यतीश कुमार के पहले कविता संकलन 'अंतस की खुरचन' की पहली कविता
#किन्नर दिखलाती है कि भारतीय समाज की जड़ता कैसी प्रचंड है। भारत की हजार
वर्षो की गुलामी की जड़ में यही जड़ता है जो तमाम मनुष्य को मनुष्य की
श्रेणी से बाहर रखने का अपना-अपना तर्क लिए चलती है, जिससे देश के भीतर
तमाम देश बनते जाते हैं लिंग, जाति, धर्म के तमाम देश -
न तो कोई गांव
न तो कोई शहर
मेरा समूह ही मेरा देश
यतीश कुमार की कविताओं
से गुजरते यह लगा कि उनकी दृष्टि अक्सर सरसरी तौर पर स्थितियों को देखते
गुजर जा रही, टिक कर देखना या निहारना अभी कम है उनके यहां, जिसे
ज्ञानेंद्रपति अच्छी कविता का गुण बताते हैं। किन्नर, दस्तक, मेरी बच्ची, मां की सहेलियां और पिता सीरीज की कुछ कविताओं में जहां टिक कर देखना है वहां कवि बुद्धि की बेलगामी को नियंत्रित करता अंतरलय को साधता है, फिर भाव अपना रंग बांधते हैं और कविता खुलती है -
मुस्कुराहट के कोर पर
चिंताओं की झुर्रियां
चुपके से काबिज हो रही हैं
जबकि आदम बनने का
सफर तय करना अभी बाकी है
कवि के पास ज्ञान पर्याप्त है पर उस के दबाव में एक तरह की बेहतरतीबी पैदा होती दिखती है जहां-तहां, जो कविता
को उस तरह सहज नहीं होने देती जैसी कि उससे आशा की जाती है। ज्ञान का
आश्रय लेकर कवि मार-तमाम चीजों का भाष्य उपस्थित करता है, यह कवि की
सूक्तिकार होने की संभावना की ओर इंगित करता है। इस लिहाज से मैं कवि की
पंक्तियों का उसी के लिए प्रयोग करना चाहूंगा -
ज्यादा चमकदार चीजें
आंखों में समा नहीं पातीं
लकदक चेहरे की बत्ती
थोड़ी धीमी कर लो
यूं कवि से आशा बंधती है क्योंकि वह कविता में अभी भी ढूंढ रहा है - कर्ता क्रिया कर्म। नया सोच कवि को छूता है और उसे पहचानने व जगह देने की हिम्मत है कवि में -
आज मैं भी पिता हूं
और खुद में तुम्हारे उपस्थिति
जानता और पृथक करता रहता हूं
न्यूनतम तुम अब मेरी पहचान है
कुल मिलाकर मैं #अष्टभुजा-शुक्ल के कथन से सहमत हूं कि वह यतीश कुमार में विचलन को हुनर में बदल देने की संभावना देखते हैं।
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