इधर कवि पत्रकार प्रेमचंद गांधी का ‘कलमकार मंच’ से प्रकाशित कविता संग्रह “उम्मीद के अश्वारोही” पढ़ रहा। इन कविताओं में वैचारिक दृढ़ता का आधार लिए एक तरह की दर्शनिकता कई जगह सर उठाती दिखती है –
कोई बताये
मैं उस पृथ्वी का क्या करूंगा
जिसका हरा, नीला, आसमानी और खाकी रंग
हथियारों के साये में जमा कर दिया गया है।
हालांकि कई कविताओं में दर्शन कुछ स्पष्ट रूख नहीं दर्शा पाता और कविता का अंत कवि को एक सरल तुकबंदी में करना पड़ता है –
स्वार्थ के घड़े हम
इस तरह एकान्त में सड़ें हम।
संकलन की अधिकांश कविताओं के माध्यम से कवि जीवन-जगत के कुछ मौलिक सवाालों को संघर्ष की मुखर मुद्राएं सौंपता है –
लोग लड़ाइयों में मरेंगे तो
फूलों का कारोबार बढ़ेगा और
उसी तादाद में ताबूतों का ...।
अरसा पहले किसी दक्षिण भारतीय कवि की कुछ पंक्तियां मन में अटकी रह गयी थीं जिनमें कहा गया था कि – ‘हर घर में कवि की रसोई बनती है और सभी उसके कपड़े पहनते हैं।’ मतलब कवि लोगों को जीवन जीने की तहजीब सिखलाता है। प्रेमचंद गांधी की एक कविता कवि की रसोई कुछ इसी तरह की बात को एक अलग धरातल पर जुदा ढंग से सामने रखती है –
अभावग्रस्त लोगों की उम्मीदों के
अक्षत हैं मेरे कोठार में
हिमशिखरों से बहता मनुष्यता का
जल है मेरे पास दूध जैसा
प्रेम की शर्करा है
कभी न खत्म होने वाली...।
एक सहज जीवन जीने की उत्कंठा कवि में मौजूद है जो जीवन की तमाम विभीषिकाओं के बावजूद इसी धरती पर जीने और अपनी जड़ें फैलाने को प्रेरित करती हैं –
जहां एक पत्ता झड़ता है
तो नई कोंपलें फूटने लगती हैं
मैं इसी पृथ्वी पर रहना चाहता हूं
जहां कुदरत से खिलवाड़ करने वालों ने
मौसम का चक्र बदल दिया है ...।
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