कविता, कहानी, आलोचना

कुमार मुकुल के नोट्स

कविता अंत:सलिला है

गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्‍हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्‍तकों से पहले साइबर स्‍पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्‍योंकि कविता कम शब्‍दों मे ज्‍यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्‍हें मैं फिर नया विश्‍वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्‍वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्‍यक्‍त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्‍तर पर कविता का कोई विकल्‍प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्‍ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्‍द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्‍टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्‍वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्‍तव्‍य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्‍कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्‍म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्‍दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्‍य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्‍या जिस दिल्‍ली में वे बहुसंख्‍यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्‍ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्‍टालों पर हिन्‍द पाकेट बुक्‍स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्‍यादा स्‍पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के‍ कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्‍वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्‍यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्‍योंकि 'कहीं भी खत्‍म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल

मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

अंतस की खुरचन

यतीश कुमार के पहले कविता संकलन 'अंतस की खुरचन' की पहली कविता #किन्नर दिखलाती है कि भारतीय समाज की जड़ता कैसी प्रचंड है। भारत की हजार वर्षो की गुलामी की जड़ में यही जड़ता है जो तमाम मनुष्य को मनुष्य की श्रेणी से बाहर रखने का अपना-अपना तर्क लिए चलती है, जिससे देश के भीतर तमाम देश बनते जाते हैं लिंग, जाति, धर्म के तमाम देश -


न तो कोई गांव 
न तो कोई शहर
मेरा समूह ही मेरा देश

यतीश कुमार की कविताओं से गुजरते यह लगा कि उनकी दृष्टि अक्सर सरसरी तौर पर स्थितियों को देखते गुजर जा रही, टिक कर देखना या निहारना अभी कम है उनके यहां, जिसे ज्ञानेंद्रपति अच्छी कविता का गुण बताते हैं। किन्नर, दस्तक, मेरी बच्ची, मां की सहेलियां और पिता सीरीज की कुछ कविताओं में जहां टिक कर देखना है वहां कवि बुद्धि की बेलगामी को नियंत्रित करता अंतरलय को साधता है, फिर भाव अपना रंग बांधते हैं और कविता खुलती है -
मुस्कुराहट के कोर पर 
चिंताओं की झुर्रियां 
चुपके से काबिज हो रही हैं 
जबकि आदम बनने का 
सफर तय करना अभी बाकी है 

कवि के पास ज्ञान पर्याप्त है पर उस के दबाव में एक तरह की बेहतरतीबी पैदा होती दिखती है जहां-तहां, जो कविता को उस तरह सहज नहीं होने देती जैसी कि उससे आशा की जाती है। ज्ञान का आश्रय लेकर कवि मार-तमाम चीजों का भाष्य उपस्थित करता है, यह कवि की सूक्तिकार होने की संभावना की ओर इंगित करता है। इस लिहाज से मैं कवि की पंक्तियों का उसी के लिए प्रयोग करना चाहूंगा -

ज्यादा चमकदार चीजें 
आंखों में समा नहीं पातीं 
लकदक चेहरे की बत्ती 
थोड़ी धीमी कर लो

यूं कवि से आशा बंधती है क्योंकि वह कविता में अभी भी ढूंढ रहा है - कर्ता क्रिया कर्म। नया सोच कवि को छूता है और उसे पहचानने व जगह देने की हिम्मत है कवि में - 

आज मैं भी पिता हूं 
और खुद में तुम्हारे उपस्थिति 
जानता और पृथक करता रहता हूं 
न्यूनतम तुम अब मेरी पहचान है

कुल मिलाकर मैं #अष्टभुजा-शुक्ल के कथन से सहमत हूं कि वह यतीश कुमार में विचलन को हुनर में बदल देने की संभावना देखते हैं।

 

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लोकतंत्र अभी भी सपनों में पलता एक इरादा है

बीमारी के लंबे समय ने माहेश्वर को कविता से ज्यादा जोड़ा। किसी कवि की पंक्तियों का भाव यह था कि मैं सारे मोर्चों पर लड़ूंगा पर मरने के लिए खुद को कविता के मोर्चे पर छोड़ दूंगा। महेश्वर ने यही किया। कविता का मोर्चा, स्वप्नों का, भविष्य का मोर्चा होता है और स्वप्न निर्णायक नहीं होते, स्वप्नों के लिए लड़ाई निर्णायक हो सकती है।


महेश्वर के लेखन का बड़ा हिस्सा बच्चों और स्त्रियों पर केंद्रित है। अपनी एक कविता में वे उस दिन की कल्पना करते हैं जब पुरुषों का रुआब और उनकी डपट सब गर्क हो जाएंगे और –

फूलों की घाटी को
अपने लहूलुहान पैरों से
हमवार करती हुई
…
वह आएगी
एक विजेता की तरह
…
घाटी में सूरज उगाती हुई …

बच्चों को वे एक ऊष्मा प्रतीक के रूप में देखते हैं। ‘ इस कमरे में ‘ कविता का पहला पैरा कवि की संवेदनात्मक सुग्राहयता को दर्शाता है –

टूटे काँच की खिड़कियों से छिद कर
फुदक आता है धूप का दुधमुंहा बच्चा
कुछ देर बिस्तर पर लगाता है लोट
फिर पलटी मार कर छू लेता है
मटमैले फर्श पर पसरी धरती की धूल।

जीवन की उष्मा से ऊर्जस्वित धूल में खिलता यह फूल महेश्वर के सिवा और कौन हो सकता है।

‘रोशनी के बच्चे ‘ कविता में वे आम जन को रोशनी का बच्चा संबोधन देते हैं। व्यवस्था की चक्की में पिस कर भी उसकी रोटी के लिए अपना खून सुखाती जनता को महेश्वर से बेहतर कौन जान सकता है, यह उनकी कविता पंक्तियों से जाना जा सकता है –

उनकी बिवाइयों से फूटते हैं संस्कृति के अंकुर
…
उनके निर्वासन से डरता है स्वर्ग

जीवन के अंतर्विरोधों से लड़ता कवि जब अपने अंतर्द्वंद्व से परेशान हो जाता है तो एक आदिम सवाल दोहराता है –

क्या है प्रकाश और अंधकार का रिश्ता
एक के बाद एक के आने में
कहां हैं जीवन के छुपे गुणसूत्र।

‘दर्द’ महत्वपूर्ण कविता है माहेश्वर की जो कभी के जीवट को दर्शाती है। साधारण व्यक्ति का दर्द उसको तोड़ता है पर महेश्वर का दर्द नसों को रस्सी की तरह बंट देता है उसे और जटिल बना देता है –

वह एक ही सूत्र में
पिरो देता है
अनास्था और विश्वास

क्या इस जीवन की जटिलता का कोई अंत भी है, कवि खुद से सवाल करता है और अनिश्चितता के व्यामोह में फंसता एक करुण, खोया सा जवाब देता है –

ओह, अभी वह बाकी है …

यहां दूर किसी सुरंग से आती हुई मालूम पड़ती है कवि की आवाज।

‘कल की आहट’ महेश्वर की एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें वह अपने ग्राम समाज से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप और एक ध्रुवीयता को प्रचारित करती विश्व की राजनीति पर गंभीरता से विचार करते हैं। उसकी खामख्यालियों से जूझते हुए वे देखते हैं कि –

लोकतंत्र अभी भी सपनों में पलता एक इरादा है

जिसे जमीन पर लाना है। इस सपने के लिए कवि के भीतर जो जीवट है वह रोगशैया पर भी धूमिल नहीं पड़ता। वह लिखता है –
और चाहे तुम्हारे फेफड़ों का साथ छोड़ गई हो
सारी की सारी हवा
मगर मेरे देश की पसलियों में जिंदा है आने वाले कल का चक्रवात।




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जीवन-जगत के सवाल और संघर्ष की मुखर मुद्राएं

 

 इधर कवि पत्रकार प्रेमचंद गांधी का ‘कलमकार मंच’ से प्रकाशित कविता संग्रह “उम्मीद के अश्वारोही” पढ़ रहा। इन कविताओं में वैचारिक दृढ़ता का आधार लिए एक तरह की दर्शनिकता कई जगह सर उठाती दिखती है –

कोई बताये

मैं उस पृथ्‍वी का क्‍या करूंगा

जिसका हरा, नीला, आसमानी और खाकी रंग

हथियारों के साये में जमा कर दिया गया है।

हालांकि कई कविताओं में दर्शन कुछ स्‍पष्‍ट रूख नहीं दर्शा पाता और कविता का अंत कवि को एक सरल तुकबंदी में करना पड़ता है –

स्‍वार्थ के घड़े हम

इस तरह एकान्‍त में सड़ें हम।

संकलन की अधिकांश कविताओं के माध्‍यम से कव‍ि जीवन-जगत के कुछ मौलिक सवाालों को संघर्ष की मुखर मुद्राएं सौंपता है –

लोग लड़ाइयों में मरेंगे तो

फूलों का कारोबार बढ़ेगा और

उसी तादाद में ताबूतों का ...।

अरसा पहले किसी दक्षिण भारतीय कवि की कुछ पंक्तियां मन में अटकी रह गयी थीं जिनमें कहा गया था कि – ‘हर घर में कवि की रसोई बनती है और सभी उसके कपड़े पहनते हैं।’ मतलब कवि लोगों को जीवन जीने की तहजीब सिखलाता है। प्रेमचंद गांधी की एक कविता कवि की रसोई कुछ इसी तरह की बात को एक अलग धरातल पर जुदा ढंग से सामने रखती है –

अभावग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों के

अक्षत हैं मेरे कोठार में

हिमशिखरों से बहता मनुष्‍यता का

जल है मेरे पास दूध जैसा

प्रेम की शर्करा है

कभी न खत्‍म होने वाली...।

एक सहज जीवन जीने की उत्‍कंठा कव‍ि में मौजूद है जो जीवन की तमाम विभीषिकाओं के बावजूद इसी धरती पर जीने और अपनी जड़ें फैलाने को प्रेरित करती हैं –

जहां एक पत्‍ता झड़ता है

तो नई कोंपलें फूटने लगती हैं

मैं इसी पृथ्‍वी पर रहना चाहता हूं

जहां कुदरत से खिलवाड़ करने वालों ने

मौसम का चक्र बदल दिया है ...।




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सोमवार, 26 दिसंबर 2022

रिवर्स फायर

राकेश राय ( Rakesh Raj ) का डेढ़ सौ पेज का उपन्यास 'रिवर्स फायर' मैं तीन-चार बैठकी में पढ़ गया। एक सांस में पढ़ ली जाने वाली किताबों में इसे शामिल किया जा सकता है। यह एक पिस्टल की आत्मकथा है, जो जयंत नामक व्यक्ति के यहां जन्म लेती है और कई हाथों में घूमती कई लोगों को शिकार बनाती अंततः अपने पहले मालिक जयंत को भी अपना शिकार बनाती है। इसी अर्थ में यह रिवर्स फायर है। 
घोषित तौर पर उपन्यास का लक्ष्य यह सिद्ध करना है कि हथियारों से दुनिया में किसी का भला नहीं हो सकता, उसके मालिकों का तो कतई नहीं। 
उपन्यास के जिन पात्रों के हाथ में पिस्टल लगती है वह सब किसी न किसी मजबूरी में ही उसका प्रयोग करते हैं और सिद्ध यह होता है कि हिंसा सामाजिक, आर्थिक और मानसिक उपक्रमों की उपज होती है। जन्म से कोई हिंसक नहीं होता। हां, किसी समस्या से निजात पाने की हड़बड़ी में अचूक उपाय के रूप में जो लोग इस हथियार को हासिल करने की जुगत भिड़ा उसका प्रयोग करते हैं वे अशिक्षा ग्रस्त समाज का हिस्सा हैं। 
उपन्यास के सारे पात्र ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि के हैं। उनमें अधिकांश पेशेवर अपराधी नहीं हैं। उपन्यास अपराध के प्राथमिक कारकों की सफल विवेचना करता है। यह एक तरह से किशोर से युवा होते वर्ग के तनाव और तनावजनित हिंसा को अपना आधार बनाता है। 
उपन्यास के पात्र जिनके हाथों में पिस्टल घूमती है उनकी रोचक कहानियों का संकलन सा है यह। इनमें जैक्सन चोर की कहानी विस्तृत है और प्रभावी भी। जैक्सन की कहानी दर्शाती है कि किस तरह एक सामान्य जीवन जी रहे व्यक्ति को समय के संकट ध्वस्त करते हैं और अपनी जमीन से बेदखल किया जाकर वह अपनी जाति, बिरादरी, धर्म को खोता हुआ अंततः अपने गांव को छोड़ एक बंजारे में तब्दील हो जाता है। 
उपन्यास समाज के निम्न मध्यवर्गीय हिस्से के संकटों के आर्थिक कारकों की शिनाख्त करता है। उपन्यास को उसके स्थापत्य के आधार पर चेतन भगत और गुलशन नंदा के मध्य की कड़ी के रूप में रखा जा सकता है। आगे राकेश ज्यादा समर्थ ढंग से नई विश्लेषणात्मक जमीन को अपना आधार बनाएंगे यह आशा उनसे की जा सकती है।
प्रस्तुतकर्ता अमरेन्‍द्र कुमार पर 8:10 pm कोई टिप्पणी नहीं:
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लेबल: उपन्‍यास, कुमार मुकुल, राकेश राय

32000 साल पहले

Rakesh Raj के रोचक उपन्यास 'रिवर्स फायर' से गुजरने के बाद Ratneshwar Singh के उपन्यास '32000 साल पहले' से गुजरना काफी थकाने वाला साबित हुआ। यह किताब भेंट में मिली थी तो उसे पढ़कर राय जाहिर करने का दबाव था, नहीं तो सहज जंग से 10 पेज पढ़ पाना भी मेरे लिए कठिन होता।  

उपन्यास की सामग्री किशोर स्तर की है और भाषा के लिहाज से यह किशोरों के लिए भी बहुत नीरस है। 
 
कुछ शोध अनुमानों को लेकर कल्पना की जो उड़ान रत्नेश्वर ने भरी है उसमें एक पक्ष की नायिका गरुड़ जैसे पक्षी पर उड़ान भरती है तो दूसरे शत्रु पक्ष के लोग सिंह और भेड़ियों पर सवार होकर हमला करते हैं। 
 
ऐसा माना जाता है कि हमारा बोला हुआ हर शब्द वातावरण में मौजूद रहता है। इसी को आधार बनाकर यह उपन्यास रचा गया है। उपन्यास के पात्र अपने वैज्ञानिक उपकरणों से 32000 साल पहले के मनुष्यों की आवाजों को डीकोड करते हैं और उस काल की कथा आकार पाती है। उपन्यास गरुड़ की सवारी करने वाले किन्नर कबीले और सिंह और भेड़ियों की सवारी करने वाले परा कबीले के युद्ध से आरंभ होता है। आगे परा के हमलों से खुद को बचाने को पांच कबीले एक होकर परा को नष्ट करने की योजना बनाते हैं। बीच में मैमथ के शिकार पर एक अध्याय है। अंत तक आते-आते उपन्यासकार प्रेम की महिमा प्रकट करने में लग जाता है और परा को प्रेम से जीत लेने का भाव पैदा होता है। इसके आगे उपन्यास जारी है, मतलब दूसरे भावी अप्रकाश्य भाग में कहानी आगे बढ़ेगी। 
 
उपन्यास को पढ़ते हुए कुछ चालू अंग्रेजी फिल्मों की फंतासी दिमाग में उभरती है। पक्षियों पर उड़ान भरने, मैमथ का शिकार करने और ईसा मसीह की मृत्यु दंड पर आधारित फिल्मों से लिए गए कुछ दृश्य जहां-तहां जड़े गए से लगते हैं। 
 
आह, ओह, आउच की शैली में लिखा गया यह उपन्यास अगर फिल्माया जाए तो अंग्रेजी चालू फिल्मों जैसा कुछ मनोरंजन संभव है। 
 
उपन्यास में कुछ विचित्र शब्दों का प्रयोग जहां-तहां है। जैसे, बिग भूकंप, पता नहीं यह क्या है, शायद यह बिग बैंग की पैरोडी है। 
 
दो मित्रों की राय इस किताब पर मैंने जानने की कोशिश की, पर उनमें कोई भी किताब के दस पेज भी पढ़ने की हिम्मत नहीं दिखा सका। यूं मेरे और मेरे मित्रों की समझ की सीमा है, मित्र रत्नेश्वर माफ करेंगे।

 

प्रस्तुतकर्ता अमरेन्‍द्र कुमार पर 7:54 pm कोई टिप्पणी नहीं:
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लेबल: उपन्‍यास, कुमार मुकुल, रत्‍नेश्‍वर

सोमवार, 16 अगस्त 2021

自我批評的詩想連結了世界與地方

庫瑪.穆庫爾(Kumar Mukul)

一一資深記者、詩人、評論家

在台灣資深詩人和評論家李敏勇的詩𥚃,好幾次看到葉子, 初始我覺得那是一片綠葉,但當我讀著他的詩〈流亡的畫家〉時,我理解那是一片枯葉,這首詩 象徵性地描述一個單純的人生相對一種現代人生。 這是一個人與其降附寧願選擇活在自己價值的一種流亡,與其像我們一様生活在母親自然的懐抱,有些詩人和畫家尋求他方。
但那真實嗎? 沒有市場發展刺穿每個自然的而然的到臨,這就是察覺的事實。 他在下面這首詩〈汙染〉提及:

「堂皇的理由是為了發展
發展就砍伐了裁植的希望

死滅的土地
曝曬著發臭的鳥禽的屍體」

枯葉在李敏勇的詩𥚃是建立在記憶上面的綜合象徵,它立基於種子之上,而且像詩人所想的, 它的長壽保護了困難形勢。

「落葉是樹寫給大地的遺書」

一一〈落葉〉

〈如果你問起〉是李敏勇一首呈現他對母國的詩人之愛美麗的詩。我們都必須有這樣的愛,在我們考慮到世界宛如一家之前就要這樣(梵文語錄)。在這首詩裡,李敏勇對天空訴説天空如同他國家的父親,而海是母親。 而且在回憶他國家的過去時成為鼓舞。

「如果你問起
島嶼台灣的過去
我會告訴你
血淚滴淌在歷史的足跡」

一一〈如果你問起〉

大多國家都有他們滴淌血淚的過去。在這首詩的末尾,他説未來要靠你,而且你要堅定腳步並且踏出開拓的路。
不論是台灣或是印度,每個國家的人民愛他們國家是一樣的。 這種自我鞭策的鼓舞力量連結各自國家到世界,對任何國家是唯一正確的路。
在他的詩〈邊界〉可以看到李敏勇想定置自由,沒有一個真正的詩人會忍受障礙他生活在無限寬廣的際遇。李敏勇謹慎地處理當下課題,污染以及噪音之魔惡。
李敏勇不喜歡反自然的生活風格,不論是以信仰、宗教或思想之名。他在〈女人〉這首詩這麼説:

「胸前垂下十字架以
女人喲
意圖成為聖母的思想
在妳的腦海𥚃
穿蝕著我的心」

李敏勇詩集一些詩有無關圖畫和事實的拼貼,雖然是無關連感,但卻有印象影響。印度詩人像拉吉維爾.薩海(Raghuveer Sahay,1929-1990,印地語詩人、散文家、翻譯家、文學評論家,一九八四年獲印度文學家獎)就寫了一些這樣的詩。甚至我自己也有這種作品。可以這麼說,想到這兩位詩人是多麼棒一件事。相互陌生,生活在世界不同角落,想的一樣。
有誰不受到大海或汪洋的無際無涯王國影響?所有的詩人都會想看 它,確認它。李敏勇的海是他自己,那不像海嘯來襲,也像美一樣確認是恐怖的。李敏勇的詩〈海〉,一様訴說來自海洋深處的哭泣之聲:

「海啊
在妳奧藍的底部
究竟淤積多少人間的憂愁呢」

閲讀李敏勇的詩,印地語詩人沙姆謝爾(Shamher) 、亞格野雅(Agyeya,1911-1980 ,印地語詩人、小說家)等人,來到心中。
他連結愛和自然,能洞觸生命的尖銳狀況。他能聽見樹枝與葉片呼吸的聲音。
翻譯是艱難的工作,而詩的翻譯需要特別的才具。沙德偉是努力工作和辛勤的學習者。這幾年我認識他,他是一位非常隨和的詩人和散文家。他專注於各種大氣知識。翻譯是連結兩種語言和國家的重要工作。我們期許沙德偉持續這樣以工作,謹予祝福。(李譯)




प्रस्तुतकर्ता कुमार मुकुल पर 6:40 am कोई टिप्पणी नहीं:
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गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

पुट्ठों तक मार खाई गाय की घृणा - कुमार मुकुल

विजयकांत की कहानियों से गुजरते स्मृति में पिछले वर्षों सहरसा कमिश्नरी में दुर्गा पूजा के अवसर पर घोड़े दौडाते मररों की याद कौंध जाती है। दौड़ आज भी जारी है, हर हर महादेव के नारे लगाते वह घुड़सवार सहरसा की गलियां रौंद डालते थे, फिर तेल पिलाई देह वाले यह बैठक बाज कुश्ती लड़ते थे। फिर आपस में ही इनामों का बंटवारा कर कोशी के कछारों में भाल- संभाल को वापिस हो जाते थे। सब जानते होते कि यह बांध के भीतर के खगड़िया- पूर्णिया- सहरसा जिलों के डकैत हैं। प्रशासन हर बार दंगे आदि की आशंका से इस दौड़ पर पाबंदी की तैयारी करता पर सब व्यर्थ जाता। यह शक्ति प्रदर्शन इसलिए होता कि वहां के दबंग मरर नेता की जमीन सहित मंदिर और आसपास की मेले की जमीन एक दलित हिंदू की जमीन दखल कर प्राप्त की गई थी।
विजयकांत की कहानियां कोसी के कछारों के इन्हीं खूंरेजी से भरे क्षेत्रों की पीड़ा और तडप से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। अविश्वसनीयता की हद तक पहुंची ये क्रूरताएं आज भी वहां की पिछड़ी जनता की दैनिकी है
प्रेमचंद ने किसानों के आम जीवन के संघर्ष को अपनी कहानियों में उतारा था पर आम और खास के अलावे किसी भी गिनती में ना आने वाली अंधेरी परती जमीन की कथा को पहली बार रेणु ने उद्घाटित किया था और सभी चौके थे कि यह परती थी कहां। विजयकांत समर्थ ढंग से परती की परतें हैं दरकाते हैं और परीकथा के तिलिस्म को बेध यथार्थ की छिपी तहों को उपर लाते हैं, उसे एक गढाव, धार और दिशा देते हैं। वे माखुन भगत को कोसी पार पहुंचा कर दम लेते हैं।
' ब्रह्मफांस की कहानियों के पात्र एक समग्र चरित्र हैं, वर्गों के द्वंद्व  को उसकी सांद्रता में उद्घाटित करते हुए। कथा में पात्र की छोटी-छोटी हरकतों को भी कथाकार भाषा के बारीक धागों में कातता जाता है पर ऐसा करते कभी वह अराजक ढंग से समाज और व्यवस्था से पात्र के बहुआयामी संबंधों को किनारा करने की कोशिश नहीं करता। यहां संतुलन ऐसा है जैसे हम किसी कठिन कथा को फिल्माते देख रहे हों।
बान्ह, माखुन भगत, ब्रह्मफांस और जाग संग्रह की प्रमुख कथाएं हैं। बान्ह मतलब बंधक या गिरवी से है। सवर्ण व्यवस्था में किस तरह एक दलित अपनी आत्मा को बंधक रख देता है और कैसे आत्महत्या और संघर्ष में संघर्ष को चुनता है। यही इस कथा का केंद्र है। किस तरह सवर्णों की अपसंस्कृति सवर्णों से इतर जातियों का सपना बन गई है। इसे भी कथा सूक्षमतापूर्वक उजागर करती है। यह प्रवृत्ति आज की राजनीति में भी घटित होते दिखती है। पिछले वर्षों में तमाम राज्यों में सवर्णों से इतर जातियों का कब्जा सत्ता पर हुआ और सवर्णों का रंग ढंग अपनाकर वे अपनी पकड़ खोते चले गए। आखिर जिस राह चलकर सवर्णों ने 45 वर्षों बाद सत्ता खो दी, उन्हें मूल्य बनाकर पिछड़े कितनी दूर जा सकते थे। 
बान्ह के  सनीफ मियां जमीन का आखिरी टुकड़ा उदरस्थ करने की कोशिश जब धनेसर मिसिर करता है तो सनीफ की मूल चिंता जमीन का टुकड़ा बचाना नहीं अपने बिरादरी के मुखिया भोजू मियां की इज्जत बचाने होती है। धनेसर भी इसी इज्जत की आन जगा उसे लूटता है। वह बोलता है - " बनो मत मौलाना "  पंजे की तरह लहराई मिसिर की आंखें " हजार रुपए तो यों झाड़ दो तुम फेंटे से।" और आन में अंधा सनीफ मिसिर की आंखें नहीं देख पाता और जमीन का आखरी टुकड़ा भी बंधक चढ़ा देता है। आन का यह अंधापन उसे अपने हमवर्ग की शक्ल भी पहचानने से रोकता है। जब याकूब कहता है - " मजाक आप खुद कर रहे अपने साथ ? जानते न थे धनेसर मिसिर को ? जान - बूझकर फांसी डाल ली तो अब चीखते क्यों हैं ?" तब तिलमिला कर चीखते हैं सनीफ मियां - " मुझसे जुबान लडाता है ? खानदान के लिए फांसी मैं न चढ़ूंगा तो क्या तू अपनी गर्दन बढ़ाएगा कमीने !  मेरे साथ ही मिट जाएगी भेाजू मियां की आबरू !  पता है मुझे ! तू तो धब्बा है, धब्बा। बेहूदा और बदशकुन धब्बा। नीचों ने तेरी मती मार दी।" और लूट की जमीन छुड़ाने में वहीं याकूब जब मददगार साबित होता है तब भी सनी़फ की भाषा उन्हीं पुरखों का शरण लेती है - " कैसा बताह छौंडा है ! अभी मार रहा था और अब कुर्बान होने आ गया है ... आखिर है तो भॊजू मियां की नस्ल।
सनीफ की आंख तब खुलती है जब धनेसर मिसिर उसके कटोरे में डाला गया निवाला उसकी नरेटी में हाथ डाल निकालने लगता है और जब उसकी इज्जत लुट जाती है। खोने को प्राणों के सिवा शेष नहीं होता कुछ तब पुट्ठों तक मार खायी गाय की घृणा लौटती है और लठैतों से पिटता सनीफ उछलकर धनेसर की गर्दन पकड़ लेता है और ऐंठता चला जाता है। 
बाकी तीनों कथाओं में भी जमीन की आखिरी लड़ाई केंद्र में है। हालांकि चारों कथाओं के पात्रों में पेशागत भिन्नता है। " बान्ह "  में कुछ बीघे का जोरदार सनीफ मियां है तो " बलैत माखुन भगत " में मंदिर में पशुओं की बलि देने वाला भगत है, " ब्रह्मफांस " में संपेरा रगन उस्ताद है तो " जाग " में नौटंकी पार्टी का सुरखी मास्टर। सब की लड़ाई अस्तित्व की आखिरी लड़ाई है जिसमें अपना सब कुछ खोने की कीमत पर व्यक्ति के भीतर से संघर्ष का चेहरा उभरता है जो विकसित होकर सामाजिक संघर्ष का पर्याय हो जाता है।
संग्रह की शीर्षक कहानी " ब्रह्मफांस " में सामंती चरित्रों की निर्धनों, बंजारों के जीवन से खेलने की अमानवीय वृत्ति को दर्शाया गया है। इनमें वे निर्धनों को निर्धनों के ही विरुद्ध चारा की तरह इस्तेमाल करते हैं। रगन सपेरे को जब अपने करतबों के लिए कृपण दादा ठाकुर से भारी इनाम का लोभ मिलता है तो उसकी पत्नी सज्जो उसे समझाती है - " डर, बड़हन के बेमालूम राग से डर।"  पर रगन चाल में आ ही जाता है। और उसका उपयोग पड़ोस की जमीन में बने बिसो शाह के मिट्टी के घरों को सांप निकलवाने के बहाने ढहाने में किया जाता है। आजीवन विषैले सर्पों को साधने वाले रगन उस्ताद के पास दादा ठाकुर के जहर की कोई काट नहीं, तभी तो वह बोलता है - " बिखबल का मद है वरना इस बेसउरे, निकम्मे को तो ठौर नहीं मिलता।" अंत में पसीने से गुंथे अपने मिट्टी के घरों को ढहते देख बिसो साह रगन उस्ताद पर ही पिल पड़ता है और बेचारे रगन को अपना इनाम तो क्या मिलता अपना डेरा डंडा सब छोड़ भागना पड़ता है। यही है नाग फंसेत रगन को ब्रह्मफांस में फंसाने की कहानी।
" ब्रह्मफांस " में विजयकांत की भाषा और शिल्प अपने चरम पर है। संवादों का आरोह - अवरोह और गढ़ाव ऐसा है मानो भंवर की उठती - गिरती लहरों को जमा दिया गया हो। क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा को बचाकर उसका स्वभाषा में उपयोग और स्थानीय मुहावरों का चित्रात्मक ढंग से उपयोग विजयकांत को एक विशिष्ट और जुदा पहचान देता है।
विजयकांत की प्रचलित कहानी " बलैत माखुन भगत " में पात्र के पूरे जीवन को ही सलीके से समेटा गया है। जिसमें अंधविश्वास का कुहासा और उसे फाड़ती अस्तित्व की लड़ाई और जीवन का राग विराग सब अपने अपने चरम स्वरूप में हैं। कंगन भरी कलाइयों, नथनी जड़े नाक, झूमर भरे कानों का मंदिर में पंडित भैरव ठाकुर, सामंत बब्बन मरर और देवी मैया के बीच बंटवारा हमारे जनतंत्र में जैसे दूसरी दुनिया की कहानियां लगती हैं पर आज भी कोसी के भीतर के इलाकों में जहां सड़कें कोसी की मार सह नहीं पातीं, घोड़े दौड़ा मररों के चरित्र निर्मूल नहीं हुए हैं। चार-पच वर्ष पूर्व की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, जिसमें ट्रेन के कई डिब्बे कोसी के गर्भ में समा गए थे, से बचे हुए मरे - अधमरे लोगों का आसपास के इलाके के लोगों द्वारा अमानवीय ढंग से लूट लिए जाने की घटना दूर की बात नहीं है। घुड़सवारों द्वारा इन इलाकों में आए दिन होती ट्रेन डकैतियां भी विजयकांत की कहानियों के नजर आते थे तिलस्म का हिस्सा हैं। 
सुपौलीचक जगतारणी जगदंबा के नाम सारी भूमि लिखकर बबन मरर कोशी पार के भूमि संघर्ष की हवा को लौटा देता है। पर उसी जगदंबा के समक्ष पशुओं की बलि देने वाले माखुन भगत के पुत्र और पत्नी लखिया की जब देवी के पुजारी बलि चढ़ा देते हैं तब बचपन से बलि का बकरा बने माखुन के दैवी विश्वास की पगही टूट जाती है और जड़ देवी के प्रति उसकी भाषा विवर्ण हो जाती है - " लखी को याद करता वह कहता है - " देख, मैं कैसा बदला लेता हूं तेरी दुर्गति का, कैसा अंत करता हूं जगदंबा और उसके भडुए भैरों ठाकुर का! जंगल में अधमरा कर फेंक दिये गए पुत्र को जब बाघ खा जाता है तो पगली होकर देवी की सवारी प्रचारित बाघ के सामने मरने जा पहुंची लखिया की भक्ति भी काफूर हो जाती है और वह बोलती है - " अरे भवानी, तू मैया नहीं पतुरिया है बांझ पटुरिया ! ... आखिर पानी सर से ऊपर आता है और पशुओं की बलि देता माखुन भगत पंडित और मरर की बलि चढ़ा जगदंबा की मूर्ति ढाह भागकर कोसी पार के संघर्ष में शामिल हो जाता है। 
संग्रह की अंतिम कहानी है " जाग "। इसकी तुलना रेणु की कहानी " मारे गए गुलफाम " से की जा सकती है। रेणु की कहानी में जहां एक रूमानी पृष्ठभूमि में गांधीवादी आदर्श है वहां जाग में एकता और जागरण है। रेनू के हिरामन और हीराबाई एक बेबस चरित्र हैं। वे अपने संघर्ष और अकांक्षा की दिशा मोड़ कर अंतर्मुखी रोमानीपन में डुबो देते हैं पर जाग का सुरखी मास्टर और राधा अपनी अकांक्षा को अपने अस्तित्व की लड़ाई से जोड़ते हैं, उसके लिए लड़ते हैं, अंतिम सांस तक।  अंत में जनता भी उनके साथ हो जाती है। " मारे गए गुलफाम " में दुख में डूबा हिरामन कहता है -" हर रात किसी न किसी के मुंह से सुनता है वह, हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह।" विदा होते वक्त हीराबाई कहती है -" तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है, क्यों मीता ? महुआ  घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरु जी!" यहां हिरामन का दुख है कि किस से लड़े वह और हीराबाई बिक जाती है। वही जाग में राधा चीखती है -" मैं अर्टिस्ट बनना चाहती हूं मास्टर दुनिया मुझे रंड बनाने पर तुली है।" और मास्टर सुरखी चीखता है -" ना आ... कोई ताकत नहीं जो तुझे रंडी बना सकती।" "चींथ डालूंगा मदन तुझे चबा जाऊंगा, जो हाथ लगाया उसे ...।" यहां संबोधनों में भी अंतर है। रेणु के यहां हीराबाई है जबकि जाग में राधा सिर्फ राधा है। उसे भी बाई बनाया जा सकता था पर यहां कथाकार अपने संघर्ष के प्रति सजग है, भाषा के स्तर पर भी। अंत में जाग के दर्शक भी पात्रों के संघर्ष में शामिल हो जाते हैं। " हजारों के लब खुल गए और लफ़्ज़ मुट्ठी की तरह बस्ती के आसमान पर टंग गया है -" आजादी! मदना! तेरे काबिज़ से आजादी! और वे चल पड़े!" 
इनके अलावा संग्रह में " राह " और " कोई महफूज नहीं " दो कहानियां हैं जिनमें हिंदू मुस्लिम, सिख दंगों की दरिंदगी और उससे निपटते जुम्मन मियां और तिलेसर की कहानियां हैं। क्रूर दंगाइयों से वृद्ध जुम्मन मियां अकेले लड़ते हैं और उनकी शहादत से दंगाइयों में कई का हृदय परिवर्तन होता है। दंगे जैसी विडंबना से निपटने की शायद यही एक राह बच जाती है। इसी राह का अनुसरण कर गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे।
विजयकांत की कहानियों की बड़ी ताकत संकरी राहों में चुस्त हरकत करती उनकी भाषा है। एक पकठाई भाषा जो अपने गट्ठिल हाथों हमारे घुटनों में जा छिपे विवेक को बाहर खींच लाना चाहती है - खींच लाती है।






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लेबल: कुमार मुकुल, ब्रह्मफांस, विजयकांत

शनिवार, 28 मार्च 2020

स्त्री​ की​ अनिवार पीड़ा की आत्मीय अभिव्यक्ति​यां

नूतन गुप्ता की कविताएं मनुष्य ​की​,​ स्त्री​ की​ अनिवार पीड़ा की आत्मीय अभिव्यक्ति​यां हैं​। कठोर सच को भी आत्मीय ढंग से प्रस्तुत करना इनकी खूबी है​।​ आधुनिक समाज में भी एक स्त्री की सामान्य दिनचर्या​ तेज​ थपेड़ों ​से ऐसा आकार प्राप्‍त करती  है जिसमें राग छूटता दिखता है, जिसमें ​एक स्त्री का दिन​ -​
बिना ठोकर लगे
कभी पूरा नहीं होता​।​
​'​सत्य​'​ कविता स्त्री जीवन के इस बैरागी होते पक्ष को सामने रखती है​-​
शमशान के सामने से
गुजरते हुए
कभी-कभी मन करता है
यहां खड़ी र​हूं​​ कुछ देर ​​
और देखती र​हूं​​
​उन ​क्षणिक वैरा​गियों को
​जिनकी सूरत पर
वैराग्य मेहमान बनकर उत्तरा है
शमशान की ओर पीठ होते ​ही
यह मेहमान अपने घर का
हो जाएगा​।​
स्त्री को स्त्री के जीवन में फैले श्मशान को​​ यह कविता कितने मार्मिक और शास्त्री​य​ ढंग से रखती है​।
​नूतन के यहां सचेत स्त्री की पीड़ा अपने अनंत रूपों में सामने आती है।​ कविता के शिल्प को तोड़ती वह बाहर झांकती दिखती है​।​ हालांकि नूतन की भाषा कसी है​,​ फालतू के शब्द वहां नहीं हैं पर पीड़ा है कि वह ​अंट नहीं पाती शब्दों में​ सो शब्दों के बीच भी ​पसरती चलती है​।​
मैं ​...
​आज भी कुछ ऐसे शब्दों की प्रतीक्षा में हूं
जो जैसे कहे जाएं
उन्हीं अर्थों में
मुझ तक पहुं​चें।​​
नूतन की स्पष्ट​वादिता यहां मुखर है​।​ जीवन के अंतर्विरो​धों​,​ विडंबना​,​ त्रासदी ​को ​नूतन ​की कविताएं ​बारहा अभिव्यक्त करती हैं ​-
​इंसानों जैसी कठपुतलियां
देखने में ​​अच्छी
रोचक लगती हैं
​...​परंतु कठपुतलियों जैसे इंसान
कभी भले लगे आज तक ​?​
नूतन के सवाल मौलिक हैं जो तवज्जो खोजते हैं​। उनके चित्र बोलते हैं ​-
​बरखा थमी
राहगीर गायब
पतियों से पानी
झड़ता रहा
बड़ी देर​।​
​यहां ​झड़ते हुए दुख को आप देख सकते हैं​।​
​नूतन की कविताओं में​ ऊहापोह के भी दर्शन होते हैं​।​ ऐसे में एक कविता का कथ्य दूसरी में उसके विपरीत जाता दिखता है​।​ जैसे​,​ ​'​आत्मघात​'​ कविता में वे लिखती हैं​-
​फिर निकल पड़े हो
ऐसी ही एक और
यात्रा पर
क्या आत्मघाती हो​।
​पर ​'​निरंतर​'​ कविता में लिखती हैं ​वे -
​​ये​ सफर कड़वाहट देता है
या ​मर्माहत करता है​।​
कुछ कविताओं के निहितार्थ ​से असहमति भी है मेरी​।​ जैसे ​'​रुदन​'​ कविता में वे लिखती हैं​-​
अपना क्रंदन
मुझे स्वयं स्वयं करना चाहिए​।​
​यहां चाहिए शब्द खटकता है​।​ क्रंदन हमारी चाहत का मामला नहीं होता​,​ वह फूटता है जैसे हंसी फूट​ती है​।​ इसी तरह ​'​अंततः​'​ कविता में वे लिखती हैं​-
शव
प्राणी का हो
या संबंधों का
जीवंतता समाप्त होने पर
सड़ने लगता है​।​
मुझे लगता है​ कि शव प्राणियों के हो सकते हैं​,​ संबंधों के नहीं​।​ संबंध मृत पड़ने लगते हैं​।​ मुझे लगता है ​कि ​इससे आगे जो सड़ने लगता है वह संबंध नहीं होता​।​ यह बराबरी का बंधन है वह होगा या नहीं होगा​।​ आत्मीयता​,​ प्रेम​,​ विडंबना​,​ विडंबना​,​ त्रासदी​ की चितेरा नूतन की निगाहें आने वाले दिनों पर ​​भी हैं​-​
कोई उन्माद
किसी को कहां तक
पहुंचा देगा
आने वाले दिनों में
बारूद की गंध
कुछ लोगों की मनपसंद खुशबू बनने वाली है​।​

पुस्तक ​- ​जुगनू मेरे शब्द ​​
नूतन गुप्ता
बोधी प्रकाशन
जयपुर
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'निराला'

जो कवि 'टूटें सकल बन्ध कलि के,/ दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।' जैसी क्रांतिकारी आकांक्षा रखता रहा हो, उसके लिए ताउम्र विरोध सहता और संघर्ष करता रहा हो वही कवि 'वेदों का चरखा चला' लिख सकता था और गांधी से यह प्रश्न-व्यंग्य कर सकता था "बापू, तुम मुर्गी खाते यदि", वही हमें चेता सकता था कि देखो राजे ने जो कुछ भी किया उससे और कुछ नहीं अपनी रखवाली की, और इस सबसे अगर हमें मुक्ति पानी है तो हमें 'महंगू' की शक्ति पर भरोसा रखना होगा और 'महंगू' को महंगा बने रहना होगा - रामजी राय

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'नहीं'

यह 'नहीं' मेरी सोच और अस्मि‍ता का मूलाधार बना है। हालांकि मैं छोटे-छोटे मौकों पर कभी नहीं कह नहीं पाता पर एक बार अगर अंतर्मन में 'नहीं' गूंज गया तो फिर मैंने उसे जीवन में कभी नहीं बदला। यह 'नहीं' मेरी अन्तर्शक्ति‍ है। इस नहीं को मैं अपने लिए भी इस्तेमाल करता हूं और इसका उपयोग मैंने बार - बार अपने जिंदगी के अहम संदर्भों में भी किया है। शायद यही वजह है कि मैं अपना जीवन अपने मुताबिक जी सका हूं। मुश्किलें बार.बार आईं लेकिन इस 'नहीं' के कारण कभी पछतावा नहीं आया - कमलेश्वर, यादों के चिराग

यथार्थबोध

रघुवीर सहाय की कविताओं में यथार्थ उनके अपने अनुभवों तक सीमित रहता है, ...अक्सर यह लगता है कि वह उन्हीं से परिभाषित भी होता है।...उनकी अधिकांश कविताओं में अगर स्त्री का करुण या दयनीय रूप ही उभरता है तो यह उनके यथार्थबोध पर एक विपरीत टिप्पणी भी मानी जा सकती है। एक बड़ा कवि सिर्फ अपनी ही तरफ और एक ही तरह नहीं देखता; अपने चारों ओर, दूसरों की तरफ और दूर-दूर तक भी देखता है - कुँवर नारायण

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  • कुमार मुकुल

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देश और उनके झंडे


आत्मवक्तव्य - कुमार मुकुल

हम हैं , इसी से कविता है / यह हमारे होने का प्रमाण है / कविता मैं से / तुम या वह होने की छटपटाहट है /... यह सिखलाती है / कि नियॉन लाइट्स की रौशनी / हमारे अंतर का अंधकार / दूर नहीं कर सकती /कि ध्वनि या प्रकाश के वेग से /दौड़ें हम /धरती लंबी नहीं होने को /... यह बंदूक की नली से /भेड़िए और मेमने का फर्क करना / सिखलाती है /कविता /तय करती है कि कब / चूल्हे में जलती लकड़ी को /मशाल की शक्ल में थाम लिया जाए / या अन्य ढेर सारी गांठें / जिन्हें कोई नहीं खोलता / कविता खोलती है /जहां कहीं गति है / वहीं जीवन है / और कविता भी।.....सभ्यता और जीवन -1987....

करीब चौबीस-पच्चीस साल पहले कविता को इसी तरह परिभाषित किया था मैंने, और आज भी कविता के मायने बदले नहीं हैं मेरे लिए। किशोर से युवा होने के क्रम में हर व्यक्ति के जीवन में वह समय आता है जब वह चाहता है कि वह नहीं उसकी बात बोले, उसका एक जुदा अंदाजे बंया हो। यहीं से कविता की शुरूआत होती है। अपनी एक निजी पहचान और उसे जन-जन से जोड़कर व्यापक विस्तार देने की ईच्छा से ही कविता का जन्म होता है। पर यह ईच्छा कितनी मजबूत है और क्या आखीर तक इसे कायम रखा जा सकता है, इसी पर एक कवि होने की बुनियाद होती है। कोई बात जब मन को छू जाती है तो लोग कहते हैं - वाह, क्या बात कहीं है...। तो यह अच्छी लगने वाली बतकही ही कविता है। कविता एक फार्म है, बातों के लिए। मूल है बात, जो आपने कही है। उसके संदर्भ जीवन-जगत से कितने जुड़े हैं वही आपकी बात को एक अर्थ और गरिमा प्रदान करते हैं।

विचार, आत्मीयता, कह पाने का साहस, युगबोध, वैज्ञानिकता और इन्हें उनकी द्वंद्वात्मकता और विडंबना के साथ चित्रित कर पाने का विवेक ही एक कवि को उसके समय के पार जानेवाली प्रासंगिकता प्रदान करते हैं। जहां तक राजनीतिक होने की बात है, मेरी हर सांस मेरे जीवित रहने की राजनीति करती है। मेरी अधिकांश कविताएं राजनीतिक हैं। यहां तक कि प्रेम और प्रकृति से संबंधित कविताएं भी। मेरी कविता धूमिल के तीसरे आदमी के खिलाफ और गांधी के अंतिम आदमी की पक्षधर है। वह नेरूदा की तरह तथाकथित भले लोगों को चेतावनी और विचार का एक मौका हमेशा देना चाहती है। वह ब्रेष्ट की तरह जनरलों को उनके मजबूत टैंकों के नुक्स बता देना चाहती है। वह पाश की तरह प्यार करने और जीने पर ईमान ले आने को एक ही मानती है। उसने सुकान्त भट्टाचार्य की तरह हवा का हाथ देखा है। इनके अलावा मेरे प्रिय कवियों में रिल्के, पास्तरनाक, मरीना स्वेतायेवा, टैगोर, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि हैं और वॉन गॉग, रूसो, सार्त्र-सीमोन और प्रेमचंद का जीवन मुझे आकर्षित करता है।

Mukuls poetic expressions

Mukuls poetic expressions

समकालीन कविता

कुमार मुकुल ने विष्णु खरे पर विचार करते हुए मुक्त‍िबोध, रघुवीर सहाय, आदि के जिस फर्क को रेखांकित किया है, वह विचारणीय है। ... निर्णय सुनाने के बजाय अगर वे विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो उनका गद्य और महत्वपूर्ण बनेगा - राजेश जोशी, समकालीन कविता, 2005

कुमार मुकुल की समीक्षा पठनीय लगी। इधर समीक्षा पढना अरुचि ही उपजाता रहा है - पढना ही बंद कर दिया है। वही घि‍सी पिटी बातें और दावे जो किसी पर भी चस्पां किए जा सकते हैं, जिस पर लिखा जा रहा है, उसे यथातथ्य पढने की अक्षमता। इस समीक्षा को पढना सुखद आश्चर्य था कि कविता को कैसे पढना, क्यों पढना यह उसे आता है और अपने पढे हुए से पढने के दूसरे अनुभवों से, इस पढने को जोडना भी सार्थक ढंग से। अलग बात है कि 'क्या' ? उससे हम सहमत हों, न हों- दोनों ही हालात में समीक्षक की तैयारी पर, खरेपन पर शक नहीं होता - रमेशचन्द्र शाह, समकालीन कविता, 2005


अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की आलोचना बहस के लिए उकसाती है। खासकर दो या कभी कभी तीन कवियों को आमने सामने रखकर तुलना करते हुए जो निर्णय वे सुनाते हैं, उसमें अच्छी कविता और बुरी कविता का जो वर्गीकरण होता है, उस वर्गीकरण से बहसें रह सकती हैं। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उनकी आलोचना पाठक को हिंदी कविता के व्यापक संसार से परिचित कराती जाती है। जिन कवियों और कविताओं को कुमार मुकुल परशुरामी मुद्रा में ध्वस्त करते हैं, उनके प्रति भी एक जिज्ञासा पनपती है कि जरा उस कविता को देखा जाए एक बार, जिससे मुकुल इतना क्षुब्ध हैं - सुधीर सुमन

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एक पत्र

प्रिय कुमार मुकुल जी,
आपकी आलोचना पुस्तक की पांडुलिपि लौटा रहा हूं। आपने इसे पढने का अवसर मुझे दिया यह मेरी खुशकिस्मती है। मुझे लगता है कि जब यह पुस्तक रूप में आयेगी तो हिंदी संसार में व्यापक स्तर पर इसका स्वागत होगा। दलबद्धता या शिविरबद्धता से दूर, मुक्त हृदय और पैनी दृष्टि से कवि के संसार में उतरने का यह सामर्थ्य किसी को भी प्रभावित करेगा। एक गहरी अन्तदृष्टि की बिना पर आप बिना लाग-लपेट बडी तीक्ष्णता और स्पष्टता के साथ अपनी बात कहते हैं और यह आलोचना का साहस है। इस साहस में एक गहरी सहृदयता भी मुझे दिखाई दे रही है। हमलोग एक ऐसे दौर में हैं जब वरिष्ठों के भी कथन की विश्वसनीयता आज संदिग्ध हुई है लेकिन इस बुरे समय में अच्छी आलोचना के गुण ही हमारे सारे लिखने-पढने के कार्य को एक सार्थकता दे सकते हैं। मुझे आपकी इस आलोचना पुस्तक को पढते हुए सचमुच आनंद आया है। आप मित्र हैं इसलिए यह नहीं कह रहा हूं। ( साहित्य में यूं भी मित्रताओं का यह बहुत विश्वसनीय समय नहीं रह गया है। गणित ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं।) आपको पुनः एक बार बधाई। इसे जल्दी से जल्दी किसी अच्छे प्रकाशक से छपवा लें ताकि यह आम पाठकों तक भी सही तरीके से पहुंच जाये। आशा है आप सानंद होंगे।
आपका
विजय कुमार 26: 6: 2007

अंधेरे में कविता के रंग

कुमार मुकुल की यह कृति समकालीन हिंदी कविता की समझने की मुख्यधारा की दृष्टि के बरक्स एक वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करती है। यह दृष्टि गिरोहबंदी और तमाम किस्म के पूर्वग्रहों से मुक्त और पारदर्शी है। लेखक की विवेचना पद्धति और चुनाव भी विश्वसनीय है। हमारे समय के घोर अंधेरे में सच्ची कविता अब भी है जहां-तहां चमक रही है। उसके विविध रंगों को कुमार मुकुल की इस पुस्तक ने सफलतापूर्वक उभारकर हमारे सामने रखा है। समकालीन हिंदी कविता की विविधआयामी छटा का दिग्दर्शन करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक है - प्रकाश

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