कविता, कहानी, आलोचना

कुमार मुकुल के नोट्स

कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

पुट्ठों तक मार खाई गाय की घृणा - कुमार मुकुल

विजयकांत की कहानियों से गुजरते स्मृति में पिछले वर्षों सहरसा कमिश्नरी में दुर्गा पूजा के अवसर पर घोड़े दौडाते मररों की याद कौंध जाती है। दौड़ आज भी जारी है, हर हर महादेव के नारे लगाते वह घुड़सवार सहरसा की गलियां रौंद डालते थे, फिर तेल पिलाई देह वाले यह बैठक बाज कुश्ती लड़ते थे। फिर आपस में ही इनामों का बंटवारा कर कोशी के कछारों में भाल- संभाल को वापिस हो जाते थे। सब जानते होते कि यह बांध के भीतर के खगड़िया- पूर्णिया- सहरसा जिलों के डकैत हैं। प्रशासन हर बार दंगे आदि की आशंका से इस दौड़ पर पाबंदी की तैयारी करता पर सब व्यर्थ जाता। यह शक्ति प्रदर्शन इसलिए होता कि वहां के दबंग मरर नेता की जमीन सहित मंदिर और आसपास की मेले की जमीन एक दलित हिंदू की जमीन दखल कर प्राप्त की गई थी।
विजयकांत की कहानियां कोसी के कछारों के इन्हीं खूंरेजी से भरे क्षेत्रों की पीड़ा और तडप से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। अविश्वसनीयता की हद तक पहुंची ये क्रूरताएं आज भी वहां की पिछड़ी जनता की दैनिकी है
प्रेमचंद ने किसानों के आम जीवन के संघर्ष को अपनी कहानियों में उतारा था पर आम और खास के अलावे किसी भी गिनती में ना आने वाली अंधेरी परती जमीन की कथा को पहली बार रेणु ने उद्घाटित किया था और सभी चौके थे कि यह परती थी कहां। विजयकांत समर्थ ढंग से परती की परतें हैं दरकाते हैं और परीकथा के तिलिस्म को बेध यथार्थ की छिपी तहों को उपर लाते हैं, उसे एक गढाव, धार और दिशा देते हैं। वे माखुन भगत को कोसी पार पहुंचा कर दम लेते हैं।
' ब्रह्मफांस की कहानियों के पात्र एक समग्र चरित्र हैं, वर्गों के द्वंद्व  को उसकी सांद्रता में उद्घाटित करते हुए। कथा में पात्र की छोटी-छोटी हरकतों को भी कथाकार भाषा के बारीक धागों में कातता जाता है पर ऐसा करते कभी वह अराजक ढंग से समाज और व्यवस्था से पात्र के बहुआयामी संबंधों को किनारा करने की कोशिश नहीं करता। यहां संतुलन ऐसा है जैसे हम किसी कठिन कथा को फिल्माते देख रहे हों।
बान्ह, माखुन भगत, ब्रह्मफांस और जाग संग्रह की प्रमुख कथाएं हैं। बान्ह मतलब बंधक या गिरवी से है। सवर्ण व्यवस्था में किस तरह एक दलित अपनी आत्मा को बंधक रख देता है और कैसे आत्महत्या और संघर्ष में संघर्ष को चुनता है। यही इस कथा का केंद्र है। किस तरह सवर्णों की अपसंस्कृति सवर्णों से इतर जातियों का सपना बन गई है। इसे भी कथा सूक्षमतापूर्वक उजागर करती है। यह प्रवृत्ति आज की राजनीति में भी घटित होते दिखती है। पिछले वर्षों में तमाम राज्यों में सवर्णों से इतर जातियों का कब्जा सत्ता पर हुआ और सवर्णों का रंग ढंग अपनाकर वे अपनी पकड़ खोते चले गए। आखिर जिस राह चलकर सवर्णों ने 45 वर्षों बाद सत्ता खो दी, उन्हें मूल्य बनाकर पिछड़े कितनी दूर जा सकते थे। 
बान्ह के  सनीफ मियां जमीन का आखिरी टुकड़ा उदरस्थ करने की कोशिश जब धनेसर मिसिर करता है तो सनीफ की मूल चिंता जमीन का टुकड़ा बचाना नहीं अपने बिरादरी के मुखिया भोजू मियां की इज्जत बचाने होती है। धनेसर भी इसी इज्जत की आन जगा उसे लूटता है। वह बोलता है - " बनो मत मौलाना "  पंजे की तरह लहराई मिसिर की आंखें " हजार रुपए तो यों झाड़ दो तुम फेंटे से।" और आन में अंधा सनीफ मिसिर की आंखें नहीं देख पाता और जमीन का आखरी टुकड़ा भी बंधक चढ़ा देता है। आन का यह अंधापन उसे अपने हमवर्ग की शक्ल भी पहचानने से रोकता है। जब याकूब कहता है - " मजाक आप खुद कर रहे अपने साथ ? जानते न थे धनेसर मिसिर को ? जान - बूझकर फांसी डाल ली तो अब चीखते क्यों हैं ?" तब तिलमिला कर चीखते हैं सनीफ मियां - " मुझसे जुबान लडाता है ? खानदान के लिए फांसी मैं न चढ़ूंगा तो क्या तू अपनी गर्दन बढ़ाएगा कमीने !  मेरे साथ ही मिट जाएगी भेाजू मियां की आबरू !  पता है मुझे ! तू तो धब्बा है, धब्बा। बेहूदा और बदशकुन धब्बा। नीचों ने तेरी मती मार दी।" और लूट की जमीन छुड़ाने में वहीं याकूब जब मददगार साबित होता है तब भी सनी़फ की भाषा उन्हीं पुरखों का शरण लेती है - " कैसा बताह छौंडा है ! अभी मार रहा था और अब कुर्बान होने आ गया है ... आखिर है तो भॊजू मियां की नस्ल।
सनीफ की आंख तब खुलती है जब धनेसर मिसिर उसके कटोरे में डाला गया निवाला उसकी नरेटी में हाथ डाल निकालने लगता है और जब उसकी इज्जत लुट जाती है। खोने को प्राणों के सिवा शेष नहीं होता कुछ तब पुट्ठों तक मार खायी गाय की घृणा लौटती है और लठैतों से पिटता सनीफ उछलकर धनेसर की गर्दन पकड़ लेता है और ऐंठता चला जाता है। 
बाकी तीनों कथाओं में भी जमीन की आखिरी लड़ाई केंद्र में है। हालांकि चारों कथाओं के पात्रों में पेशागत भिन्नता है। " बान्ह "  में कुछ बीघे का जोरदार सनीफ मियां है तो " बलैत माखुन भगत " में मंदिर में पशुओं की बलि देने वाला भगत है, " ब्रह्मफांस " में संपेरा रगन उस्ताद है तो " जाग " में नौटंकी पार्टी का सुरखी मास्टर। सब की लड़ाई अस्तित्व की आखिरी लड़ाई है जिसमें अपना सब कुछ खोने की कीमत पर व्यक्ति के भीतर से संघर्ष का चेहरा उभरता है जो विकसित होकर सामाजिक संघर्ष का पर्याय हो जाता है।
संग्रह की शीर्षक कहानी " ब्रह्मफांस " में सामंती चरित्रों की निर्धनों, बंजारों के जीवन से खेलने की अमानवीय वृत्ति को दर्शाया गया है। इनमें वे निर्धनों को निर्धनों के ही विरुद्ध चारा की तरह इस्तेमाल करते हैं। रगन सपेरे को जब अपने करतबों के लिए कृपण दादा ठाकुर से भारी इनाम का लोभ मिलता है तो उसकी पत्नी सज्जो उसे समझाती है - " डर, बड़हन के बेमालूम राग से डर।"  पर रगन चाल में आ ही जाता है। और उसका उपयोग पड़ोस की जमीन में बने बिसो शाह के मिट्टी के घरों को सांप निकलवाने के बहाने ढहाने में किया जाता है। आजीवन विषैले सर्पों को साधने वाले रगन उस्ताद के पास दादा ठाकुर के जहर की कोई काट नहीं, तभी तो वह बोलता है - " बिखबल का मद है वरना इस बेसउरे, निकम्मे को तो ठौर नहीं मिलता।" अंत में पसीने से गुंथे अपने मिट्टी के घरों को ढहते देख बिसो साह रगन उस्ताद पर ही पिल पड़ता है और बेचारे रगन को अपना इनाम तो क्या मिलता अपना डेरा डंडा सब छोड़ भागना पड़ता है। यही है नाग फंसेत रगन को ब्रह्मफांस में फंसाने की कहानी।
" ब्रह्मफांस " में विजयकांत की भाषा और शिल्प अपने चरम पर है। संवादों का आरोह - अवरोह और गढ़ाव ऐसा है मानो भंवर की उठती - गिरती लहरों को जमा दिया गया हो। क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा को बचाकर उसका स्वभाषा में उपयोग और स्थानीय मुहावरों का चित्रात्मक ढंग से उपयोग विजयकांत को एक विशिष्ट और जुदा पहचान देता है।
विजयकांत की प्रचलित कहानी " बलैत माखुन भगत " में पात्र के पूरे जीवन को ही सलीके से समेटा गया है। जिसमें अंधविश्वास का कुहासा और उसे फाड़ती अस्तित्व की लड़ाई और जीवन का राग विराग सब अपने अपने चरम स्वरूप में हैं। कंगन भरी कलाइयों, नथनी जड़े नाक, झूमर भरे कानों का मंदिर में पंडित भैरव ठाकुर, सामंत बब्बन मरर और देवी मैया के बीच बंटवारा हमारे जनतंत्र में जैसे दूसरी दुनिया की कहानियां लगती हैं पर आज भी कोसी के भीतर के इलाकों में जहां सड़कें कोसी की मार सह नहीं पातीं, घोड़े दौड़ा मररों के चरित्र निर्मूल नहीं हुए हैं। चार-पच वर्ष पूर्व की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, जिसमें ट्रेन के कई डिब्बे कोसी के गर्भ में समा गए थे, से बचे हुए मरे - अधमरे लोगों का आसपास के इलाके के लोगों द्वारा अमानवीय ढंग से लूट लिए जाने की घटना दूर की बात नहीं है। घुड़सवारों द्वारा इन इलाकों में आए दिन होती ट्रेन डकैतियां भी विजयकांत की कहानियों के नजर आते थे तिलस्म का हिस्सा हैं। 
सुपौलीचक जगतारणी जगदंबा के नाम सारी भूमि लिखकर बबन मरर कोशी पार के भूमि संघर्ष की हवा को लौटा देता है। पर उसी जगदंबा के समक्ष पशुओं की बलि देने वाले माखुन भगत के पुत्र और पत्नी लखिया की जब देवी के पुजारी बलि चढ़ा देते हैं तब बचपन से बलि का बकरा बने माखुन के दैवी विश्वास की पगही टूट जाती है और जड़ देवी के प्रति उसकी भाषा विवर्ण हो जाती है - " लखी को याद करता वह कहता है - " देख, मैं कैसा बदला लेता हूं तेरी दुर्गति का, कैसा अंत करता हूं जगदंबा और उसके भडुए भैरों ठाकुर का! जंगल में अधमरा कर फेंक दिये गए पुत्र को जब बाघ खा जाता है तो पगली होकर देवी की सवारी प्रचारित बाघ के सामने मरने जा पहुंची लखिया की भक्ति भी काफूर हो जाती है और वह बोलती है - " अरे भवानी, तू मैया नहीं पतुरिया है बांझ पटुरिया ! ... आखिर पानी सर से ऊपर आता है और पशुओं की बलि देता माखुन भगत पंडित और मरर की बलि चढ़ा जगदंबा की मूर्ति ढाह भागकर कोसी पार के संघर्ष में शामिल हो जाता है। 
संग्रह की अंतिम कहानी है " जाग "। इसकी तुलना रेणु की कहानी " मारे गए गुलफाम " से की जा सकती है। रेणु की कहानी में जहां एक रूमानी पृष्ठभूमि में गांधीवादी आदर्श है वहां जाग में एकता और जागरण है। रेनू के हिरामन और हीराबाई एक बेबस चरित्र हैं। वे अपने संघर्ष और अकांक्षा की दिशा मोड़ कर अंतर्मुखी रोमानीपन में डुबो देते हैं पर जाग का सुरखी मास्टर और राधा अपनी अकांक्षा को अपने अस्तित्व की लड़ाई से जोड़ते हैं, उसके लिए लड़ते हैं, अंतिम सांस तक।  अंत में जनता भी उनके साथ हो जाती है। " मारे गए गुलफाम " में दुख में डूबा हिरामन कहता है -" हर रात किसी न किसी के मुंह से सुनता है वह, हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह।" विदा होते वक्त हीराबाई कहती है -" तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है, क्यों मीता ? महुआ  घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी!" यहां हिरामन का दुख है कि किस से लड़े वह और हीराबाई बिक जाती है। वही जाग में राधा चीखती है -" मैं अर्टिस्ट बनना चाहती हूं मास्टर दुनिया मुझे रंड बनाने पर तुली है।" और मास्टर सुरखी चीखता है -" ना आ... कोई ताकत नहीं जो तुझे रंडी बना सकती।" "चींथ डालूंगा मदन तुझे चबा जाऊंगा, जो हाथ लगाया उसे ...।" यहां संबोधनों में भी अंतर है। रेणु के यहां हीराबाई है जबकि जाग में राधा सिर्फ राधा है। उसे भी बाई बनाया जा सकता था पर यहां कथाकार अपने संघर्ष के प्रति सजग है, भाषा के स्तर पर भी। अंत में जाग के दर्शक भी पात्रों के संघर्ष में शामिल हो जाते हैं। " हजारों के लब खुल गए और लफ़्ज़ मुट्ठी की तरह बस्ती के आसमान पर टंग गया है -" आजादी! मदना! तेरे काबिज़ से आजादी! और वे चल पड़े!" 
इनके अलावा संग्रह में " राह " और " कोई महफूज नहीं " दो कहानियां हैं जिनमें हिंदू मुस्लिम, सिख दंगों की दरिंदगी और उससे निपटते जुम्मन मियां और तिलेसर की कहानियां हैं। क्रूर दंगाइयों से वृद्ध जुम्मन मियां अकेले लड़ते हैं और उनकी शहादत से दंगाइयों में कई का हृदय परिवर्तन होता है। दंगे जैसी विडंबना से निपटने की शायद यही एक राह बच जाती है। इसी राह का अनुसरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे।
विजयकांत की कहानियों की बड़ी ताकत संकरी राहों में चुस्त हरकत करती उनकी भाषा है। एक पकठाई भाषा जो अपने गट्ठिल हाथों हमारे घुटनों में जा छिपे विवेक को बाहर खींच लाना चाहती है - खींच लाती है।






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लेबल: कुमार मुकुल, ब्रह्मफांस, विजयकांत

शनिवार, 28 मार्च 2020

स्त्री​ की​ अनिवार पीड़ा की आत्मीय अभिव्यक्ति​यां

नूतन गुप्ता की कविताएं मनुष्य ​की​,​ स्त्री​ की​ अनिवार पीड़ा की आत्मीय अभिव्यक्ति​यां हैं​। कठोर सच को भी आत्मीय ढंग से प्रस्तुत करना इनकी खूबी है​।​ आधुनिक समाज में भी एक स्त्री की सामान्य दिनचर्या​ तेज​ थपेड़ों ​से ऐसा आकार प्राप्‍त करती  है जिसमें राग छूटता दिखता है, जिसमें ​एक स्त्री का दिन​ -​
बिना ठोकर लगे
कभी पूरा नहीं होता​।​
​'​सत्य​'​ कविता स्त्री जीवन के इस बैरागी होते पक्ष को सामने रखती है​-​
शमशान के सामने से
गुजरते हुए
कभी-कभी मन करता है
यहां खड़ी र​हूं​​ कुछ देर ​​
और देखती र​हूं​​
​उन ​क्षणिक वैरा​गियों को
​जिनकी सूरत पर
वैराग्य मेहमान बनकर उत्तरा है
शमशान की ओर पीठ होते ​ही
यह मेहमान अपने घर का
हो जाएगा​।​
स्त्री को स्त्री के जीवन में फैले श्मशान को​​ यह कविता कितने मार्मिक और शास्त्री​य​ ढंग से रखती है​।
​नूतन के यहां सचेत स्त्री की पीड़ा अपने अनंत रूपों में सामने आती है।​ कविता के शिल्प को तोड़ती वह बाहर झांकती दिखती है​।​ हालांकि नूतन की भाषा कसी है​,​ फालतू के शब्द वहां नहीं हैं पर पीड़ा है कि वह ​अंट नहीं पाती शब्दों में​ सो शब्दों के बीच भी ​पसरती चलती है​।​
मैं ​...
​आज भी कुछ ऐसे शब्दों की प्रतीक्षा में हूं
जो जैसे कहे जाएं
उन्हीं अर्थों में
मुझ तक पहुं​चें।​​
नूतन की स्पष्ट​वादिता यहां मुखर है​।​ जीवन के अंतर्विरो​धों​,​ विडंबना​,​ त्रासदी ​को ​नूतन ​की कविताएं ​बारहा अभिव्यक्त करती हैं ​-
​इंसानों जैसी कठपुतलियां
देखने में ​​अच्छी
रोचक लगती हैं
​...​परंतु कठपुतलियों जैसे इंसान
कभी भले लगे आज तक ​?​
नूतन के सवाल मौलिक हैं जो तवज्जो खोजते हैं​। उनके चित्र बोलते हैं ​-
​बरखा थमी
राहगीर गायब
पतियों से पानी
झड़ता रहा
बड़ी देर​।​
​यहां ​झड़ते हुए दुख को आप देख सकते हैं​।​
​नूतन की कविताओं में​ ऊहापोह के भी दर्शन होते हैं​।​ ऐसे में एक कविता का कथ्य दूसरी में उसके विपरीत जाता दिखता है​।​ जैसे​,​ ​'​आत्मघात​'​ कविता में वे लिखती हैं​-
​फिर निकल पड़े हो
ऐसी ही एक और
यात्रा पर
क्या आत्मघाती हो​।
​पर ​'​निरंतर​'​ कविता में लिखती हैं ​वे -
​​ये​ सफर कड़वाहट देता है
या ​मर्माहत करता है​।​
कुछ कविताओं के निहितार्थ ​से असहमति भी है मेरी​।​ जैसे ​'​रुदन​'​ कविता में वे लिखती हैं​-​
अपना क्रंदन
मुझे स्वयं स्वयं करना चाहिए​।​
​यहां चाहिए शब्द खटकता है​।​ क्रंदन हमारी चाहत का मामला नहीं होता​,​ वह फूटता है जैसे हंसी फूट​ती है​।​ इसी तरह ​'​अंततः​'​ कविता में वे लिखती हैं​-
शव
प्राणी का हो
या संबंधों का
जीवंतता समाप्त होने पर
सड़ने लगता है​।​
मुझे लगता है​ कि शव प्राणियों के हो सकते हैं​,​ संबंधों के नहीं​।​ संबंध मृत पड़ने लगते हैं​।​ मुझे लगता है ​कि ​इससे आगे जो सड़ने लगता है वह संबंध नहीं होता​।​ यह बराबरी का बंधन है वह होगा या नहीं होगा​।​ आत्मीयता​,​ प्रेम​,​ विडंबना​,​ विडंबना​,​ त्रासदी​ की चितेरा नूतन की निगाहें आने वाले दिनों पर ​​भी हैं​-​
कोई उन्माद
किसी को कहां तक
पहुंचा देगा
आने वाले दिनों में
बारूद की गंध
कुछ लोगों की मनपसंद खुशबू बनने वाली है​।​

पुस्तक ​- ​जुगनू मेरे शब्द ​​
नूतन गुप्ता
बोधी प्रकाशन
जयपुर
प्रस्तुतकर्ता कुमार मुकुल पर 6:27 am कोई टिप्पणी नहीं:
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लेबल: नूतन गुप्ता

गुरुवार, 12 मार्च 2020

ज़मीनी हक़ीक़त बयाँ करतीं कवि चन्द्र की कविताएँ


चंद्र मेरी आज तक की जानकारी में पहले ऐसे व्‍यक्ति हैं जो खेती-बाडी में, मजूरी में पिसते अंतिम आदमी का जीवन जीते हुए पढना-लिखना व कविताएं करना चाहते हैं। इससे पहले भोजपुर में इस तरह से लिखने की कोशिश करते भोला भाई को उनकी पान की दुकान पर सुना था मैंने। पर चंद्र  अपनी कविताओं में जिस भाव प्रवणता व सरलता से त्रासद स्थितियों को अभिव्‍यक्‍त करते हैं वह मिसाल है।
साल भर पहले दूर आसाम के एक ग्रामीण इलाके खेरोनी कचारी, जिला - कारबिआंगलौंग से इनका फोन आया था। ये जब भी बात करते तो या तो गन्‍ने के खेत को गाेड़ने-पटाने जा रहे होते या आ रहे होते। इनके पिता अरसा पहले मजदूरी करने बिहार से आसाम चले गये थे। गांव से पचास किलोमीटर दूर की किसी किताब की दुकान से इन्‍हें आलोक धन्‍वा का कविता संग्रह मिला था। इसके अलावे निराला, दिनकर आदि को पढा है इन्‍होंने।
पहले व्‍हाट्सएप्‍प पर इन्‍होंने कुछ तुकबंदियां भेजकर पूछा था कि क्‍या ये छप सकती हैं तो मैंने कहा कि कुछ और पढिए-लिखिए फिर कविताएं छपने लगेंगी। इन्‍हें किताबें भी भेजनी थीं मुझे पर कुरियर इनके गांव तक जाता नहीं है और डाक से अब तक भेज नहीं सका कुछ। धीरे-धीरे ये आभासी दुनिया के संपर्क में आये। त‍ब इन्‍हें किताबों की पीडीएफ, पत्रिकाएं भेजीं मैंने जिसे मोबाइल पर किसी तरह पढ पाना ही इनके वश में है।
इधर हाल के महीने में फेसबुक पर मैंने इनकी नयी कविताओं में जमीनी दर्द को शिद्दत से आकार पाते देखा तो उनकी कविताओं को कापी कर कहीं कहीं भाषा ठीक की। यूं अधिकांश जगह स्‍थानीय तथ्‍यों को आकार देती भाषायी संरचना से छेड़-छाड़ नहीं की मैंने।
शमशेर ने लिखा था बात बोलेगी ...हम नहीं ... भेद खोलेगी बात ही, तो चंद्र की कविताएं बोलती हैं और भेद भी खोलती हैं -

मैं प्यार करता हूं इस देश की धरती से..!

मैं प्यार करता हूं इस देश की धरती से
इस देश की धरती के हरे भरे वनों, जंगलों से,
वनों जंगलों में चहचहाने वाली तमाम चिड़ियों से,
इस देश की धरती के खेतों से
खेतों में खटने वाले वाले मजदूर किसानों से
मैं प्यार करता हूं

मैं प्यार करता हूं
जिनके हाथ श्रम  के चट्टानों से रगड़ रगड़ा कर
लहूलुहान हो चुके हैं
जिनकी पीठ और पेट एक में सट   चुके हैं
भूख व दुख  से
मैं प्यार करता हूं उनसे
जिनकी समूची देह
खतरनाक रोगों से कृषकाय  बन चुकी है

मैं प्यार करता हूं
मैं प्यार करता हूं
इस कपिली नदी से
इस कपिली  नदी  के तट पर के बांस -झाड़ियों से
जिनसे हमारी घरों  की  नीव  धंसी  - बनी
जिस नदी के सहारे
मैं और मेरा गांव और मेरे गांव की तमाम खेती-बाड़ी
जिंदा हैं

मैं प्यार करता हूं
प्यार करता हूं मैं
अपने हाथों के श्रम के धारे से

मैं प्यार करता हूं
गाय, बैल ,हल  ,हेंगा , जुआठ  , खुरपी -कुदाल से
प्यार करता हूं

मैं प्यार करता हूं उनसे
जिनकी समूची  देह  श्रम के लोहों   के  छड़ों  से
रूई सी बुरी तरह से धुना चुकी है

मैं प्यार करता हूं..
प्यार करता हूं  मैं....
अपनी इस जर्जर देह से
जिसकी अनमोल रतन दूही जा  चुकी  है !

कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती इस दुनिया में...

मेरी फटती छाती और पीठ पर
उउफ !
कितने  घाव  हैं

उउफ !
उउफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस  दुनिया में

कि  एक मामूली मजबूर मजूर  के घावों  के भीतर
टभकते
कलकलाते  मवाद को
धीरे -धीरे -धीरे- आहिस्ते  -आहिस्ते
और नेह -छोह  के साथ
कोई कांटा चुभो दे
फोड़ कर
उसे बहाने के लिए...उउफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस  दुनिया में .

ओह !
कितनी पराई दुनिया है ना 'मोहन'
कि समझती नहीं
कोमल आह
हमारे जैसे बेबस मजदूरों की !

उफ !
कि कोई अपना नहीं है अपनी सी लगती
इस  दुनिया में !

उसकी लहू -सी  लाल आंखों में..

उसकी  लहू -सी  लाल  आंखों में
खतरनाक शोषण  की  डरावनी निशानियां
दिखती थी...

मैं देख रहा था उसे कि तभी
 धाँय  से
चीखते हुए
भीतर बाहर पसीजते हुए
वहीं की पथरीली जमीन पर
बुरी तरह से गिर पड़ा था वह

और मेरे होठों पर
एक शब्द था

आह !

कभी कभी

कभी-कभी बापू की आंखों में
भयावह उदासी देखकर
इतना सहम  जाता हूँ
इतना सहम  जाता हूं

कि भीतर बाहर पसीज पसीज कर
चुपचाप रोने लगता हूं..
चुपचाप

और पिताजी तभी
मुझसे कहने लगते हैं
कहने  लगते हैं

कि
बाबू !
ई  ज़िनगी  है , जिनगी
ई  जिनगी  में
कभी  भी  दुख छप्पर फाड़ के ही आता है

लेकिन बाबू !
ई  जिनगी  में
कभी  भी  सुख  बहुत -बहुत कम ही आता है
बहुत बहुत कम ही !

जब  -जब मेरी माई  रोतीं  हैं !

जब -जब मेरी माई   रोतीं हैं
तब -तब ,
तब - तब ,
कल- कल , कल  -कल बहती हुई
कपिली - नदी माई  भी
चुपचाप -चुपचाप रोती  हैं

तब  -तब ,तब-  तब ,
धीमी धीमी
झीनी  झीनी
धरती  माई  भी
रोती  हैं

 तब  -तब
तब - तब
शिवफल  की शीतल छांव  में
बंधाई  हुई
छूटकी  खूँटियाँ  में
उदास  नन्हकी  बछिया भी
माँ -  माँ  , माँ -  माँ
बाँ -बाँ , बाँ  बाँ  चिघरते  हुए
रोने  लगतीं  है

तब  -तब ,
तब  -तब ,
झोपड़ी के मुरेड़ पर बैठी हुई प्यारी चिरईयाँ  भी
चिहूँ -चिहूँ , चिहूँ  -चिहूँ
रोने  लगती  हैं

और
तब -तब
तब -तब
मैं औरी  मोर अनपढ़ी बहिनि  भी
माई  का  लहूहुहान  हाथ - पांव पर उभरे  घावों  पर
बड़ी ही  सनेह  के साथ
अपना गर्म और सुंदर हाथ धर -धर के
झर -झर के
डर  -डर  के
कंहर  कंहर  के
आह्  उउफ  से
भर  -भर  के
मर  -मर  के
मर  -मर  के
रोने लगते हैं

रोने लगती है
कपिली नदी तट पर की
वंशी  सी
आहतम्यी  आवाज  में  बजती 
झुरमुट  -बांस  -झाड़ियाँ भी !

एे  पूंजीपति कवियों

एे पूंजीपति कवियों!

क्या तेरी महंगी-महंगी
और ब्रांडेड डायरियों में
जरा जगह नहीं
लिखने को
उनका नाम भी

जिनकी समूची  देह  से अंग -अंग से
लहू ,पसीना ,स्वेद -रक्त और आंसू
पूरी तरह से
बुरी  तरह से दूहे जा चुके हैं

और जिनकी  देह देह  नहीं रह गई है अब
जिनके नेत्र नेत्र नहीं रह गए हैं अब
जिनका मस्तक मस्तक नहीं रह गया है अब
जिनका हाथ हाथ नहीं रह गया है अब
जिनका पांव  पांव नहीं रह गया है अब
जिनका दांत दांत नहीं रह गया है अब
जिनकी छाती छाती नहीं रह गई है अब
जिनकी छाती की बाती बाती
रूई की तरह  धुनी जा चुकी है

जिनका पूरा शरीर
श्रम के लोहाें की मसलन से,
भय़ावह चिंता ,रोग, भूख  ,घोर -दुख की जलन से
खेतों में खटते हुए चुपचाप शहीदों जैसे मरण से
अब बची है कृषकाय
 मुट्ठी भर

उनके लिए
क्या तेरी कीमती कलमों  को लिखने को
टैम  नहीं है

चिकन बिरयानी खाकर  भी
लिखने की थोड़ी सी भी शक्ति नहीं  बची  है
आत्मा में

तुम सिगरेट और शराब पीने के बाद भी
लिखने के मूड में नहीं हो

या फुर्सत नहीं  है प्रेमिकाओं  के बारे में लिखने से

तो कहो ना साहब जी
मैं अपनी  देह  में बचा  लहू  का कतरा  भी
दे दूंगा तुम्‍हें
तुम्हारी  कलम के रिफिल में लाल स्याही के लिए !


मो - 9365909065
अटैचमेंट क्षेत्र
   
  

"तो, अब उसी  ईश्वर का श्राद्ध कर देना ! " - कुमार मुकुल

करीब एक साल से चंद्र नाम के इस मजदूर से परिचय है मेरा। पहले इसी ने कहीं से मेरा नंबर पा फोन किया था। भोजपुरी पुट वाली भाष्‍ाा में इसने बताया कि इसके पिता कभी बिहार से आसाम एक मजदूर के रूप में गये थे और वहीं बस गये। किसी तरह कुछ जमीन अर्जित की और अब चंद्र उसी के सहारे इलाके के लोगोें की जमीन पर काम करता जीता खाता है। जब भी उसका फोन आता तो या तो वह गन्‍ने के खेत को जा रहा होता या वहां से आ रहा होता।
वह लिखना पढना चाहता है। आलोक धन्‍वा का कविता संग्रह और एकाध किताबें उसके पास हैं। उसे कुछ किता‍बें भी भेजनी हैं पर जो उसका पता है कहीं दूर देहात का उस पर कुरियर नहीं जा रहा और डाकखाने जा उसे किताबें भेजने का समय अबतक निकाल नहीं पाया हूं।
उस समय उसने किसी के व्‍हाटसएप से अपनी कुछ तुकबंदियां भेजीं और पूछा कि क्‍या ये कहीं छप सकती हैं। मैंने पाया कि अभी उसे कुछ और पढना लिखना चाहिए, वह अच्‍छा लिख सकता है। फिर वह नेट पर कुछ समय देने लगा।
अब देख रहा कि वह अपनी पीड़ा को अभिव्‍यक्‍त कर पा रहा।

जनता का आदमी कविता में आलोक धन्‍वा लिखते हैं -
"अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है,  
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में..."
चंद्र की कविताएं भी भाषा और लय के बिना केवल अर्थ में आवाज देती कविताएं हैं।

यदि...(1)

यदि आपके घर में
आपका ही बड़ा लड़का
अपने ही घर के किसी कोने में टुटही खटिया या फटही चटाई
पर  लेटे हुए
कई महीनों -दिनों से फेफड़े के  असह्य दरद  पर
अपने जर्जर हाथ मलते -फेरते हुए
खूब जोर-शोर के साथ
खांस रहा  हो
इधर उधर
थूक -खखार रहा हो

और उस खांसी के खतरनाक बीमारी से
उस लड़के की पूरी  देह दिन- पर- दिन
कृषकाय  एकदम  हाड़  बनती  ज़ा  रही  हो

और उस समय
यदि आपके पास एकहू  रूपिया न हो
उस बीमार लड़के को
किसी अस्पताल में इलाज कराने हेतु

तब  आप क्या उपाय करेंगे
तब आप  किससे कर्जा -उधार  मांगेंगे
और कर्जा उधार भी
यदि मांगेंगे रोते गिड़गिड़ाते  हुए अपने गांव - गिराँव के किसी भी
सेठ या जमींदार या किसी भी हित-  मित  से  मांगेंगे

कि  हे! हे! हे !  हे!  साहब जी
दे  दो न ,दे दो न ,दे दो न,
दू  तीन  हजार  रूपिय़ा  ही  सही
दे दो न साहब जी

कि  हे  हे  हे  ....

कि  मोर  बचवा ,
मोर  सुगनवा
कहिये  से गंभीर खांसी से घुट-घुट के मर - मर रहा है
मऊअत  से बहुत-बहुत डर -डर  रहा है

कि  हे  हे  हे  हे  साहब जी
दे दो न,दे दो न...

कि फिर तो  आपका पईसा
हजीरा -मजदूरी करके किसी भी तरह से
चंद दिनों में दे ही देंगे
शुद्ध ब्याज सब जोड़- जोड़ के दे ही देंगे
दे ही देंगे.... मिहनत से अपना  हाड़ तोड़ तोड़ कर दे ही देंगे..

और यदि आपके मांगने पर
गांव -गिराँव  के
हित - मित
या कोई भी लोग

अपने  दुआरी  से ,
अपने  चौकठ से
कुत्ते जस दुत्कारते  हूए
यह कहने लगें
यह कहने लगें
कि -
तू  तो  मामुली  सा गरीब मजदूर है
मात्र  दू  सौ  का  पगार  ही
रोज  के  खूब खटनी  से  मिलता  है  तुझे

और तो और
उसी में अभी तेरा नून तेल  पिसान कपड़ा -लत्ता
का  खर्चा सब है

तब फिर मेरा दिया हुआ करजा
कईसे  लौटायेगा  तू रे !

अरे !रे !जा! जा !भाग !भाग!
नहीं  देंगें ,
 देगें  ही  नही  तुझे
एक  फूटी  कौड़ी  भी  नहीं  देंगे  तुझे  रे !

तब आप कौन सी  राह चुनेंगे
तब क्या आप पुराने बक्से में रखी हुई सल्फास की गोली खाकर
मर जाना चाहेंगे

य़ा  हजीरा -मजदूरी करके
उस लड़के का इलाज करा  सकेंगे

य़ा आप अपने गले में रसरी  की  फँसरी  लगाकर
किसी पेड़ पर झूल जाएंगे

य़ा  एक गिलास पानी में
खेती में कीड़े मारने वाले जहर का
एक  दू  ढक्कन मिलाकर
उस बीमार लड़के को ही
पिला कर
उसकी जान ले लेना चाहेंगे

या तब आप क्या करेंगे.
कौन सी राह चुनेंगे.....!

यदि ...(2)

यदि आपके घर में
कोई इधर  अ  ल  ल  ल  ल उल्टी कर रहा  हो
कोई उधर पेट के असहन दरद पर आहिस्ते -आहिस्ते
हाथ मलते- फेरते हुए
धूलि -धूसरित  जमीन पर लोटपोट के
और बहुत- बहुत छटपटाते हुए
सिर्फ रो रहा हो ..

यदि आपके घर में
कोई वहां किसी कोने में
टुटही खटिया पर  उउफ  आह
माई बाप चिल्लाते हुए
अपने कृषकाय  कलेजे पर हाथ मलते हुए
खूब जोर -जोर से खांस  और
 इधर  उधर थूक -खाखार  रहा  हो

यदि आपके घर में
आपके साथ साथ
सब परिवार के सदस्य गण
गंभीर ,भयावह और खतरनाक बीमारियों से ग्रस्त
आह माई
आह  माई
चीखते मिमियाते   हुए बुरी तरह से बेदम होते हुए
घूंट  घूंट  के
टूट  टूट  के
तड़फ  तड़फ  के
मर रहें  हों

और उस समय यदि
आपका काम-धाम और आपकी हजीरा -मजूरी
सब बंद व  थम  चुकें  हों

यदि  उस समय आपकी तिजोरी में
हजीरा -मजूरी  का एक भी पैसा -कौड़ी न बचा हो

यदि  उसी समय
एक मुट्ठी निमक , तेल और पिसान खरीद कर खाने के लिए
आपके घर में
एक फूटी कौड़ी न हो और रसोई घर में
उदास  चूल्हिय़ा
और खाली बर्तन चुपचाप सिर्फ रोते हों

यदि आप और आपके
बीमार परिवार को कोई भी
किसी भी अस्पताल में ले जाने वाला व्यक्ति न हो

यदि उस समय
आप और आपके
परिवार की  भयावह और चुप्पी में चीखती
बीमारियाँ देखकर
आस-पड़ोस के
जन  दुखित  न  होते हों
तरस  न खाते हों

और उस समय
यदि आप बीमार  रहकर  भी
किसी किसी तरह
अपने थरथराते  पांओं  से पैदल चलकर
किसी सेठ य़ा जमींदार या अपने गांव -गिराँव  के
लोगों से कर्जा -उधार मांगने गए
रोते -गिड़गिड़ाते  हुए कर्जा -उधार मांगने गए
और चीखते -चीखते  उनसे  यह कहने लग गये

कहने लग गये कि-
हे ! हे ! हे ! साहब जी
दे  दो  न , दे  दो  न साहब जी
दे दो न साहब जी
दे दो न साहब जी
चार  पांच  हजार रूपिया ही सही दे दो न साहब जी
दे दो न साहब जी,
दे दो न साहब जी

कि हम और हमारा पूरा परिवार बीमारी से
कुहुक - कुहुक  के
चुप-चाप
बेचारे  की  तरह
मर रहा है
मर रहा है
सूखे जर्जर पेड़ों की तरह
चुपचाप -चुपचाप ढ़ह -  ढ़ह  कर  मर रहे हैं
धूल की दीवारों की तरह भरभरा कर गिरते हुए
मिट्टी में मिलने को आतुर हैं

कि अब दे दो न साहब जी
दे दो न दू हजार ही सही...
कि हमें किसी भी अस्पताल में
थोड़ा सा इलाज कराना बहुत जरूरी है
जरूरी है बहुत इलाज कराना
हे  साहब जी

कि  हे  साहब जी हे! हे !हे!...

जब इलाज करा कर ठीक हो जाएंगे न
तब किसी भी तरह
हजीरा -मजुरी करके
आप का शुद्ध ब्याज जोड़कर लौटा देंगे ,लोटा ही देंगे.. साहब जी...!

किंतु,
इतना गिड़गिड़ा कर  भी
 करजा  रूपी भीख मांगने पर
इलाज कराने हेतु
दू  तीन  हजार  भी  न  देते  हुए
 अपने आंगन  -चौकठ -  दुआर से
कुत्ते जस दुतकार  दें
दुतकार  दें  कुत्ते  जस ...

तो सुनो !
हे ईश्वरों !
दुनिया के तमाम आदमियों सुनो!
सुनो !

हमारी दर्दनाक मौत के बाद
मत आना कोई
कोई मत आना
रोग से सड़ी और बिजबिजाती हुई
हमारी लाशों पर
इक  बित्ता  कफन भी ओढाने मत आना

मत आना , मत आना,
हाय राम हाय राम कहने
मत ही  आना.... और सुनो !
हमारा श्राद्ध भूल कर भी मत करना ,कराना मेरे दोस्त!

लेकिन हो सके तो
उस ईश्वर का श्राद्ध कर देना
जो अब  इस दुनिया में मर चुका है
मर चुका है बुरी तरह से ईश्वर

तो, अब उसी  ईश्वर का श्राद्ध कर देना !

मो - 9365909065

  
   
प्रस्तुतकर्ता कुमार मुकुल पर 9:30 pm कोई टिप्पणी नहीं:
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जो कवि 'टूटें सकल बन्ध कलि के,/ दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।' जैसी क्रांतिकारी आकांक्षा रखता रहा हो, उसके लिए ताउम्र विरोध सहता और संघर्ष करता रहा हो वही कवि 'वेदों का चरखा चला' लिख सकता था और गांधी से यह प्रश्न-व्यंग्य कर सकता था "बापू, तुम मुर्गी खाते यदि", वही हमें चेता सकता था कि देखो राजे ने जो कुछ भी किया उससे और कुछ नहीं अपनी रखवाली की, और इस सबसे अगर हमें मुक्ति पानी है तो हमें 'महंगू' की शक्ति पर भरोसा रखना होगा और 'महंगू' को महंगा बने रहना होगा - रामजी राय

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'नहीं'

यह 'नहीं' मेरी सोच और अस्मि‍ता का मूलाधार बना है। हालांकि मैं छोटे-छोटे मौकों पर कभी नहीं कह नहीं पाता पर एक बार अगर अंतर्मन में 'नहीं' गूंज गया तो फिर मैंने उसे जीवन में कभी नहीं बदला। यह 'नहीं' मेरी अन्तर्शक्ति‍ है। इस नहीं को मैं अपने लिए भी इस्तेमाल करता हूं और इसका उपयोग मैंने बार - बार अपने जिंदगी के अहम संदर्भों में भी किया है। शायद यही वजह है कि मैं अपना जीवन अपने मुताबिक जी सका हूं। मुश्किलें बार.बार आईं लेकिन इस 'नहीं' के कारण कभी पछतावा नहीं आया - कमलेश्वर, यादों के चिराग

यथार्थबोध

रघुवीर सहाय की कविताओं में यथार्थ उनके अपने अनुभवों तक सीमित रहता है, ...अक्सर यह लगता है कि वह उन्हीं से परिभाषित भी होता है।...उनकी अधिकांश कविताओं में अगर स्त्री का करुण या दयनीय रूप ही उभरता है तो यह उनके यथार्थबोध पर एक विपरीत टिप्पणी भी मानी जा सकती है। एक बड़ा कवि सिर्फ अपनी ही तरफ और एक ही तरह नहीं देखता; अपने चारों ओर, दूसरों की तरफ और दूर-दूर तक भी देखता है - कुँवर नारायण

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आत्मवक्तव्य - कुमार मुकुल

हम हैं , इसी से कविता है / यह हमारे होने का प्रमाण है / कविता मैं से / तुम या वह होने की छटपटाहट है /... यह सिखलाती है / कि नियॉन लाइट्स की रौशनी / हमारे अंतर का अंधकार / दूर नहीं कर सकती /कि ध्वनि या प्रकाश के वेग से /दौड़ें हम /धरती लंबी नहीं होने को /... यह बंदूक की नली से /भेड़िए और मेमने का फर्क करना / सिखलाती है /कविता /तय करती है कि कब / चूल्हे में जलती लकड़ी को /मशाल की शक्ल में थाम लिया जाए / या अन्य ढेर सारी गांठें / जिन्हें कोई नहीं खोलता / कविता खोलती है /जहां कहीं गति है / वहीं जीवन है / और कविता भी।.....सभ्यता और जीवन -1987....

करीब चौबीस-पच्चीस साल पहले कविता को इसी तरह परिभाषित किया था मैंने, और आज भी कविता के मायने बदले नहीं हैं मेरे लिए। किशोर से युवा होने के क्रम में हर व्यक्ति के जीवन में वह समय आता है जब वह चाहता है कि वह नहीं उसकी बात बोले, उसका एक जुदा अंदाजे बंया हो। यहीं से कविता की शुरूआत होती है। अपनी एक निजी पहचान और उसे जन-जन से जोड़कर व्यापक विस्तार देने की ईच्छा से ही कविता का जन्म होता है। पर यह ईच्छा कितनी मजबूत है और क्या आखीर तक इसे कायम रखा जा सकता है, इसी पर एक कवि होने की बुनियाद होती है। कोई बात जब मन को छू जाती है तो लोग कहते हैं - वाह, क्या बात कहीं है...। तो यह अच्छी लगने वाली बतकही ही कविता है। कविता एक फार्म है, बातों के लिए। मूल है बात, जो आपने कही है। उसके संदर्भ जीवन-जगत से कितने जुड़े हैं वही आपकी बात को एक अर्थ और गरिमा प्रदान करते हैं।

विचार, आत्मीयता, कह पाने का साहस, युगबोध, वैज्ञानिकता और इन्हें उनकी द्वंद्वात्मकता और विडंबना के साथ चित्रित कर पाने का विवेक ही एक कवि को उसके समय के पार जानेवाली प्रासंगिकता प्रदान करते हैं। जहां तक राजनीतिक होने की बात है, मेरी हर सांस मेरे जीवित रहने की राजनीति करती है। मेरी अधिकांश कविताएं राजनीतिक हैं। यहां तक कि प्रेम और प्रकृति से संबंधित कविताएं भी। मेरी कविता धूमिल के तीसरे आदमी के खिलाफ और गांधी के अंतिम आदमी की पक्षधर है। वह नेरूदा की तरह तथाकथित भले लोगों को चेतावनी और विचार का एक मौका हमेशा देना चाहती है। वह ब्रेष्ट की तरह जनरलों को उनके मजबूत टैंकों के नुक्स बता देना चाहती है। वह पाश की तरह प्यार करने और जीने पर ईमान ले आने को एक ही मानती है। उसने सुकान्त भट्टाचार्य की तरह हवा का हाथ देखा है। इनके अलावा मेरे प्रिय कवियों में रिल्के, पास्तरनाक, मरीना स्वेतायेवा, टैगोर, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि हैं और वॉन गॉग, रूसो, सार्त्र-सीमोन और प्रेमचंद का जीवन मुझे आकर्षित करता है।

Mukuls poetic expressions

Mukuls poetic expressions

समकालीन कविता

कुमार मुकुल ने विष्णु खरे पर विचार करते हुए मुक्त‍िबोध, रघुवीर सहाय, आदि के जिस फर्क को रेखांकित किया है, वह विचारणीय है। ... निर्णय सुनाने के बजाय अगर वे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो उनका गद्य और महत्वपूर्ण बनेगा - राजेश जोशी, समकालीन कविता, 2005

कुमार मुकुल की समीक्षा पठनीय लगी। इधर समीक्षा पढना अरुचि ही उपजाता रहा है - पढना ही बंद कर दिया है। वही घि‍सी पिटी बातें और दावे जो किसी पर भी चस्पां किए जा सकते हैं, जिस पर लिखा जा रहा है, उसे यथातथ्य पढने की अक्षमता। इस समीक्षा को पढना सुखद आश्चर्य था कि कविता को कैसे पढना, क्यों पढना यह उसे आता है और अपने पढे हुए से पढने के दूसरे अनुभवों से, इस पढने को जोडना भी सार्थक ढंग से। अलग बात है कि 'क्या' ? उससे हम सहमत हों, न हों- दोनों ही हालात में समीक्षक की तैयारी पर, खरेपन पर शक नहीं होता - रमेशचन्द्र शाह, समकालीन कविता, 2005


अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं - सुधीर सुमन

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एक पत्र

प्रिय कुमार मुकुल जी,
आपकी आलोचना पुस्तक की पांडुलिपि लौटा रहा हूं। आपने इसे पढने का अवसर मुझे दिया यह मेरी खुशकिस्मती है। मुझे लगता है कि जब यह पुस्तक रूप में आयेगी तो हिंदी संसार में व्यापक स्तर पर इसका स्वागत होगा। दलबद्धता या शिविरबद्धता से दूर, मुक्त हृदय और पैनी दृष्टि से कवि के संसार में उतरने का यह सामर्थ्य किसी को भी प्रभावित करेगा। एक गहरी अन्तदृष्टि की बिना पर आप बिना लाग-लपेट बडी तीक्ष्णता और स्पष्टता के साथ अपनी बात कहते हैं और यह आलोचना का साहस है। इस साहस में एक गहरी सहृदयता भी मुझे दिखाई दे रही है। हमलोग एक ऐसे दौर में हैं जब वरिष्ठों के भी कथन की विश्वसनीयता आज संदिग्ध हुई है लेकिन इस बुरे समय में अच्छी आलोचना के गुण ही हमारे सारे लिखने-पढने के कार्य को एक सार्थकता दे सकते हैं। मुझे आपकी इस आलोचना पुस्तक को पढते हुए सचमुच आनंद आया है। आप मित्र हैं इसलिए यह नहीं कह रहा हूं। ( साहित्य में यूं भी मित्रताओं का यह बहुत विश्वसनीय समय नहीं रह गया है। गणित ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं।) आपको पुनः एक बार बधाई। इसे जल्दी से जल्दी किसी अच्छे प्रकाशक से छपवा लें ताकि यह आम पाठकों तक भी सही तरीके से पहुंच जाये। आशा है आप सानंद होंगे।
आपका
विजय कुमार 26: 6: 2007

अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता की समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है - प्रकाश

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