कविता अंत:सलिला है
गेटे ने कहा है कि जीवन और प्रेम को रोज जीतना पडता है। जीवन और प्रेम की तरह कविता भी उन्हीं के लिए है जो इसके लिए रोज लड सकते हैं। पहली बात कि कविता का संबंध उसे जिये जाने, लिखे जाने और पढे जाने से है ना कि बेचे जाने से। फिर आज इंटरनेट के जमाने में प्रकाशक अप्रासंगित हो चुके हैं न कि कविता। अब कवि पुस्तकों से पहले साइबर स्पेश में प्रकाशित होते हैं और वहां उनकी लोकप्रियता सर्वाधिक है, क्योंकि कविता कम शब्दों मे ज्यादा बातें कहने में समर्थ होती है और नेट की दुनिया के लिए वह सर्वाधिक सहूलियत भरी है।
कविता मर रही है, इतिहास मर रहा है जैसे शोशे हर युग में छोडे जाते रहे हैं। कभी ऐसे शोशों का जवाब देते धर्मवीर भारती ने लिखा था - लो तुम्हें मैं फिर नया विश्वास देता हूं ... कौन कहता है कि कविता मर गयी। आज फिर यह पूछा जा रहा है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उूर्जा का कोई भी अभिव्यक्त रूप मरता नहीं है, बस उसका फार्म बदलता है। और फार्म के स्तर पर कविता का कोई विकल्प नहीं है। कविता के विरोध का जामा पहने बारहा दिखाई देने वाले वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव भी अपनी हर बात की पुष्टी के लिए एक शेर सामने कर देते थे। कहानी के मुकाबले कविता पर महत्वपूर्ण कथाकार कुर्तुल एन हैदर का वक्तव्य मैंने पढा था उनके एक साक्षात्कार में , वे भी कविता के जादू को लाजवाब मानती थीं।
सच में देखा जाए तो आज प्रकाशकों की भूमिका ही खत्म होती जा रही है। पढी- लिखी जमात को आज उनकी जरूरत नहीं। अपना बाजार चलाने को वे प्रकाशन करते रहें और लेखक पैदा करने की खुशफहमी में जीते-मरते रहें। कविता को उनकी जरूरत ना कल थी ना आज है ना कभी रहेगी। आज हिन्दी में ऐसा कौन सा प्रकाशक है जिसकी भारत के कम से कम मुख्य शहर में एक भी दुकान हो। यह जो सवाल है कि अधिकांश प्रकाशक कविता संकलनों से परहेज करते हैं तो इन अधिकांश प्रकाशकों की देश में क्या जिस दिल्ली में वे बहुसंख्यक हैं वहां भी एक दुकान है , नहीं है। तो काहे का प्रकाश्ाक और काहे का रोना गाना, प्रकाशक हैं बस अपनी जेबें भरने को।
आज भी रेलवे के स्टालों पर हिन्द पाकेट बुक्स आदि की किताबें रहती हैं जिनमें कविता की किताबें नहीं होतीं। तो कविता तो उनके बगैर, और उनसे पहले और उनके साथ और उनके बाद भी अपना कारवां बढाए जा रही है ... कदम कदम बढाए जा कौम पर लुटाए जा। तो ये कविता तो है ही कौम पर लुटने को ना कि बाजार बनाने को। तो कविता की जरूरत हमेशा रही है और लोगों को दीवाना बनाने की उसकी कूबत का हर समय कायल रहा है। आज के आउटलुक, शुक्रवार जैसे लोकप्रिय मासिक, पाक्षिक हर अंक में कविता को जगह देते हैं, हाल में शुरू हुआ अखबार नेशनल दुनिया तो रोज अपने संपादकीय पेज पर एक कविता छाप रहा है, तो बताइए कि कविता की मांग बढी है कि घटी है। मैं तो देखता हूं कि कविता के लिए ज्यादा स्पेश है आज। शमशेर की तो पहली किताब ही 44 साल की उम्र के बाद आयी थी और कवियों के कवि शमशेर ही कहलाते हैं, पचासों संग्रह पर संग्रह फार्मुलेट करते जाने वाले कवियों की आज भी कहां कमी है पर उनकी देहगाथा को कहां कोई याद करता है, पर अदम और चीमा और आलोक धन्वा तो जबान पर चढे रहते हैं। क्यों कि इनकी कविता एक 'ली जा रही जान की तरह बुलाती है' । और लोग उसे सुनते हैं उस पर जान वारी करते हैं और यह दौर बारहा लौट लौट कर आता रहता है आता रहेगा। मुक्तिबोध की तो जीते जी कोई किताब ही नहीं छपी थी कविता की पर उनकी चर्चा के बगैर आज भी बात कहां आगे बढ पाती है, क्योंकि 'कहीं भी खत्म कविता नहीं होती...'। कविता अंत:सलिला है, दिखती हुई सारी धाराओं का श्रोत वही है, अगर वह नहीं दिख रही तो अपने समय की रेत खोदिए, मिलेगी वह और वहीं मिलेगा आपको अपना प्राणजल - कुमार मुकुल
सोमवार, 26 दिसंबर 2016
एक बादशाह की प्रेम कहानी - कुमार मुकुल
गुरुवार, 22 दिसंबर 2016
फैज - अंधेरे में सुर्ख लौ
आपबीती को पढकर यह जाहिर होता है कि फैज का जीवन सहज नहीं था। उन्होंने जिंदगी में काफी उठा-पटक देखी थी। उनके पिता उन्हें बताया करते थे कि बचपन में वे चरवाहे थे फिर आगे वे जिंदगी की चढान चढते गए और कैंब्रिज में पढाई आदि की और अंग्रेजों के वफादार हो गये थे और शान की जिंदगी बितायी थी। पिता को याद करते फैज एक जगह लिखते हैं कि उनका नाम सुल्तान था और मैं यह कह सकता हूं कि मेरे पिता राजा थे। पर विडंबना यह रही कि मरते समय तक उनके पिता ने अपनी सारी संपत्ति मौज-मस्ती में गंवा दी थी और विरासत में फैज के लिए संघर्ष छोड गये थे। फैज लिखते हैं कि जब पिता गुजरे तो घर में खाने तक को कुछ नहीं था।
1941 द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनका पहला कविता संकलन आया था जो खूब बिका था। पर युद्ध के बढने पर फैज ने फौज ज्वायन कर लिया। उस समय तक उनमें वामपंथी रूझान पैदा हो चुकी थी और उन पर फौज में शक किया जाता था। युद्ध की समाप्ति पर उन्होंने खुद फौज से अलग कर लिया। आगे 1947 में वे पाकिस्तान टाइम्स के संपादक हुए और चार साल संपादकी की। इसी समय अपने एक फौजी मित्र जनरल अकबर खान के साथ मिलकर सरकार पलटने के षडयंत्र में उन्हें जेल हुयी। जेल में पढने-लिखने का काफी वक्त होने के चलते उनकी कलम वहां लगातार चलती रही।
यह सब पढते जाहिर होता है कि फैज में जिंदगी को जीने का दुर्निवार जज्बा था जो जेल के कमरों को भी अध्ययन कक्ष में बदल देता था। ऐसी मिसालें हमारे यहां पं. नेहरू, गांधी आदि ने भी दी हैं जिन्होंने जेल में रह कर काफी कुछ पढा लिखा।
अपनी शरीफाना बनावट का श्रेय फैज महिलाओं को देते हैं जिनकी सोहबत में वे आम उज्जडपन से बचे रहे। फैज के पारिवारिक मित्र आफताब अहमद लिखते हैं – वो किसी से कोई कडवी या सख्त बात नहीं करते थे। शायद इसीलिए जीवन की कठिनइयों को वे अपने ढंग से झेल सके। जब उन्हें सरकार पलटने के इलजाम में जेल हुयी तो कुछ अखबारों ने उन्हें लेकर गद्दार विशेषांक तक निकाला। उस समय फैज ने लिखा –
जो हम पे गुजरी सो गुजरी, मगर शबे हिज्रां
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले।
फैज की नाजुकमिजाजी की बाबत उनके साथ जेल में चार साल गुजार चुके साथी मेजर मुहम्मद इश्हाक लिखते हैं - ...यूं ही किसी ने त्योरी चढा रखी हो, उनकी तबीयत जरूरत खराब हो जाती है, और इसके साथ ही शायरी की कैफियत काफूर हो जाती है।
किताब फैज से जुडे कई निजी प्रसंग को सामने लाती है, जैसे कि वे छिपकलियों से बहुत घिनाते थे और आस पास दिख जाने पर बिछावन पर सो नहीं पाते थे। पाकिस्तान के फौजी शासन के समय जब वहां तमाम हिंदुस्ताने से जुडे रचनाकारों को पढने पर पाबंदी लगा दी गयी थी और रेडियो से बस इकबाल की रचनाओं का प्रसारण होता था तब फैज हिंदुस्तान रेडियों से अमीर खुसरो, फैयाज खां आदि को सुना करते थे।
पुस्तक के दूसरे खंड में फैज की खतो-किताबत और बातचीत को संकलित किया गया है। जिसमें नूर जहीर और जहूर सिद्दीकी ने फैज और एलिस के खतों को सामने रखा है। इसके अलावे इब्बार रब्बी , नईम अहमद आदि से फैज की बातचीत भी इसमें शामिल है। कुल मिलाकर यह पुस्तक फैज को समझने में काफी हद तक मददगार साबित होती है।
पुस्तक – फैज की शख्सियत: अंधेरे में सुर्ख लौ
संपादन – मुरली मनोहर प्रसाद सिंह,चंचल चौहान,कांतिमोहन सोज
प्रकाशक – राजकमल
बुधवार, 7 दिसंबर 2016
अरूण कमल का भोगवादी गद्य – पारचूनी परचम
“कविता और समय´´ पुस्तक में संकलित `कविता का आत्म संघर्ष´ शीर्षक टिप्पणी में मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को याद करते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “कौन-सा शब्द हम चुनें और कौन-सा छोड़ दें। यह बहुत महत्वपूर्ण होता है।…बहुत बार तो हम सिर्फ शब्दों के प्रचलन को जांच करके पता लगा सकते हैं कि कवि का समाज से संपर्क कैसा है, कौन से विषयों को वह चुनता है और फिर उसकी पूरी दृष्टि कैसी है। यानी विषय से शुरू करके एक शब्द का, बल्कि हम तो कहेंगे एक मात्राा तक का जो चुनाव होता है वहां तक यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया चलती रहती है।´´
उपरोक्त गंभीर वक्तव्य पुस्तक की `टिप्पणियां´ के अंतर्गत संकलित अपेक्षाकृत हल्के माने गए निबंधों में से एक से है। पुस्तक के आरंभिक `आलोचना´ खंड का अंतिम आलेख `हिंदी के हित का अभिमान वह´ नामवर सिंह पर है। आलोचना खंड में ही रघुवीर सहाय पर `न्याय की लड़ाई के पक्ष में´ शीर्षक से लिखते हुए अरुण कमल कहते हैं- “किसी भी कवि की निपुणता और उसके संपूर्ण काव्य-आचार तथा जीवन-दृष्टि की जांच एक उपयुक्त कविता के जरिए हो सकती है।´´ इसी को ध्यान में रख मैंने अरुण कमल के गद्य विवेक को समझने के लिए नामवर सिंह पर लिखा उनका यह आलेख चुना है। ध्यान से पढ़ने पर यह आलेख व्यंग्याभिनंदन लगता है। यानी व्यंग्य और अभिनंदन का मिश्रण। नामवर सिंह पर लिखित यह आलेख ग्यारह पृष्ठों में है जिसमें तीन पृष्ठ सीधे उनकी पुस्तक `कहना न होगा´ से उद्ध्ृत हैं।
अपने अभिनंदनालेख के अंतिम पैरों में गंभीर होते हुए अरुण कमल लिखते हैं- “आलोचक पर लिखा जाए और कुछ भी आलोचना न की जाए तो शोभा नहीं देता। आलोचना तो पवित्री (बोल्ड लेटर में) है जिसके बिना कोई भी साहित्य-भोज न तो आरंभ हो सकता है, न पूर्ण, न पवित्र।´´
लेखन में मात्रा और ध्यान की महत्ता बताने वाले अरुण कमल की ध्वनियों का संसार बाजारपरक और खाऊ किस्म का लगता है। वे आलोचना शोभा बढ़ाने (अभिनंदन) के लिए लिखते हैं। फिर आलोचना उनके लिए पवित्री (चरणामृत-परसादी) भी है और साहित्य भोज। अगर अरुण कमल मलयज से उनके समय के विवेक की सफाई मांग सकते हैं तो क्या हमें भी यह अधिकार मिलता है कि हम उनसे इन महाप्राण ध्वनियों का निहितार्थ पूछें? इसी पुस्तक में अरुण कमल रघुवीर सहाय की कविता पंक्ति पर आपत्ति करते लिखते हैं कि “यह कहने का भद्दा ढंग है´´ आलोचना पर बात करने का अरुण कमल का उपरोक्त ढंग कैसा है? क्या वह भोगवादी है? और पूंजीवादी भी, जिसका अच्छा खाका मुक्तिबोध अपनी `पूंजीवादी समाज के प्रति´ कविता में खींचते हैं।
“इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छन्द-जितना ढोंग, जितना भोग है निबंध।´´
आगे अरुण कमल नामवर सिंह द्वारा अपने प्रिय आलोचक एफआर लिविस पर की गई टिप्पणी को ही नामवर जी के लिए उद्धृत कर देते हैं। इस तरह घर से एक पाई (शब्द) लगाए बिना ही रंग चोखा कर लेते हैं। फिर वे लिखते हैं, “हो सकता है डॉ नामवर सिंह में कई भटकाव हों…भटकना पसंद करूंगा। नामवर सिंह के साथ…।´´ `हो सकता है´, `शायद´, `संभावित´, `लेकिन´ के बहुप्रयोग वाली अरुण कमल की यह भाषा ही भटकाने वाली है। भटकना अरुण कमल को पसंद भी है! पर क्या यह अभिनंदन नामवर सिंह को भटका सकेगा! या वह पहले ही भटक चुके हैं? कहीं पर एक बार नामवर सिंह ने अपनी खूबी बताते हुए लिखा था- “मेरी हिम्मत देखिए मेरी तबीयत देखिए, सुलझे हुए मसले को फिर से उलझाता हूं मैं।´´
काव्य भाषा की समझ अरुण कमल को चाहे जितनी हो पर अपने समय की समझ खूब है। तभी तो बाजार की भाषा पर हमले की तेजी को देखते उन्हें प्रतिकार में कविता पर `अंधाधुंध टिप्पणी करने की जरूरत पड़ती है। इस टिप्पणी का शीर्षक `पारचून´ देते हैं वे। `पारचून´ में वे लिखते हैं “यदि ईश्वर है तो यह पूरी पृथ्वी उसके लिए पारचून की एक दुकान ही तो है, कविता भी ऐसी ही अच्छी लगती है, ढेर-ढेर चीज़ें, बेइंतहा, सृष्टि की एक अद्भुत नुमाइश-पारचून की दुकान।´´
कुल लब्बो-लुआब यह कि आलोचना अगर पवित्री (परसादी) है तो कविता पारचून की दुकान। चलिए कविता की कुछ तो इज्जत रखी। परसादी की तरह `मोफत´ की तो नहीं कहा। यूं आज मोफतखोरों का ही बोल-बाला है।
अकादमी पुरस्कार मिलने के बाद एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में अरुण कमल खुद को माक्र्सवादी बताते हैं। चलिए माक्र्सवाद का नया अर्थशास्त्र `पारचून´ में दृष्टिगोचर हुआ। पर सवाल उठता है कि फिर वे कवि श्रीकांत वर्मा को बाजार और उदारीकरण की पक्षधर कांग्रेस के प्रवक्ता होने के चलते क्यों कोसते हैं!
`मगध´ पर लिखते अरुण कमल लिखते हैं“मैं लगातार किंचित विस्मय के साथ सोचता रहा कि एक समर्थ कवि जो शासक दल का उच्चािधकारी और प्रवक्ता है, वह आज कैसी कविताएं लिख सकता है…एक कवि जो तत्कालीन जीवन के कष्टों और विडंबनाओं का साक्षी नहीं हो सकता, अन्याय और संहार का प्रतिवाद नहीं कर सकता। वह काल और शाश्वत जीवन के बारे में लिखने का अधिकारी है? पता नहीं ये विचार कवि द्वारा श्रीकांत वर्मा पुरस्कार लेने के पहले के हैं या बाद के। पुरस्कार के निर्णय में क्या आज भी श्रीकांत वर्मा की कांग्रेेसी सांसद पत्नी की भागीदारी नहीं है! क्या श्रीकांत वर्मा के बेटे की जालसाजी उजागर होने के बाद कवि के विचार उस पुरस्कार के प्रति बदले हैं? नहीं, तो श्रीकांत वर्मा से ऐसे सवालों के मानी क्या हैं? श्रीकांत वर्मा की पुस्तक `मगध´ उनके विवादास्पद व्यक्तित्व के बाद भी जिस निर्विवादिता को प्राप्त कर चुकी है, क्या उससे अरुण कमल को जलन होती है?
फिर अकादमी पुरस्कार भी क्या उसी कांग्रेसी या भाजपाई संस्कृति का एक हिस्सा नहीं है जिसके लिए अरुण कमल श्रीकांत वर्मा के कविता के अिèाकार को ही सवालों के घेरे में ला देते हैं। अकादमियों के स्वरूप पर प्रकाश डालते नामवर सिंह लिख चुके हैं- “नेहरू की दृष्टि में संस्कृति एक `एलीटिस्ट´ अवधारणा थी और उन्होंने रवींद्रनाथ की परंपरा में ही भद्रवर्गोचित अकादमियों की स्थापना की।´´
अरुण कमल की भाषा में `भोग´ और `चारण´ वृत्ति को बढ़ावा देने वाली ध्वनियां सर्वाधिक हैं। उनके लेखन का अधिकांश आपको एक किंकर्तव्यविमूढ़ता में ला खड़ा करता है। वे नामवर सिंह पर लिखते हैं कि `आलोचक का सबसे पहला काम शायद यही रहा है और है भी- लोगों को जगाए रखाना, जब सब सो रहे हों तब जाकर कुंडी पीटना।´ क्या साहित्य में जगाने से मतलब नींद खराब करना होता है! फिर `पहला´ के पूर्व `सबसे´ का अनोखा प्रयोग! दरअसल कहने को बातों का टोटा होने पर ही ऐसी जड़ाऊ भाषा गढ़नी पड़ती है।
अरुण कमल के अनुसार नामवर सिंह हिंदी के हित का अभिमान हैंµ“पूंजीभूत मेधा, नाभि, बंजारा, अकेले ही संपूर्ण प्रतिपक्ष हैं।´´ “और अविस्मरणीय अनुभव है उन्हें सुनना-निष्कम्प स्वर और `सस्वर गद्य´। `विचार दुर्भ्रिक्ष´ में विचारों का छप्पन भोग। इस छप्पन भोग के बिना शोभा ही नहीं बनती अरुण कमल के पैरे की। आखिर दुर्भिक्ष में भी `छप्पन भोग´ की पुरोहित कामना किस मानस को दर्शाती है?
मतलब साफ है कि कहीं आलोचना पवित्राी है, कहीं छप्पन भोग, कहीं दुधारू। या यूं कहें कि जो दुधारू है, वही आलोचना है। कहावत भी है कि दुधारू गाय की दो लात सही। सो अरुण कमल की नजर गाय के दूध पर रहती है। जब तक प्रशस्ति है तब-तक दुधारू है। फिर उन्होंने कविता को खूंटा बना डाला है। भला खूंटे से बंधे बिना, दुधारू हुए बिना आलोचना कैसे हो सकती है! जाने खुद पर ऐसी दुधारू शैली में आलेख देख नामवर सिंह क्या सोचते होंगे? क्योंकि “वागाडंबर भाषा का सबसे बड़ा दोष है´´ यह नामवर सिंह का ही कथन है।
कभी आलोचना को वे सिल (सिलबट्टा) बताते हैं जिस पर विवेक की छूरी सान चढ़ती है, कभी उसे ऐसा शिकारी कुत्ता बताते हैं जो सूंघ नहीं सकता। कुल मिला कर अरुण कमल के नामवर सिंह पर लिखे इस लेख के आधार पर आलोचना पर एक पॉप गीत तैयार किया जा सकता। वो जो गाना है ना गोविंदा वाला, “…मेरी मरजी। आलोचना तेरा ये करूं वो करूं मेरी मरजी।´´
फिर वे लिखते हैं कि नामवर सिंह के निष्कर्ष रचना के निष्कर्ष हैं। पर वे कौन से निष्कर्ष हैं, इस पर वे एक पंक्ति नहीं लिखते। भई जैसे `कहना न होगा´ से लेकर तीन पृष्ठ भरे वैसे ही नामवर सिंह पर `पहल´ के अंक से कुछ पृष्ठ निष्कर्ष पाठकों को उपलब्ध करा देते उद्धरण के रूप में। जैसे- एफआर लिविस पर टिप्पणी उपलब्ध कराई है।
आगे वे आलोचक के कर्तव्य की गंभीरता बतलाते हुए लिखते हैं“ढेर सारी कविताओं के, बीच ऐसी कविताओं को पहचानना भी दुष्कर है, जो कि एक श्रेष्ठ आलोचक को करना होता है- गाड़ी दौड़ में सबसे तेज दौड़ने वाली गाड़ी के साथ-साथ नजर टिकाए हुए – दौड़ना।´´ यहां कविता लेखन को घुड़दौड़ बना दिया गया। और आलोचक सट्टेबाज। नामवर सिंह का जो वक्तव्य अरुण कमल को मार्मिक लगा वह यह है कि “मैं तो चारण हूं, प्रत्येक राज-कवि का गुण गाने को तत्पर।´´ अकादमी पुरस्कार के बाद राज-कवि होने में काहे का संदेह।
आगे अरुण कमल लिखते हैं, “सृजन का अर्थ है शिष्ठ-भाषा को लोकभाषा के पास गर्भाधान हेतु ले जाना।´´ मतलब एक सांड भाषा दूसरी गाय भाषा। आगे वे दो तरह की आलोचना भी बताते हैं। एक पत्रकारी आलोचना जो दाएं-बाएं मुंह मारती चलती है, दूसरी अफसरी आलोचना जो गठिया पीिड़त बिना देह हुक्म चलाती है। क्या उनका आशय अज्ञेय, रघुवीर सहाय और अशोक वाजपेयी से है! और नामवर सिंह को वे दोनों के विरुद्ध पाते हैं। `कहना न होगा´ पर वे लिखते हैं, इसमें है, “विचार की एक मुख्यधारा और फिर सहायक नदियां। एक मुख्य घर और दालान बैठका।´´ गतिशील नदी और घर-बैठका का तुलनात्मक भानुमतीय विवेचन अरुण कमल के वश की ही बात है। वे कहते हैं कि नामवर सिंह की इस किताब के आधार पर `गाइड´ या `मैनुअल´ तैयार किया जा सकता है। कुल मिलाकर अरुण कमल कविता की अकादमिक पढ़ाई से बाहर आलोचना का काम समझ ही नहीं पाते। अंत में वे नामवर सिंह को तालस्तोय बताते हुए उनमें `लोमड़ी´ और `साही´ की क्षमताएं एक साथ देख पाते हैं। अच्छा है `साही´ पर एक केले का थंब गिरा देने की जरूरत है और लोमड़ी की बाजारू मुफ्तखोरी से तो लड़ने की जरूरत पड़ेगी ही।
पटना से प्रकाशित पाक्षिक न्यूज ब्रेक में यह टिप्पणी अरसा पहले प्रकाशित हो चुकी है।
शुक्रवार, 29 जुलाई 2016
नामवर सिंह - प्रेमचन्द और भारतीय समाज
बढकर आन्दोलन और क्रांति की बात करते हैं। प्रेमचन्द अपने जमाने के साहित्यकारों से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं।‘
यहां नामवर जी की बातें स्पष्ट नहीं हैं। यह तो ठीक है कि प्रेमचन्द अपने जमाने के साहित्यकारों से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन की बात करते हैं पर गांधी से भी दो कदम आगे बढकर आंदोलन की बात ही करते हैं,
जबकि गांधी आंदोलन भी करते हैं। केवल बात नहीं करते। एक लेखक के रूप में प्रेमचन्द से हम उस तरह से आंदोलन की अपेक्षा भी नहीं करते।
थी...। राजनीति को गांधी यदि संघर्ष की नई भाषा , नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे तो साहित्य को भी प्रेमचन्द उसी प्रकार नई भाषा ,नई प्रणाली और नई दिशा दे रहे थे।‘
का श्रेय देते हैं।
एक आलेख में दलित साहित्य और प्रेमचन्द विषय पर भी विचार किया गया है। नामवर सिंह का स्पष्ट मत है कि प्रेमचन्द कोई दलित साहित्यकार नहीं थे। यह अलग बात है कि संभवत: वे पहले उपन्यासकार हैं हिन्दी के, जिनके उपन्यास का नायक ‘सूरदास’ जाति का चर्मकार है। प्रेमचन्द की रचनाओं से गुजरने के बाद यह पता चलता है कि दलितों के मंदिर प्रवेश को वे दलित समस्या का समाधान नहीं मानते थे। वे उन्हें भी
किसान-मजदूर की तरह देखते थे और उनका आर्थिक और सामाजिक उत्थान चाहते थे। गांधी जी से अलग प्रेमचन्द का मत यह था कि जबतक जाति-पांति की व्यवस्था नहीं तोडी जाएगी तबतक दलितों को मुक्ति नहीं मिलेगी।
सांप्रदायिकता के सवाल पर प्रेमचन्द के मतों पर भी एक आलेख में विचार किया गया है। सांप्रदायिकता पर चोट करते प्रेमचन्द लिखते हैं कि वह हमेशा संस्कृति की दुहाई देती है। प्रेमचन्द कहते है कि आज संसार
में बस एक ही संस्कृति है आर्थिक संस्कृति। आर्य संस्कृति,ईरानी संस्कृति और अरब संस्कृति नाम की चीज तो है पर ईसाई,मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।
इस तरह प्रेमचन्द के तमाम विषय पर विचारों को जानने के लिहाज से पुस्तक अच्छी बन पडी है। इसमें प्रेमचन्द के आलोचकों की भी अच्छी खबर ली गयी है। प्रेमचन्द को सही संदर्भों में समझने में यह पुस्तक एक हद तक मददगार हो सकती है।
बुधवार, 29 जून 2016
उमा – पिता की अदृश्य होती सत्ता
रविवार, 24 अप्रैल 2016
हृषिकेश सुलभ की कहानियां, विजयकांत और आंचलिकता
शनिवार, 23 अप्रैल 2016
पंखुरी सिन्हा, चंदन पाण्डेय और कविता की कहानियां
पंखुरी की कहानियां कला फिल्मों की तरह प्रभाव छोड़ती हैं,जिनमें क्रियाओं से ज्यादा सोचने को दिखाया जाता है। सोच के कई स्तर इनमें एक साथ दिखायी पड़ते हैं। कहीं विचार कहीं भाव कहीं इनका द्वंद्व अभिव्यक्त होता है जिनमें। और जैसे कला फिल्में लोकप्रिय फिल्मों के नायक आधारित मिथ को तोड़ने की कोशिश करती हैं ये कहानियां भी कथा के रूप या फार्मेट को तोड़ती हैं। कथा के पारंपरिक रूप को जो कहानी सबसे कम तोड़ती है वह 'समानान्तर रेखाओं का आकर्षण' है। यह एक लड़की के अपने से कम उम्र लड़के के प्रति आकर्षण की कहानी है। लड़की उसे एक बार प्राप्त कर लेती है पर अगली बार लड़क खुद को नियंत्रित कर लेता है। कहानी कई बातों को अपने ढंग से सामने ला पाती है। कहानी दिखाती है कि बाजार किस तरह प्रेम की कंडिशनिंग करता है कि प्रेम आकर्षण की परिभाषा से आगे नहीं बढ़ पाता। दूसरी बात कि बाजार और भूमंडलीकृत दुनिया में एक लड़की की स्थिति में परिवर्तन आया है और अब वह भी अपने प्रेम और आकर्षण को पुरूषों के मुकाबिल उतनी ही ताकत से सामने रख पाने की सामर्थ्य रखने लगी है।
पंखुरी की कई कहानियां भारतीय समाज के वैचारिक संकट को भी दिखलाती हैं। यह लेखिका का भी संकट है - कि वह निरूपाय ,अकेली है,संकट को वह देखती है,पहचानती है पर उससे दो-चार होने की ताकत वह अभी जुटा नहीं पायी है। 'शत्रु का चेहरा' कहानी में इसे देखा जा सकता है। संकट यही है कि शत्रु का कोई मुकम्मल चेहरा नहीं बनता और यही लेखिका की परेशानी का सबब है। शत्रु का चेहरा ना तलाश पाने की 'कड़वाहट' में कथा नायिका जलूस का साथ नहीं दे पाती और भाग खड़ी होती है। उसे अपने भागने का अहसास भी है -' ... वह भाग ही रही है। जाने कहां से भागकर कहां को जा रही है। जाने किससे भाग रही है।' दरअसल मंजिल हर बार साफ नहीं दिखती,वह सफर में होती है या उसके बाद ही मिलती है। इसलिए मंजिल ना दिखे तेा भागने की बजाय उस राह पर चलना ही सही होगा।पंखुड़ी की कहानियों में विद्रोह और विचार जहां तहां छोटे-छोटे विस्फोट के रूप में आते हैं। पर उनमें एक तारतम्य या निरंतरता ना होने से वो बदलाव की ताकत नहीं बना पाते और लेखिका को संघर्ष की राह से भागने को मजबूर होना पड़ता है। शत्रु की पहचान के लिए इन विद्रोही स्वरों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। दरअसल चेहरा तो है ही शत्रु का पर आंतरिक ताकत के अभाव में उसे सामने रखने की हिम्मत बटोरनी है लेखिका को।यूं देश और दुनिया के अंतरविरोधों को पूरी जटिलता के साथ जिस तरह ये कहानियां अभिव्यक्त करती हैं वैसा सामान्यत: कविता में होता है। इन्हें खोलने की कोशिश में जैसे पूरी दुनिया खुलती चली जाती है।
पंखुरी की कहानियों से गुजरने के बाद चन्दन पाण्डेय की कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास गहराता है कि हिन्दी कहानी धीरे-धीरे अपना चोला बदलती एक नये मुकाम की ओर अग्रसर है। पंखुड़ी के यहां अगर आकलन स्पष्ट है तो चंदन के यहां कल्पना भविष्य के आभासी यथार्थ को एक नयी जमीन मुहय्या कराती दिखती है। अपने समय और समाज के अंतरविरोधों को उसके क्रूर चेहरे के साथ सामने ला देने में चन्दन की कहानियां समर्थ हैं। इस मायने में वे अकेले से हैं अपनी युवा जमात में।
चन्दन की कहानी 'सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी' को ही लें। यह किशोर जीवन पर इक्कीसवीं सदी की मार को जिस तरह बहुस्तरीयता में पकड़ती है वह विस्मित करता है। पूंजी का क्रूरतम चेहरा, बेचारा स्कूल टीचर आज माट साहब से भी ज्यादा दुर्गती को प्राप्त हो रहा है। और जन्म लेने से पहले ही प्रेम की सुकोमल भावनाओं पर आधुनिक पूंजी के दंश को कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।
कभी शमशेर ने भविष्य के होने वाले कवि के लिए के लिए कहा था कि उसे विज्ञान,कला,इतिहास और तमाम आधुनिक प्रविधियों की जानकारी होनी चाहिए। युवा कविता के अन्वेषियों में तो ज्ञान की वह ललक और उसका प्रयोग नहीं दिखता है पर चन्दन जैसे युवा कथाकरों को पढते हुए संतोष होता है कि अपनी तमाम अत्याधुनिक सूचनाओं का प्रयोग वे कुशलता से कर पा रहे हैं । पूंजी प्रसूत समकालीन क्रूरताओं का चेहरा दिखाने में चन्दन का सानी नहीं है । लीलाधर जगूड़ी की कविता मंदिर लेन और विष्णु खरे की कुछ कविताएं पहले यह काम सफलता से करती दिखती थीं, आज वही काम चन्दन की कहानियां करती दिखाई देती हैं। उनकी करीब करीब सारी कहानियां इसका उदाहरण हैं।
चंदन की कहानी 'रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' का आरंभ तो पंखुड़ी की कहानियों की तरह एक बारीक विवरणात्मकता से होता है पर आगे यह अपने समय के मारे गंवई प्रेमियेां की कथा में तब्दील हो जाती है। क्रूरता का चेहरा सर्वत्र एक सा है, क्या सिटी स्कूल और क्या गांव-पथार। चंदन की कहानी भूलना व्यवस्था के अत्याधुनिक चेहरे की कठोरता को उसकी गलघोंटू छवियों के साथ सामने लाती है। इसी तरह 'परिन्दगी है कि नाकामयाब है' ग्रामीण जीवन में जमीन जायदाद के प्रति लोगों के अंधमोह से उपजी दारूण स्थितियों को अपना विषय बनाती है। यह दिखलाती है कि धन कि लालसा कैसे एक स्त्री को भी पुरूषों की तरह एक क्रूरतम चेहरा प्रदान करती है। शिवपूजन सहाय ने 'देहाती दुनिया' में लिखा था कि गांव के लोग भोले तो क्या भाले जरूर होते हैं। तो ग्रामीणों के इस भालेपन की नोंक इस कहानी के हर पृष्ठ पर एक तीखा दबाव बनाती दिखती है।
नये युग में व्यक्ति और समाज के अंतरसंघर्षों को उदघाटित करती कविता की कहानियां चन्दन के मुकाबले ज्यादा सकारात्मक हैं। । 'उलटबांसी' कहानी में ही जिस तरह एक मां अंतत: शादी का निर्णय लेती है वह समाज की बदलती अंतरसंरचना की झलक दिखाता है। मां, बाप, पिता, पति आदि तमाम शब्द आज नये अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। इस कहानी में अपूर्वा सवाल खड़े करती पूछती है - 'नदियां बदलती हैं आपना रास्ता,फिर मां से ही अथाह धीरज की अपेक्षा क्यों .... मां पर्वत नहीं थी और पर्वत भी टूटता है छीजता है समय के साथ-साथ'।
यहां यह खयाल कितना वाजिब है कि आखिर क्यों प्रकृति के जड़ संबोधनों को जीवित करने में आदमी अपनी भावनाओं-विचारों की हत्या कर खुद को पत्थर में तब्दील कर दे। कथा में एक मां पहली बार निर्णय लेती है अपने जीवन में और चाहती है कि उसके बेटे उसका साथ दें। बेटे साथ नहीं देते पर समय साथ देता है। तभी तो मां के पत्थर होते जेहन में इस तरह का विचार पहली बार वजूद में आता है । और चारों ओर के पथरीले आवरण को तोड़ अपनी जगह बनाता है। आखिर ये विचार भी तो मां की संतानें हैं अन्य भावनाओं की तरह। हिन्दी कविता में युवा कवि पवन करण की पहचान ही इस तरह के आधुनिक सवालों को स्त्री के संदर्भ में उठाने के चलते बनी है। कविता की कहानियां उसी बात को शिद्दत से रेखांकित कर पाती है।
कविता की कहानियां प्रेम और उससे पैदा उहापोह की कहानियां हैं। प्रेम को लेकर जो विचार प्रेमीजनों के दिलो-दिमाग को मथते रहते हैं उनका एक दर्शन प्रस्तुत करती हैं कहानियां। जैसे कि - प्यार सच्चा हो तो बड़ी से बड़ी बात छोटी लगती है , या प्रेम वह है जिसकी खातिर आदमी खुद को आमूल-चूल बदल डाले। कहानी लौटते हुए हेा या आशिया-ना सबका मुख्य बिंदु प्रेम की उहापोह ही है। 'आशिया-ना' प्रेम में बिना विवाह किए सहजीवन में रहने से नये जोड़ों के सामने आई समस्याओं को लेकर बुनी गयी कहानी है। कि सहजीवन की परेशानियां प्रेमियों को दर-बदर करती हैं पर आशा है कि दूर के तारे की तरह टिमटिमाती रहती है।
पंखुरी सिन्हा के यहां जीवन जगत का आकलन है तो कविता के यहां प्रेमियों के मनोजगत की छानबीन। यथार्थ भी जहां तहां पांव पसारता है पर एक उधेड़बुन चलती रहती है। कविता की कहानियां प्रेम पर एक जिरह छेड़ती हैं , एक अनंत जिरह। 'जिरह:एक प्रेमकथा' का एक पात्र जिरह करता कहता है - दरअसल कहानी और जिन्दगी दो अलग-अलग चीजें हैं, दो अलग-अलग धरातल हैं । मैं चाहता हूं कि उनके बीच का यह फेंस टूटे। शायद कविता आगे अपनी कहानियों में यह फेंस तोड़ सकें।
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016
संदीप मील की कहानियां - कुछ नोट्स
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016
एकांत श्रीवास्तव -अध्यात्म का पुट
कवि यहाँ चाहता तो ‘सगुन’ की जगह ‘समय’ का भी प्रयोग कर सकता था। देव, ईश्वर, प्रार्थना, स्वर्ग, पाताल, प्रलय आदि शब्दों का जिन संदर्भों में एकांत प्रयोग करते हैं, वह उनकी राजनीतिक दृष्टि की बाबत साफ-साफ कहता है। ‘सत्य की खोज की कथा’ शीर्षक कविता में वे पाते हैं कि सत्य का राहुल, यशोधरा और बुद्ध से कोई नाता नहीं है। बल्कि वह तो हमारे आसपास ही था जिसे हम पहचान ना पाने के चलते बचते फिर रहे थे। देखा जाए तो राजनीति के क्षेत्र में परंपरा और सत्य के अन्वेषियों ने ‘हस्तिनापुर’ पर कब्जा प्राप्त कर लिया है पर साहित्य में अभी ऐसा हो नहीं पाया है पर एकांत इस मामले में आश्वस्त हैं और अपनी कविताओं को विजयी होने की शुभकामनाएँ देते हैं। वे चाहते हैं कि ये कविताएँ ‘पांडवों की तरह छिने हुए हस्तिनापुर को’ पुनः प्राप्त करें।
प्रकृति के जीवंत दृश्य एकांत की कविताओं में प्रभावी ढंग से आते रहे हैं, यहां वे अपनी ताकत के साथ मौजूद दिखते हैं। ‘जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियाँ इस माने में ख़ूबसूरत हैं- बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है चांद उसी का है जो उस तक पहुँचता है..।
एकांत के पास कुछ मार्मिक कविताएं हैं- ख़ून के तालाब में डूब कर तड़पते हुए उसने इच्छा की होगी कि उसका सिर मां की गोद में हो...।
एक लंबी कविता ‘कन्हार’ में कवि अपनी स्मृतियों के सहारे लोक जीवन के संकटों को चिह्नित करता है और उनके छीजते जाने को लेकर दुख व्यक्त करता है। शहरीकरण और बाज़ारवाद के विषमतामूलक प्रभावों के प्रति कवि काफी संवेदनशील है। वह चिन्तित है कि चीज़ों की कीमतें जहाँ आकाश छू रही हैं, वहीं आदमी का बाजार भाव गिरता जा रहा है।
बुधवार, 3 फ़रवरी 2016
उपेेन्द्र चौहान - आततायियों के तर्क
दशरथ की पत्नी को पहाड के बीच का दर्रा पार करते चोट लगी थी उसी से प्ररित हो दशरथ पहाड काटने के काम में लग गए थे। पत्नी इस बीच चल बसीं पर दशरथ का पहाड काट कर रास्ता बनाने का जज्बा खत्म नहीं हुआ। दशरथ की प्रेमकथा बासी इसलिए नहीं पडी क्योंकि वह प्रेम के साथ श्रम और अटूट धैर्य की भी कथा है। हालांकि हिन्दी के चर्चित कवि अरूण कमल दशरथ मांझी को नायक नहीं मानते उनके अनुसार - ‘दशरथ मांझी का श्रम एक व्यक्ति का था,समूह का नहीं ,इसलिये वह नायक नहीं थे’। क्या अरूण कमल बताएंगे कि किसी भी व्यक्ति, चाहे वो कैसा भी नायक हो उसका श्रम एक समूह का श्रम कैसे हो सकता है .. ।
उपेन्द्र की इन कविताओं में दुनिया भर के आदिम समाजों में जारी सकारात्मक और नकारात्मक तौर-तरीकों को जगह दी गयी है। जैसे एक कविता है बिठलाहा जिसमें संथाली समाज में बलात्कारी को दी जाने वाली सजा का विवरण आता है कि किस तरह से बलात्कारी के घर को संथाली समाज के लोग खत्म कर देते हैं और उसके परिजनों को गांव-समाज से बाहर कर देते हैं, बलात्कारी तो जान बचाकर पहले भाग ही चुका होता है, संथाल समाज के बालत्कारियों को दंडित करने के तौर-तरीकों से चाहे तो हमारा तथाकथित आधुनिक समाज सीख सकता है -
क्या तूने कहीं सुना है
देखा है... ऐसा कोई समाज
जो इस तरह हो खड़ा
दुराचार के खि़लाफ़!
चीन , कनाडा, इंडोनेशिया आदि के आदिवासी समाजों में प्रचलित कुप्रथाओं को भी अपनी कई कविताओं में अभिव्यक्त किया है उपेन्द्र ने। भारत में आज भी जहां-तहां से नर बलि की बीभत्स घटनाओं की खबर आती है जबतब। डायन कहकर भोली-भाली औरतों को आज भी झारखंड और बिहार में ओझा-गुणी अपना शिकार बना रहे हैं। अशिक्षा और कुंठाओं से उपजी इस तरह की क्रूरता के कई प्रसंग हैं यहां जो हमें विचलित करते हैं-
क्वाँरी लड़की का माँस उबालकर खाने से
कोई आदमी उड़ नहीं सकता
क्या तुम्हारा अपरिपक्व मस्तिष्क
इतना समझ नहीं सका
या
सैंडी कोई अलग से शैतान का अस्तित्व नहीं होता
आदमी ही किंवा शैतान हो जाता है
या
क्या सचमुच बलि से देवता हो जाते हैं ख़ुश
तब ऐसा क्यों नहीं करते
उस देवता की ही बलि दे देते
ताकि वह देवता हो जाए और ख़ुश!
या
युवतियों को ख़रीदकर फिर उनकी गर्दन दबाने में
तुम्हें कितना वक़्त लगता है जेंग डांगेपन
0 0 0
पुलिस बाबू,
हम तो केवल माँग की पूर्ति करते हैं-
लोग तो बस ख़ूबसूरत और जवान दुल्हनें चाहते हैं
कोई लड़की कैसे मरी या मारी गई
इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं, बाबू!
आख़िर किसी लड़की को
एक-न-एक दिन मरना तो है ही...!
अमानवीयता के कैस-कैसे तर्क हो सकते हैं आततायी समाज के यह इन कविताओं से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। आततायियों के ऐसे तर्क केवल आदिम समाजों में ही नहीं मिलते आधुनिक समाजों में भी ये उसी तरह फल-फूल रहे हैं, गुजरात में हुए दंगों के पीछे के आततायियों के तर्क को हम इन सबसे अलग कैसे कर सकते हैं पर वहां के रहनुमा हैं कि गुजरात की आधुनिकता और विकास के दावे करते नहीं थकते। देखा जाए तो यह आततायीपन दुनिया भर में नकाब के पीछे आज भी जीवित है, उसका चोला भले अलग हो पर हर जगह उसकी अमानवीयता एक सी है, उसके शिकार एक से हैं। उनका कालाजादू आज भी वैसा ही चल रहा है, आज भी आसराम बापू जैसे के आश्रम में इस कालाजादू के शिकार बच्चों की लाशें मिलती हैं। उपेन्द्र भी इससे अवगत हैं -
इवे कबीले की कुमारी
दात्सोमोर अकू
तुम
केवल घाना के बोल्टा क्षेत्र में ही नहीं हो
मैंने तुम्हें जहाँ भी ढूँढ़ा-वहीं पाया
अफ्रीका में
लैटिन अमरीका में
एशिया और यूरोप में।
इन कविताओं में उपेन्द्र ने पीडा के और भी कई प्रसंग उठाए है, क्लाड इथरली से लेकर रत्नाबाई काणेगांवकर तक, वे पाठकों को व्यथित करते हैं। आहत मनुजता के यह तमाम प्रसंग हमें सोचने को विवश करते हैं कि क्या इक्कीसवीं सदी सचमुच विज्ञान या विकास की सदी है या मध्ययुगीन कालिमा अपनी काली उंगली उठाए हमारे भाल को आज भी कलंकित कर रही है। क्योंकि इस आधुनिक और विकासोन्मुख सदी में भी सडक पर एक प्रसवपीडिता हमारे रहनुमाओं के काफिले के गुजरने के इंतजार में अपने अजन्मे बच्चे के साथ काल-कवलित हो जा रही है। उपेन्द्र की एक लंबी कविता कार्यकर्त्ता है जिसमें कवि ने राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के दुख को जबान दी है। कार्यकर्त्ताओं पर हिन्दी में संभवतया यह पहली कविता है जो उनके पक्ष को सामने रखने की कोशिश करती है। उपेन्द्र कवि के साथ खुद एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता भी रहे हैं और इस कविता को उनका निज के साथ साक्षात्कार माना जा सकता है-
हर जगह लड़ रहे हैं कार्यकर्त्ता!
मर रहे हैं कार्यकर्त्ता!
उनके ख़ून से अभी तक माटी में है ललाई
नेता बन रहे ख़ून सोख्ता!
इस ढ़लती उम्र में अभी तक
जो रह गये हैं केवल कार्यकर्त्ता
उन्हीं के संघर्ष से कहीं पक रहा है लोहा
और बन रहे हैं औज़ार
और हो रही तैयारी- किसी युद्ध की!
रविवार, 31 जनवरी 2016
राजीव पांडे - यथार्थ तक जाने की पहलकदमी
‘कुछ अपवादों को छोड़कर/ऐसा लगता रहा है/भूख ने भूख को
‘आम
गुरुवार, 28 जनवरी 2016
विनय विश्वास - बढ़ते अंधेरे की पहचान
अंधेरे इतने फैल गए घरों में कि जगह नहीं बची रोशनदानों को/चोरियों ने बंद कर दिए/रोशनी और हवा के रास्ते/हम
हमें मारकर भी/डर भर गया/अंधेरों की हाड़-हाड़ में/मिटे भी ऐसे कि दूर तक उगते चले