चंद्र मेरी आज तक की जानकारी में पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो खेती-बाडी में, मजूरी में पिसते अंतिम आदमी का जीवन जीते हुए पढना-लिखना व कविताएं करना चाहते हैं। इससे पहले भोजपुर में इस तरह से लिखने की कोशिश करते भोला भाई को उनकी पान की दुकान पर सुना था मैंने। पर चंद्र अपनी कविताओं में जिस भाव प्रवणता व सरलता से त्रासद स्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं वह मिसाल है।
साल भर पहले दूर आसाम के एक ग्रामीण इलाके खेरोनी कचारी, जिला - कारबिआंगलौंग से इनका फोन आया था। ये जब भी बात करते तो या तो गन्ने के खेत को गाेड़ने-पटाने जा रहे होते या आ रहे होते। इनके पिता अरसा पहले मजदूरी करने बिहार से आसाम चले गये थे। गांव से पचास किलोमीटर दूर की किसी किताब की दुकान से इन्हें आलोक धन्वा का कविता संग्रह मिला था। इसके अलावे निराला, दिनकर आदि को पढा है इन्होंने।
पहले व्हाट्सएप्प पर इन्होंने कुछ तुकबंदियां भेजकर पूछा था कि क्या ये छप सकती हैं तो मैंने कहा कि कुछ और पढिए-लिखिए फिर कविताएं छपने लगेंगी। इन्हें किताबें भी भेजनी थीं मुझे पर कुरियर इनके गांव तक जाता नहीं है और डाक से अब तक भेज नहीं सका कुछ। धीरे-धीरे ये आभासी दुनिया के संपर्क में आये। तब इन्हें किताबों की पीडीएफ, पत्रिकाएं भेजीं मैंने जिसे मोबाइल पर किसी तरह पढ पाना ही इनके वश में है।
इधर हाल के महीने में फेसबुक पर मैंने इनकी नयी कविताओं में जमीनी दर्द को शिद्दत से आकार पाते देखा तो उनकी कविताओं को कापी कर कहीं कहीं भाषा ठीक की। यूं अधिकांश जगह स्थानीय तथ्यों को आकार देती भाषायी संरचना से छेड़-छाड़ नहीं की मैंने।
शमशेर ने लिखा था बात बोलेगी ...हम नहीं ... भेद खोलेगी बात ही, तो चंद्र की कविताएं बोलती हैं और भेद भी खोलती हैं -
मैं प्यार करता हूं इस देश की धरती से..!
मैं प्यार करता हूं इस देश की धरती से
इस देश की धरती के हरे भरे वनों, जंगलों से,
वनों जंगलों में चहचहाने वाली तमाम चिड़ियों से,
इस देश की धरती के खेतों से
खेतों में खटने वाले वाले मजदूर किसानों से
मैं प्यार करता हूं
मैं प्यार करता हूं
जिनके हाथ श्रम के चट्टानों से रगड़ रगड़ा कर
लहूलुहान हो चुके हैं
जिनकी पीठ और पेट एक में सट चुके हैं
भूख व दुख से
मैं प्यार करता हूं उनसे
जिनकी समूची देह
खतरनाक रोगों से कृषकाय बन चुकी है
मैं प्यार करता हूं
मैं प्यार करता हूं
इस कपिली नदी से
इस कपिली नदी के तट पर के बांस -झाड़ियों से
जिनसे हमारी घरों की नीव धंसी - बनी
जिस नदी के सहारे
मैं और मेरा गांव और मेरे गांव की तमाम खेती-बाड़ी
जिंदा हैं
मैं प्यार करता हूं
प्यार करता हूं मैं
अपने हाथों के श्रम के धारे से
मैं प्यार करता हूं
गाय, बैल ,हल ,हेंगा , जुआठ , खुरपी -कुदाल से
प्यार करता हूं
मैं प्यार करता हूं उनसे
जिनकी समूची देह श्रम के लोहों के छड़ों से
रूई सी बुरी तरह से धुना चुकी है
मैं प्यार करता हूं..
प्यार करता हूं मैं....
अपनी इस जर्जर देह से
जिसकी अनमोल रतन दूही जा चुकी है !
कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती इस दुनिया में...
मेरी फटती छाती और पीठ पर
उउफ !
कितने घाव हैं
उउफ !
उउफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में
कि एक मामूली मजबूर मजूर के घावों के भीतर
टभकते
कलकलाते मवाद को
धीरे -धीरे -धीरे- आहिस्ते -आहिस्ते
और नेह -छोह के साथ
कोई कांटा चुभो दे
फोड़ कर
उसे बहाने के लिए...उउफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में .
ओह !
कितनी पराई दुनिया है ना 'मोहन'
कि समझती नहीं
कोमल आह
हमारे जैसे बेबस मजदूरों की !
उफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस दुनिया में !
उसकी लहू -सी लाल आंखों में..
उसकी लहू -सी लाल आंखों में
खतरनाक शोषण की डरावनी निशानियां
दिखती थी...
मैं देख रहा था उसे कि तभी
धाँय से
चीखते हुए
भीतर बाहर पसीजते हुए
वहीं की पथरीली जमीन पर
बुरी तरह से गिर पड़ा था वह
और मेरे होठों पर
एक शब्द था
आह !
कभी कभी
कभी-कभी बापू की आंखों में
भयावह उदासी देखकर
इतना सहम जाता हूँ
इतना सहम जाता हूं
कि भीतर बाहर पसीज पसीज कर
चुपचाप रोने लगता हूं..
चुपचाप
और पिताजी तभी
मुझसे कहने लगते हैं
कहने लगते हैं
कि
बाबू !
ई ज़िनगी है , जिनगी
ई जिनगी में
कभी भी दुख छप्पर फाड़ के ही आता है
लेकिन बाबू !
ई जिनगी में
कभी भी सुख बहुत -बहुत कम ही आता है
बहुत बहुत कम ही !
जब -जब मेरी माई रोतीं हैं !
जब -जब मेरी माई रोतीं हैं
तब -तब ,
तब - तब ,
कल- कल , कल -कल बहती हुई
कपिली - नदी माई भी
चुपचाप -चुपचाप रोती हैं
तब -तब ,तब- तब ,
धीमी धीमी
झीनी झीनी
धरती माई भी
रोती हैं
तब -तब
तब - तब
शिवफल की शीतल छांव में
बंधाई हुई
छूटकी खूँटियाँ में
उदास नन्हकी बछिया भी
माँ - माँ , माँ - माँ
बाँ -बाँ , बाँ बाँ चिघरते हुए
रोने लगतीं है
तब -तब ,
तब -तब ,
झोपड़ी के मुरेड़ पर बैठी हुई प्यारी चिरईयाँ भी
चिहूँ -चिहूँ , चिहूँ -चिहूँ
रोने लगती हैं
और
तब -तब
तब -तब
मैं औरी मोर अनपढ़ी बहिनि भी
माई का लहूहुहान हाथ - पांव पर उभरे घावों पर
बड़ी ही सनेह के साथ
अपना गर्म और सुंदर हाथ धर -धर के
झर -झर के
डर -डर के
कंहर कंहर के
आह् उउफ से
भर -भर के
मर -मर के
मर -मर के
रोने लगते हैं
रोने लगती है
कपिली नदी तट पर की
वंशी सी
आहतम्यी आवाज में बजती
झुरमुट -बांस -झाड़ियाँ भी !
एे पूंजीपति कवियों
एे पूंजीपति कवियों!
क्या तेरी महंगी-महंगी
और ब्रांडेड डायरियों में
जरा जगह नहीं
लिखने को
उनका नाम भी
जिनकी समूची देह से अंग -अंग से
लहू ,पसीना ,स्वेद -रक्त और आंसू
पूरी तरह से
बुरी तरह से दूहे जा चुके हैं
और जिनकी देह देह नहीं रह गई है अब
जिनके नेत्र नेत्र नहीं रह गए हैं अब
जिनका मस्तक मस्तक नहीं रह गया है अब
जिनका हाथ हाथ नहीं रह गया है अब
जिनका पांव पांव नहीं रह गया है अब
जिनका दांत दांत नहीं रह गया है अब
जिनकी छाती छाती नहीं रह गई है अब
जिनकी छाती की बाती बाती
रूई की तरह धुनी जा चुकी है
जिनका पूरा शरीर
श्रम के लोहाें की मसलन से,
भय़ावह चिंता ,रोग, भूख ,घोर -दुख की जलन से
खेतों में खटते हुए चुपचाप शहीदों जैसे मरण से
अब बची है कृषकाय
मुट्ठी भर
उनके लिए
क्या तेरी कीमती कलमों को लिखने को
टैम नहीं है
चिकन बिरयानी खाकर भी
लिखने की थोड़ी सी भी शक्ति नहीं बची है
आत्मा में
तुम सिगरेट और शराब पीने के बाद भी
लिखने के मूड में नहीं हो
या फुर्सत नहीं है प्रेमिकाओं के बारे में लिखने से
तो कहो ना साहब जी
मैं अपनी देह में बचा लहू का कतरा भी
दे दूंगा तुम्हें
तुम्हारी कलम के रिफिल में लाल स्याही के लिए !
मो - 9365909065
अटैचमेंट क्षेत्र
"तो, अब उसी ईश्वर का श्राद्ध कर देना ! " - कुमार मुकुल
करीब एक साल से चंद्र नाम के इस मजदूर से परिचय है मेरा। पहले इसी ने कहीं से मेरा नंबर पा फोन किया था। भोजपुरी पुट वाली भाष्ाा में इसने बताया कि इसके पिता कभी बिहार से आसाम एक मजदूर के रूप में गये थे और वहीं बस गये। किसी तरह कुछ जमीन अर्जित की और अब चंद्र उसी के सहारे इलाके के लोगोें की जमीन पर काम करता जीता खाता है। जब भी उसका फोन आता तो या तो वह गन्ने के खेत को जा रहा होता या वहां से आ रहा होता।
वह लिखना पढना चाहता है। आलोक धन्वा का कविता संग्रह और एकाध किताबें उसके पास हैं। उसे कुछ किताबें भी भेजनी हैं पर जो उसका पता है कहीं दूर देहात का उस पर कुरियर नहीं जा रहा और डाकखाने जा उसे किताबें भेजने का समय अबतक निकाल नहीं पाया हूं।
उस समय उसने किसी के व्हाटसएप से अपनी कुछ तुकबंदियां भेजीं और पूछा कि क्या ये कहीं छप सकती हैं। मैंने पाया कि अभी उसे कुछ और पढना लिखना चाहिए, वह अच्छा लिख सकता है। फिर वह नेट पर कुछ समय देने लगा।
अब देख रहा कि वह अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त कर पा रहा।
जनता का आदमी कविता में आलोक धन्वा लिखते हैं -
"अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में..."
चंद्र की कविताएं भी भाषा और लय के बिना केवल अर्थ में आवाज देती कविताएं हैं।
यदि...(1)
यदि आपके घर में
आपका ही बड़ा लड़का
अपने ही घर के किसी कोने में टुटही खटिया या फटही चटाई
पर लेटे हुए
कई महीनों -दिनों से फेफड़े के असह्य दरद पर
अपने जर्जर हाथ मलते -फेरते हुए
खूब जोर-शोर के साथ
खांस रहा हो
इधर उधर
थूक -खखार रहा हो
और उस खांसी के खतरनाक बीमारी से
उस लड़के की पूरी देह दिन- पर- दिन
कृषकाय एकदम हाड़ बनती ज़ा रही हो
और उस समय
यदि आपके पास एकहू रूपिया न हो
उस बीमार लड़के को
किसी अस्पताल में इलाज कराने हेतु
तब आप क्या उपाय करेंगे
तब आप किससे कर्जा -उधार मांगेंगे
और कर्जा उधार भी
यदि मांगेंगे रोते गिड़गिड़ाते हुए अपने गांव - गिराँव के किसी भी
सेठ या जमींदार या किसी भी हित- मित से मांगेंगे
कि हे! हे! हे ! हे! साहब जी
दे दो न ,दे दो न ,दे दो न,
दू तीन हजार रूपिय़ा ही सही
दे दो न साहब जी
कि हे हे हे ....
कि मोर बचवा ,
मोर सुगनवा
कहिये से गंभीर खांसी से घुट-घुट के मर - मर रहा है
मऊअत से बहुत-बहुत डर -डर रहा है
कि हे हे हे हे साहब जी
दे दो न,दे दो न...
कि फिर तो आपका पईसा
हजीरा -मजदूरी करके किसी भी तरह से
चंद दिनों में दे ही देंगे
शुद्ध ब्याज सब जोड़- जोड़ के दे ही देंगे
दे ही देंगे.... मिहनत से अपना हाड़ तोड़ तोड़ कर दे ही देंगे..
और यदि आपके मांगने पर
गांव -गिराँव के
हित - मित
या कोई भी लोग
अपने दुआरी से ,
अपने चौकठ से
कुत्ते जस दुत्कारते हूए
यह कहने लगें
यह कहने लगें
कि -
तू तो मामुली सा गरीब मजदूर है
मात्र दू सौ का पगार ही
रोज के खूब खटनी से मिलता है तुझे
और तो और
उसी में अभी तेरा नून तेल पिसान कपड़ा -लत्ता
का खर्चा सब है
तब फिर मेरा दिया हुआ करजा
कईसे लौटायेगा तू रे !
अरे !रे !जा! जा !भाग !भाग!
नहीं देंगें ,
देगें ही नही तुझे
एक फूटी कौड़ी भी नहीं देंगे तुझे रे !
तब आप कौन सी राह चुनेंगे
तब क्या आप पुराने बक्से में रखी हुई सल्फास की गोली खाकर
मर जाना चाहेंगे
य़ा हजीरा -मजदूरी करके
उस लड़के का इलाज करा सकेंगे
य़ा आप अपने गले में रसरी की फँसरी लगाकर
किसी पेड़ पर झूल जाएंगे
य़ा एक गिलास पानी में
खेती में कीड़े मारने वाले जहर का
एक दू ढक्कन मिलाकर
उस बीमार लड़के को ही
पिला कर
उसकी जान ले लेना चाहेंगे
या तब आप क्या करेंगे.
कौन सी राह चुनेंगे.....!
यदि ...(2)
यदि आपके घर में
कोई इधर अ ल ल ल ल उल्टी कर रहा हो
कोई उधर पेट के असहन दरद पर आहिस्ते -आहिस्ते
हाथ मलते- फेरते हुए
धूलि -धूसरित जमीन पर लोटपोट के
और बहुत- बहुत छटपटाते हुए
सिर्फ रो रहा हो ..
यदि आपके घर में
कोई वहां किसी कोने में
टुटही खटिया पर उउफ आह
माई बाप चिल्लाते हुए
अपने कृषकाय कलेजे पर हाथ मलते हुए
खूब जोर -जोर से खांस और
इधर उधर थूक -खाखार रहा हो
यदि आपके घर में
आपके साथ साथ
सब परिवार के सदस्य गण
गंभीर ,भयावह और खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त
आह माई
आह माई
चीखते मिमियाते हुए बुरी तरह से बेदम होते हुए
घूंट घूंट के
टूट टूट के
तड़फ तड़फ के
मर रहें हों
और उस समय यदि
आपका काम-धाम और आपकी हजीरा -मजूरी
सब बंद व थम चुकें हों
यदि उस समय आपकी तिजोरी में
हजीरा -मजूरी का एक भी पैसा -कौड़ी न बचा हो
यदि उसी समय
एक मुट्ठी निमक , तेल और पिसान खरीद कर खाने के लिए
आपके घर में
एक फूटी कौड़ी न हो और रसोई घर में
उदास चूल्हिय़ा
और खाली बर्तन चुपचाप सिर्फ रोते हों
यदि आप और आपके
बीमार परिवार को कोई भी
किसी भी अस्पताल में ले जाने वाला व्यक्ति न हो
यदि उस समय
आप और आपके
परिवार की भयावह और चुप्पी में चीखती
बीमारियाँ देखकर
आस-पड़ोस के
जन दुखित न होते हों
तरस न खाते हों
और उस समय
यदि आप बीमार रहकर भी
किसी किसी तरह
अपने थरथराते पांओं से पैदल चलकर
किसी सेठ य़ा जमींदार या अपने गांव -गिराँव के
लोगों से कर्जा -उधार मांगने गए
रोते -गिड़गिड़ाते हुए कर्जा -उधार मांगने गए
और चीखते -चीखते उनसे यह कहने लग गये
कहने लग गये कि-
हे ! हे ! हे ! साहब जी
दे दो न , दे दो न साहब जी
दे दो न साहब जी
दे दो न साहब जी
चार पांच हजार रूपिया ही सही दे दो न साहब जी
दे दो न साहब जी,
दे दो न साहब जी
कि हम और हमारा पूरा परिवार बीमारी से
कुहुक - कुहुक के
चुप-चाप
बेचारे की तरह
मर रहा है
मर रहा है
सूखे जर्जर पेड़ों की तरह
चुपचाप -चुपचाप ढ़ह - ढ़ह कर मर रहे हैं
धूल की दीवारों की तरह भरभरा कर गिरते हुए
मिट्टी में मिलने को आतुर हैं
कि अब दे दो न साहब जी
दे दो न दू हजार ही सही...
कि हमें किसी भी अस्पताल में
थोड़ा सा इलाज कराना बहुत जरूरी है
जरूरी है बहुत इलाज कराना
हे साहब जी
कि हे साहब जी हे! हे !हे!...
जब इलाज करा कर ठीक हो जाएंगे न
तब किसी भी तरह
हजीरा -मजुरी करके
आप का शुद्ध ब्याज जोड़कर लौटा देंगे ,लोटा ही देंगे.. साहब जी...!
किंतु,
इतना गिड़गिड़ा कर भी
करजा रूपी भीख मांगने पर
इलाज कराने हेतु
दू तीन हजार भी न देते हुए
अपने आंगन -चौकठ - दुआर से
कुत्ते जस दुतकार दें
दुतकार दें कुत्ते जस ...
तो सुनो !
हे ईश्वरों !
दुनिया के तमाम आदमियों सुनो!
सुनो !
हमारी दर्दनाक मौत के बाद
मत आना कोई
कोई मत आना
रोग से सड़ी और बिजबिजाती हुई
हमारी लाशों पर
इक बित्ता कफन भी ओढाने मत आना
मत आना , मत आना,
हाय राम हाय राम कहने
मत ही आना.... और सुनो !
हमारा श्राद्ध भूल कर भी मत करना ,कराना मेरे दोस्त!
लेकिन हो सके तो
उस ईश्वर का श्राद्ध कर देना
जो अब इस दुनिया में मर चुका है
मर चुका है बुरी तरह से ईश्वर
तो, अब उसी ईश्वर का श्राद्ध कर देना !
मो - 9365909065
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