता, कहानी, आलोचना

कुमार मुकुल के नोट्स

कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

आत्मीयता का एक द्वीप

अंजना टंडन के पहले कविता संकलन ' कैवल्य ' से गुजरना लगातार रूखी होती जाती भाषाई दुनिया में आत्मीयता का एक द्वीप पा लेने जैसा है, जहां आप पल दो पल रुककर सांसें ले सकते हैं, आश्वस्त हो सकते हैं कि प्रेम और जीवन की अनंतता के छोर तक हमारी पहुंच बनाने वाली रचनाएं अभी भी आकार ले रही हैं - 
' मान भी जाओ
ये दुनिया भोली, मगर सुन्दर है '
या
' कई सूरज ठंडे होते हैं
तब कोई नदी हुलस कर बहती है...'
पारंपरिक शब्दों को अंजना नए संदर्भ और नए अर्थ प्रदान करने की सफल कोशिश करती हैं -
' पाने से परे
तुम्हारा खोना ही
जीवन का उत्सव ठहरा।'
मानस निर्माण की जटिल प्रक्रियाओं को उनकी कविताएं समझने और समझाने की कोशिश करती हैं। ऐसा करते हुए वे सहजता से पाठक को अपने साथ लेती चलती हैं और कई बार वह रुककर सोचने को मजबूर भी होता है कि अच्छा, ऐसा भी तो हो सकता था -
' ये तो तय है कि जो अपराधी नहीं
उनके लिए प्रेम में पड़ना
अनिवार्य होना चाहिए
वरना
लंबे समय तक रुकी नैतिकता
दिल को कठोर न्यायाधीश बना देती है।'
ये कविताएं अंतर्मन की जटिल बनावट को सामने लाने का साहसिक प्रयास करती हैं -
' कुछ कह देना, कुछ ना कहना
धोखा क्या है
कह देने भर से खुद को बचा लेना 
या ...'
ये कविताएं आपके साथ रुककर और आपको रोककर अपने विमर्श में शामिल करती चलती कविताएं हैं। 




प्रस्तुतकर्ता कुमार मुकुल पर 2:36 am
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लेबल: अंजना टंडन

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जो कवि 'टूटें सकल बन्ध कलि के,/ दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।' जैसी क्रांतिकारी आकांक्षा रखता रहा हो, उसके लिए ताउम्र विरोध सहता और संघर्ष करता रहा हो वही कवि 'वेदों का चरखा चला' लिख सकता था और गांधी से यह प्रश्न-व्यंग्य कर सकता था "बापू, तुम मुर्गी खाते यदि", वही हमें चेता सकता था कि देखो राजे ने जो कुछ भी किया उससे और कुछ नहीं अपनी रखवाली की, और इस सबसे अगर हमें मुक्ति पानी है तो हमें 'महंगू' की शक्ति पर भरोसा रखना होगा और 'महंगू' को महंगा बने रहना होगा - रामजी राय

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यह 'नहीं' मेरी सोच और अस्मि‍ता का मूलाधार बना है। हालांकि मैं छोटे-छोटे मौकों पर कभी नहीं कह नहीं पाता पर एक बार अगर अंतर्मन में 'नहीं' गूंज गया तो फिर मैंने उसे जीवन में कभी नहीं बदला। यह 'नहीं' मेरी अन्तर्शक्ति‍ है। इस नहीं को मैं अपने लिए भी इस्तेमाल करता हूं और इसका उपयोग मैंने बार - बार अपने जिंदगी के अहम संदर्भों में भी किया है। शायद यही वजह है कि मैं अपना जीवन अपने मुताबिक जी सका हूं। मुश्किलें बार.बार आईं लेकिन इस 'नहीं' के कारण कभी पछतावा नहीं आया - कमलेश्वर, यादों के चिराग

यथार्थबोध

रघुवीर सहाय की कविताओं में यथार्थ उनके अपने अनुभवों तक सीमित रहता है, ...अक्सर यह लगता है कि वह उन्हीं से परिभाषित भी होता है।...उनकी अधिकांश कविताओं में अगर स्त्री का करुण या दयनीय रूप ही उभरता है तो यह उनके यथार्थबोध पर एक विपरीत टिप्पणी भी मानी जा सकती है। एक बड़ा कवि सिर्फ अपनी ही तरफ और एक ही तरह नहीं देखता; अपने चारों ओर, दूसरों की तरफ और दूर-दूर तक भी देखता है - कुँवर नारायण

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आत्मवक्तव्य - कुमार मुकुल

हम हैं , इसी से कविता है / यह हमारे होने का प्रमाण है / कविता मैं से / तुम या वह होने की छटपटाहट है /... यह सिखलाती है / कि नियॉन लाइट्स की रौशनी / हमारे अंतर का अंधकार / दूर नहीं कर सकती /कि ध्वनि या प्रकाश के वेग से /दौड़ें हम /धरती लंबी नहीं होने को /... यह बंदूक की नली से /भेड़िए और मेमने का फर्क करना / सिखलाती है /कविता /तय करती है कि कब / चूल्हे में जलती लकड़ी को /मशाल की शक्ल में थाम लिया जाए / या अन्य ढेर सारी गांठें / जिन्हें कोई नहीं खोलता / कविता खोलती है /जहां कहीं गति है / वहीं जीवन है / और कविता भी।.....सभ्यता और जीवन -1987....

करीब चौबीस-पच्चीस साल पहले कविता को इसी तरह परिभाषित किया था मैंने, और आज भी कविता के मायने बदले नहीं हैं मेरे लिए। किशोर से युवा होने के क्रम में हर व्यक्ति के जीवन में वह समय आता है जब वह चाहता है कि वह नहीं उसकी बात बोले, उसका एक जुदा अंदाजे बंया हो। यहीं से कविता की शुरूआत होती है। अपनी एक निजी पहचान और उसे जन-जन से जोड़कर व्यापक विस्तार देने की ईच्छा से ही कविता का जन्म होता है। पर यह ईच्छा कितनी मजबूत है और क्या आखीर तक इसे कायम रखा जा सकता है, इसी पर एक कवि होने की बुनियाद होती है। कोई बात जब मन को छू जाती है तो लोग कहते हैं - वाह, क्या बात कहीं है...। तो यह अच्छी लगने वाली बतकही ही कविता है। कविता एक फार्म है, बातों के लिए। मूल है बात, जो आपने कही है। उसके संदर्भ जीवन-जगत से कितने जुड़े हैं वही आपकी बात को एक अर्थ और गरिमा प्रदान करते हैं।

विचार, आत्मीयता, कह पाने का साहस, युगबोध, वैज्ञानिकता और इन्हें उनकी द्वंद्वात्मकता और विडंबना के साथ चित्रित कर पाने का विवेक ही एक कवि को उसके समय के पार जानेवाली प्रासंगिकता प्रदान करते हैं। जहां तक राजनीतिक होने की बात है, मेरी हर सांस मेरे जीवित रहने की राजनीति करती है। मेरी अधिकांश कविताएं राजनीतिक हैं। यहां तक कि प्रेम और प्रकृति से संबंधित कविताएं भी। मेरी कविता धूमिल के तीसरे आदमी के खिलाफ और गांधी के अंतिम आदमी की पक्षधर है। वह नेरूदा की तरह तथाकथित भले लोगों को चेतावनी और विचार का एक मौका हमेशा देना चाहती है। वह ब्रेष्ट की तरह जनरलों को उनके मजबूत टैंकों के नुक्स बता देना चाहती है। वह पाश की तरह प्यार करने और जीने पर ईमान ले आने को एक ही मानती है। उसने सुकान्त भट्टाचार्य की तरह हवा का हाथ देखा है। इनके अलावा मेरे प्रिय कवियों में रिल्के, पास्तरनाक, मरीना स्वेतायेवा, टैगोर, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि हैं और वॉन गॉग, रूसो, सार्त्र-सीमोन और प्रेमचंद का जीवन मुझे आकर्षित करता है।

Mukuls poetic expressions

Mukuls poetic expressions

समकालीन कविता

कुमार मुकुल ने विष्णु खरे पर विचार करते हुए मुक्त‍िबोध, रघुवीर सहाय, आदि के जिस फर्क को रेखांकित किया है, वह विचारणीय है। ... निर्णय सुनाने के बजाय अगर वे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो उनका गद्य और महत्वपूर्ण बनेगा - राजेश जोशी, समकालीन कविता, 2005

कुमार मुकुल की समीक्षा पठनीय लगी। इधर समीक्षा पढना अरुचि ही उपजाता रहा है - पढना ही बंद कर दिया है। वही घि‍सी पिटी बातें और दावे जो किसी पर भी चस्पां किए जा सकते हैं, जिस पर लिखा जा रहा है, उसे यथातथ्य पढने की अक्षमता। इस समीक्षा को पढना सुखद आश्चर्य था कि कविता को कैसे पढना, क्यों पढना यह उसे आता है और अपने पढे हुए से पढने के दूसरे अनुभवों से, इस पढने को जोडना भी सार्थक ढंग से। अलग बात है कि 'क्या' ? उससे हम सहमत हों, न हों- दोनों ही हालात में समीक्षक की तैयारी पर, खरेपन पर शक नहीं होता - रमेशचन्द्र शाह, समकालीन कविता, 2005


अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं - सुधीर सुमन

feedjit.com

एक पत्र

प्रिय कुमार मुकुल जी,
आपकी आलोचना पुस्तक की पांडुलिपि लौटा रहा हूं। आपने इसे पढने का अवसर मुझे दिया यह मेरी खुशकिस्मती है। मुझे लगता है कि जब यह पुस्तक रूप में आयेगी तो हिंदी संसार में व्यापक स्तर पर इसका स्वागत होगा। दलबद्धता या शिविरबद्धता से दूर, मुक्त हृदय और पैनी दृष्टि से कवि के संसार में उतरने का यह सामर्थ्य किसी को भी प्रभावित करेगा। एक गहरी अन्तदृष्टि की बिना पर आप बिना लाग-लपेट बडी तीक्ष्णता और स्पष्टता के साथ अपनी बात कहते हैं और यह आलोचना का साहस है। इस साहस में एक गहरी सहृदयता भी मुझे दिखाई दे रही है। हमलोग एक ऐसे दौर में हैं जब वरिष्ठों के भी कथन की विश्वसनीयता आज संदिग्ध हुई है लेकिन इस बुरे समय में अच्छी आलोचना के गुण ही हमारे सारे लिखने-पढने के कार्य को एक सार्थकता दे सकते हैं। मुझे आपकी इस आलोचना पुस्तक को पढते हुए सचमुच आनंद आया है। आप मित्र हैं इसलिए यह नहीं कह रहा हूं। ( साहित्य में यूं भी मित्रताओं का यह बहुत विश्वसनीय समय नहीं रह गया है। गणित ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं।) आपको पुनः एक बार बधाई। इसे जल्दी से जल्दी किसी अच्छे प्रकाशक से छपवा लें ताकि यह आम पाठकों तक भी सही तरीके से पहुंच जाये। आशा है आप सानंद होंगे।
आपका
विजय कुमार 26: 6: 2007

अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता की समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है - प्रकाश

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